आपदा में तो एकजुटता दिखे
केरल में सौ साल बाद रिकॉर्डतोड़ बारिश भारी तबाही और संकट ले आई है, उससे निपटने में राज्य सरकार, सेना, एनडीआरएफ समेत दूसरी केंद्रीय और राज्य सरकार की एजेंसियों ने मिलकर कारगर भूमिका निभाई। इसमें तीन सौ से अधिक लोग जान गंवा चुके हैं और लाखों बेघर हो गए हैं। राज्य सरकार ने करीब बीस हजार करोड़ रुपये के नुकसान की आशंका जताई है। तात्कालिक स्तर पर पुनर्वास और पुनर्निर्माण का काम शुरू भी हो गया है। लेकिन इस आपदा ने देश के प्रशासनिक, सामाजिक, राजनैतिक और संघीय ढांचे पर कई सवाल भी खड़े कर दिए हैं, जिनका जवाब जितना जल्दी हो सके, हमें ढ़ूंढ़ लेना चाहिए।
पहला यह कि यह आपदा जितनी प्राकृतिक थी, उतनी ही मानव निर्मित भी थी। सौ साल बाद ऐसी भीषण बारिश हुई। इस पर किसी का बस नहीं है। लेकिन जिस तरह से इस तटीय राज्य में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया गया, अनियंत्रित निर्माण और खनन हुआ, वह लोगों की लालच और विभिन्न सरकारों की लापरवाही और असंतुलित विकास के मॉडल का नतीजा है। पर्यटन के लिए दुनिया भर में मशहूर और अपनी खूबसूरती तथा बेहतर मौसम के लिए 'ईश्वर का अपना देश' कहे जाने वाले केरल को यह दिन देखना पड़ेगा, इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। लेकिन बेहिसाब दोहन और लोगों की लालच ने यह दिन दिखाया, इसे स्वीकार करने से नहीं हिचकना चाहिए। सच को स्वीकारने का मतलब है कि हम अपनी गलती सुधारने की शुरुआत कर देंगे और भविष्य में ऐसे संकट से बचने की दिशा में बढ़ सकेंगे। केरल सामाजिक जागरूकता, शिक्षा के स्तर और लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन भागीदारी के मोर्चे पर देश के बाकी राज्यों से बेहतर स्थिति में है इसलिए इसका जवाब वहां के लोग, सरकार और संस्थाएं ढ़ूंढ़ने की कोशिश करेंगी, इसकी प्रबल संभावना है।
यह त्रासदी हमें कई तरह के सबक दे गई है। सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं के साथ व्यक्तिगत स्तर पर लोगों ने जैसे सहयोग का हाथ बढ़ाया, वह वाकई एक मिसाल है। कुछ माह पहले जिस कॉलेज छात्रा को लोगों ने उसकी आर्थिक स्थिति व जिजीविषा के लिए मदद की थी, उसने इस आपदा में आर्थिक सहयोग देकर उदाहरण पेश किया। बचाव दल के साथ काम कर रहे उस युवा मछुआरे को देश और दुनिया कभी नहीं भूल सकती, जो गर्भवती महिला और दूसरी महिलाओं को नाव में चढ़ाने के लिए खुद नाक तक पानी में झुककर अपनी कमर को फुट रेस्ट की तरह हाजिर कर रहा था। हमारी सेना, वायु सेना और नौसेना के जवानों ने एनडीआरएफ व दूसरी एजेंसियों के साथ मिलकर करीब दस लाख लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। मदद के लिए देश के हर हिस्से से भोजन, कपड़े, दवाइयां, नकद वगैरह पहुंची। यह संकट की घड़ी में देशवासियों के एक साथ खड़ा होने की अनोखी मिसाल है।
लेकिन कुछ ऐसा भी घटा जो अप्रिय था। मसलन, कुछ नेताओं ने गलतबयानी की। एक कथित विचारक ने तो इस प्राकृतिक आपदा को सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति के न्यायालय के फैसले से जोड़ने तक का बयान दे दिया। दूसरे, केरलवासियों के मन में कहीं न कहीं यह बात भी चुभी कि क्या केरल देश का हिस्सा नहीं है? क्या केंद्र और राज्य में अलग दल की सरकार होने से आपदा राहत को अलग तरीके से देखा जा सकता है? इस मसले में केंद्र सरकार की राहत की राशि को लेकर सवाल उठे। बात यहां तक आई कि एक विदेशी सरकार की मदद की पेशकश केंद्र की मदद से बड़ी है। ये ऐसे सवाल हैं, जो नहीं उठने चाहिए क्योंकि देश एक संघीय ढांचे पर खड़ा है और सहकारी संघवाद की बात लगातार होती रही है। लेकिन बात केवल केरल की आपदा की नहीं है। संसाधनों के मामले में ऐसे सवाल पिछले कुछ समय से उठ रहे हैं। पंद्रहवें वित्त आयोग के सामने दक्षिणी राज्य यह सवाल उठा रहे हैं कि अगर हमारे यहां समृद्धि है और जनसंख्या कम है तो केंद्रीय संसाधनों में हमारे हिस्से को कम करने का मतलब हमें अच्छे काम करने के लिए सजा देने जैसा है। इसके पहले जीएसटी के राजस्व को लेकर भी उत्पादक राज्यों और खपत वाले राज्यों का विवाद चला था।
कुछ तल्ख सवाल खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लेकर भी उठे। आपदा के शुरुआती दिनों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और खासकर हिंदी चैनलों ने केरल का रुख ही नहीं किया। उनकी कवरेज का केंद्र पूरी तरह दिल्ली बनी रही। तमाम लोगों ने सोशल मीडिया पर सवाल उठाए कि यह अनदेखी क्यों? जवाब हम जैसे लोगों के पास भी नहीं था। मीडिया कवरेज से लोगों की मदद होती है और संकट का स्तर भी पता लगता है, इसलिए हर मौके पर संतुलन तो होना ही चाहिए क्योंकि लोग उम्मीद करते हैं।
उम्मीद है, हम इन तमाम सवालों का जवाब तलाशेंगे और अगर भविष्य में दुर्भाग्यवश ऐसे किसी प्राकृतिक संकट का सामना करना पड़े तो हम ज्यादा तत्परता और सामूहिकता तथा संघीय ढांचे की मजबूत भावना के साथ एक साथ खड़े दिखेंगे।