जनहित में विकल्प परखने का वक्त
भारत में 2019 के इन दिनों मनाये जा रहे लोकतंत्र के महापर्व की असली रंगत दिनोंदिन अपनी चुनौतियों और संभावनाओं की परतें खोल रही है। लोकतंत्र में बदलाव की चाल मंद होती है। हमारे जैसे अनेक तरह से बंटे-कटे समाज में लोकतंत्र के पहिए को उल्टा घुमाने वाली राजनीतिक-आर्थिक-वैचारिक ताकतें हमेशा सक्रिय रहती हैं। इन प्रवृत्तियों के बावजूद आम नागरिक को 2019 के आम चुनाव ने अपने हकों, आवश्यकताओं वगैरह को पाने की दिशा में आगे बढ़ने के रास्तों के संकेत दिए हैं। इस चुनाव के लिए जारी कांग्रेस पार्टी के घोषणा-पत्र ने पहली बार आम आदमी की अब तक भुलाई-झुठलायी गई आकांक्षाओं और अधिकारों को जमीनी पकड़ और रफ्तार देने की पहल की है। भाजपा भी कुछ ऐसे वादे पेश कर रही है। लुभावनी शब्दावली से लोगों को भरमाने की कोशिशें अब तक के सभी चुनावों की पहचान और चालू लोकतांत्रिक संभावनाओं की दुखदायी दास्तां रही है। फिर क्या ऐसा है, क्यों ऐसा है कि लगता है कि इस बार एक अच्छी, जनहितकारी फसल बोने और उसे लहलहाने वाले कदमों की संभावना नजर आ रही है।
पहले के कांग्रेस और भाजपा के घोषणा-पत्रों में आम आदमी के लिए प्रस्तावित विभिन्न उपायों की आपस में गहराई से जुड़ी प्रवृत्ति की गैर मौजूदगी पर नजर डाल लें। तभी उनकी जरूरत, संभावनाओं और अब तक चली आ रही चाल-ढाल को समझा जा सकता है। दो बातें संक्षेप में इस मकसद को पूरा कर सकती हैं। एक, अब तक की सभी योजनाओं और नीतियों में मामूली फेरबदल के साथ लगभग सभी राजनीतिक दलों की भूमिका, नीतियां, प्रशासन पद्धति कमोबेश एक समान देखी गई है।
दूसरे, सन 1991 में इन नीतियों को बाजार के हालात के अनुसार निजी बड़ी देसी-परदेसी पूंजी को व्यापक बहुआयामी आजादी देकर और अधिक तेज राष्ट्रीय आय वृद्धि प्राप्त करने को ऊंची प्राथमिकता दे दी गयी। लगातार इतने लंबे ऐसे प्रयोग के बाद भी देश की जनता के हालात सुधर नहीं पाए। सन 2011 में सोशल-इकोनॉमिक कास्ट सेन्सस के तहत घर-घर जाकर सीधे-सादे सवालों के जरिए प्राप्त विश्वसनीय जानकारी ने सभी को हिला कर रख दिया। शायद इसीलिए शासक ताकतों ने इन तथ्यों पर लगभग ताला-सा लगा दिया। इसके अनुसार, 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के सबसे ज्यादा कमाऊ सदस्य की मासिक आय पांच हजार रुपये से कम और 92 प्रतिशत की दस हजार रुपये से कम चालू कीमतों पर थी। भारत में सामाजिक सेवाओं, सुरक्षा, जीवन की गुणवत्ता आदि के हालात पाकिस्तान को छोड़कर उपमहाद्वीप के बाकी सभी देशों से बदतर पाए गए। 1991 की नवउदारवादी नीतियां कोई जलवा नहीं दिखा पाईं। राष्ट्रीय आय में उद्योगों का हिस्सा जस का तस 15 प्रतिशत के करीब बना रहा। बढ़ती श्रम-शक्ति और क्षमताओं को ताक पर रखकर रोजगार में गंभीर गिरावट आई। चंद शीर्षस्थ लोगों की आय, संपत्ति, आर्थिक-राजनीतिक ताकत की तेज बढ़ोतरी ने गैरबराबरी की सभी सीमाएं लांघ ली। एक प्रतिशत धन्ना-सेठों की संपत्ति में इतना उछाल आया कि पिछले साल भारत में राज कर रहे भारत के कुछ मुट्ठी भर अरबपतियों ने हर दिन करीब 2,200 करोड़ रुपये हथियाए। इनके पास देश की आधी संपत्ति जमा हो गई है। इस स्थिति पर लीपापोती करने के लिए प्रतिदिन 32 रुपये के करीब गरीबी रेखा तय करके घोषित किया गया कि ऐसे मानवीय गरिमा और पहचानविहीन लोगों की तादाद घट कर अभी भी सारी आबादी की 28 प्रतिशत है।
इन अन्यायमय स्थितियों को बढ़ाने में जनविरोधी, जनअसमावेशी नीतियों, बड़ी पूंजी और बाजारपरक रणनीति के साथ-साथ काले धन और भ्रष्टाचार के दानव ने भी अपना रंग दिखाया है। सन 2014 के आम चुनाव में ऐसे कष्टों से त्रस्त जनता को सुनहरे सपने दिखाकर भाजपा केंद्र में सत्तासीन हुई। लेकिन पिछले पांच साल इन सपनों के चकनाचूर होने की कहानी कहते हैं। नाममात्र के अप्रभावी, अपर्याप्त, आंशिक, तर्कहीन तथा भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे कार्यक्रमों के दंश पर नोटबंदी जैसे घातक कदम ने भारी जनविरोधी चोट की। नतीजन, काले धन, गैर-बराबरी, गरीबी, भुखमरी और भ्रष्टाचार के प्रसार का आलम बदस्तूर बढ़ रहा है।
भारतीय जनता के सामने 2019 का आम चुनाव एक बार फिर निर्णय लेने की घड़ी पेश कर रहा है। उपलब्ध विकल्पों को परखा जा चुका है। दोनों के बीच दिखने वाले अंतर और घोर आपसी विरोध के बावजूद दोनों बड़े दलों में कोई साफ नजर आने वाली आर्थिक नीति संबंधी भिन्नता खोजना कठिन है। शाब्दिक-लोकदिखाऊ फर्क तथा अलग-अलग चेहरों-मोहरों, नारों-वादों से अलग, खासकर जनहित, दीर्घकालिक राष्ट्रीय-मानवीय हित और कार्यक्रम संबंधी मामलों में आमजन को एक वास्तविक, प्रभावी विकल्प की जरूरत है। आमजन समता, न्याय, बेहतर और गहरी लगातार जारी साझी भागीदारी, शांति-सौहार्द और लोकतांत्रिक जीवनशैली और पद्धति की चाहत लेकर राजनीतिक फैसले करना चाहते हैं, ताकि लोकतांत्रिक नतीजे भी मिलें।
एकबारगी लगा आशा की किरणें नजर नहीं आ रही हैं। पहले से अगली कतारों में जमे और वर्तमान शासन, नीतियों और कामों के साझे धनी-मानी पार्टियों से जुड़े भागीदारों ने अपने अरमानों को जी भरकर जीने में महारत और सफलता पायी है। गहराती, बहुआयामी गैर-बराबरी, बेरोजगारी, फिजूलखर्ची वगैरह ने बढ़ती जीडीपी, बचत, निवेश, राजकीय सामाजिक सेवाओं, बैंकों आदि वित्तीय सेवाओं आदि के बावजूद अच्छे-साझे जीवन, लघु उद्यमियों-कामगारों और सामाजिक भाईचारे को चोट पहुंचाई है। इन उच्चस्थ तबकों की विलासिता और आडंबरों भरी निजी और सार्वजनिक उपभोग प्रवृत्ति ने सामाजिक समरसता और देश के मानवीय सांस्कृतिक मूल्यों और सौष्ठव पर कुठाराघात किया है। घटिया राजनीतिकरण राजनीतिक नेताओं और आर्थिक व्यवसायियों ने मिलकर कानूनी और गैर-कानूनी का स्वार्थान्ध-धूसर (‘काले’ और ‘सफेद’) का मिला-जुला घालमेल बना लिया है।
हमारे लोकतंत्र द्वारा पेश नए चुनाव के अवसर को इस बार, अभूतपूर्व स्थितियों, अवसरों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ अर्थों में हमारे साझे लोकतांत्रिक अस्तित्व और वैधता को मिली चुनौती इस विकट स्थिति को विकटतर बना रही है। साथ ही इस तरह नवउदारवाद की विश्वव्यापी, दीर्घकालिक असफलता आज जगजाहिर है। ये सारी वैश्विक असफलताएं भारत में भी नजर आ रही हैं। राष्ट्रीय आय की अच्छी-खासी वृद्धि, उसकी शेष विश्व में विशेष स्थिति और उधार लिए और रिझाए विदेशी धन की विशाल राशि अपनी नाकामी, नाकारेपन और जनविरोधी प्रकृति की उद्घोषणा कर रही है। बेरोजगारी, विषमता, पर्यावरण प्रदूषण, स्वयं शासकीय तबकों द्वारा कानून की धज्जियां उड़ाना और वैकल्पिक सामाजिक न्यायवर्द्धक नीतियों का अभाव, चालू उदारवादी-लोकलुभावनवाद पर चुप्पी के साथ नये प्रभावी सोच का अभाव जनमानस में और व्यवहार में एक तरह की विरक्तता पैदा कर रहे हैं। खासतौर पर सच्चाई से खुल्लमखुल्ला कन्नी काटने के कारण विकास और सामाजिक नीतियों के नाम पर परिवर्तनपक्षीय दिशाहीनता बढ़ रही है। क्या ऐसे दौर में पारंपरिक थोथे, घिसे-पिटे वादों, नीतियों, कार्यक्रमों, जुमलों, कोरे कागजी सिद्धांतों और महज दिखाऊ-भरमाऊ, शेष समाज की प्रतिबद्धता पर बेमानी अंगुली उठाता सोच और पिछले कई चुनावों की इबारत को दोहराना चारों ओर फैले अंधेरे को और ज्यादा स्याह नहीं कर देगा? पार्टियों के घोषणा-पत्रों की लीक पीटने की प्रवृत्ति से हट कर उनके बीच, उनमें ठोस व्यावहारिकता, ईमानदारी और आपसी संगति की खोज, उनकी जमीनी सच्चाई की कसौटी हो जाती है। नवउदारवादी जुमलों की गैरहाजिरी भर नाकाफी है। कारण ये नीतियां और उनके विषमतावर्द्धक नतीजे तो बदस्तूर बढ़ ही रहे हैं-चुनावों का सुरसा-सा बढ़ता गैरकानूनी खर्च भी यह दिखाता है।
ऐसे माहौल में वर्तमान आम चुनाव के घोषणा-पत्रों के कुछ खास कार्यक्रम आशावाद बढ़ाते हैं। गरीबी, बेरोजगारी, गैर-बराबरी और जन-सुविधाओं-सेवाओं की कमी और खामियों को मुख्य मुद्दा बनाया गया है। कांग्रेस की इस गुणात्मक ऐतिहासिक पहल ने शासकदल को भी अपनी राग बदलने को प्रेरित किया लगता है। दोनों की जुगलबंदी तो होने का सवाल ही नहीं है। लेकिन तीन हजार रुपये छोटे किसानों को देय राशि को दुगुना करके सर्वप्राप्य करना जनता की जीत है। कांग्रेस द्वारा भी 1991 की अपनी चूक की भूल सुधार! मगर एक जैसी बदहाली, गैर-कानूनी अर्द्धकानूनी वर्तमान राष्ट्रव्यापी हालात, मोटे असामियों से दोनों की सांठगांठ का प्रतिकार और प्रायश्चित 2019 में प्रस्तावित कार्यक्रमों में कुछ गुणात्मक तत्वों का समावेश बाजार और घड़ी पूंजीपक्षीय नीतियों के खराब प्रभावों का निराकरण कर सकने की अभूतपूर्व क्षमता के संकेत पेश किए गए हैं। याद कीजिए बड़ी लकीर को काटे-छांटे बिना उसे छोटा करने का बीरबली बेमिसाल फॉर्मूलाः बस साथ में एक बड़ी लकीर खींच दीजिए। घोषणा-पत्र में प्रस्तावित ‘न्याय’ और उसके पूरक दूसरे शिक्षा और स्वास्थ्य के राज्य खर्च को दुगुना से ज्यादा करना, घर हेतु जमीन, खाली नौकरियों में फौरी नई बहाली, नए-छोटे स्व-संचालित असंगठित कामधन्धों को निमंत्रण, कानूनी दांव-पेच से छूट तथा समर्थन के कदम, सबसे अहम और जादुई प्रभाव पैदा करने के लिए बाजार में इन प्रत्यक्ष, गारंटीशुदा, पर्याप्त और स्वैच्छिक निर्णयों पर टिकी विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं की मांग में करीब दो लाख रुपये से ज्यादा का तुरंत इजाफा आदि नई, ऐतिहासिक पहलों का समावेश ठोस, जनसमावेशी आर्थिक वृद्धि, लगातार स्वगतिवर्द्धक, न्यापूर्ण दिशा में प्रगति को बढ़ावा देंगे। आज जो सबसे नीचे के पायदान पर जड़ीभूत कर दिए गए हैं, उन्हें बाजार और सामाजिक-राजनीतिक मामलों में अपने बलबूते पर बढ़ने के पर्याप्त साधनों से नवाजना भारत के विकास पथ में अभिनंदनीय मील के पत्थर बनेंगे।
याद रहे इस मेनीफेस्टो की जमीनी संभावनाओं की चाबी अंततः मतदाताओं के हाथ में है। सन 2014 में नवउदारवाद की छत्रछाया में फलेफूले भ्रष्टाचार की खिलाफत ने सत्तापलट किया। नोटबंदी जैसे उपायों के उलटे घातक नजीजे निकले। तब से लगातार ज्यादा ‘चतुराई’ भरे तरीकों से राजनीतिक ताकत के अवैध शासक दल द्वारा निजी संपदा संचयन के वाकयों की परतें उघड़ने लगी हैं। ऐसे काले सायों में आम आदमी की जिंदगी में नाकामी-नाउम्मीदी का पसरता आलम सरकारी खर्च द्वारा भरपाई की जरूरत बढ़ाता है। इसे कांग्रेस ने पहचाना है। यह बदलाव आने वाले दिनों में सकारात्मक संभावनाएं पैदा करते हैं। वक्त आ रहा है कि नई सरकार उदारवादी जकड़ से मुक्त हो। अब सकारात्मक जनहितकर एजेंडे को लेकर सरकार बने। स्वयं अपनी गंभीर समस्याओं के जाल में उलझे धनी देश अब भारत में धनी लोगों के पक्ष में हस्तक्षेप करने का मानस तक बनाने की हिम्मत शायद ही कर पाएं। शुभकर सामाजिक-आर्थिक एजेंडा घृणा, विद्वेष और प्रतिहिंसा की जमीन पर उगे राष्ट्रवाद से परहेज करेगा। आखिर सभी तो गैर-बराबरी, भ्रष्टाचार और पश्चिम की अनुगामी उपभोगोन्मुख क्षणिक आनंदवादिता के शिकार बन रहे हैं। लेकिन सभी मुख्य दलों में सच्ची, खुली, जनतांत्रिक आंतरिक निर्णय प्रक्रिया की स्थापना और सरकारी कार्यक्रमों में उपयुक्त और पर्याप्त सामाजिक सेवाओं-सुरक्षा की समुचित महत्ता के अभाव में ये चुनावी वादे हवा में काफूर हो जाएंगे।
(लेखक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं)