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14 May 2022

महाराष्ट्र: सीएम उद्धव ठाकरे की अग्निपरीक्षा

“हनुमान चालीसा के पाठ के बहाने मातोश्री की ताकत को चुनौती देने की कोशिश, तो शिवसेना ताकत बरकरार रखने की जुगत में”

सत्ताईस साल पहले 1995 में जब पहली बार मंत्रालय पर भगवा लहराया तो ढाई किलोमीटर दूर मातोश्री में बालासाहेब ठाकरे ने पत्रकारों के सवाल पर कहा, “न तो मैं सत्ता संभालूंगा, न चुनाव लड़ूंगा। मैं मातोश्री से ही सरकार पर नजर रखूंगा।” आप इसे रिमोट कंट्रोल कहें या कुछ और, मंत्रालय और मातोश्री में वही फर्क है जो सरकार और जनता में होता है। 22 अप्रैल 2022 को जब एक भाजपा समर्थक निर्दलीय सांसद ने कहा  कि वे मातोश्री के दरवाजे पर हनुमान चालीसा का पाठ करेंगी, तो सवाल हनुमान चालीसा से कहीं ज्यादा मातोश्री की ताकत को चुनौती देने का था। यह उस ताकत पर प्रहार था जिसके आसरे बीते पांच दशक में शिवसेना संगठन से दल और राजनीतिक दल से सत्ता का प्रतीक बनी। शिवसैनिकों के लिए मातोश्री का मतलब सरकार के समानांतर सत्ता से कहीं ज्यादा ताकतवर मातोश्री की ताकत का होना है। पहली बार हिंदूत्व की रक्षा के प्रतीक माने जाने वाले मातोश्री को हिंदू प्रतीक हनुमान चालीसा के आसरे ही की गई राजनीतिक घेराबंदी ने कई सवालों को जन्म दे दिया। क्या उद्धव ठाकरे ने मंत्रालय में बैठकर मातोश्री की ताकत को राजनीतिक चौराहे पर खड़ा कर दिया? क्या बालासाहेब ठाकरे ने तमाम सरकारों की जिस चाबी को मातोश्री में रखा अब वह खुद सरकार बनकर भोथरी हो चली? क्या सासंद नवनीत राणा पर राजद्रोह का मुकदमा ठोक कर शिवसेना ने भविष्य में अपनी राजनीति के लिए लक्ष्मण रेखा खींच ली, क्योंकि ठाकरे परिवार के उग्र तेवर ही शिवसैनिकों के लिए राजनीतिक ऑक्सीजन रहे हैं? बालासाहेब ठाकरे का राजनीतिक मंत्र ही यही रहा कि “दुशमन बनाओ, सेना खुद खड़ी हो जाएगी।” जब शिवसेना ने भाजपा को दुशमन बनाया तो ठाकरे के शिवसैनिकों को सत्ता दिलाने के लिए कांग्रेस और राकांपा ही सहयोगी हो गए, जो 2019 से पहले शिवसेना के साथ खड़ा भी नहीं होना चाहते थे।

जोर आजमाइशः सांसद नवनीत राणा और उनके पति रवि राणा को गिरफ्तार कर ले जाती पुलिस

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दरअसल, बालासाहेब ठाकरे से उद्धव ठाकरे की शिवसेना में सबसे बड़ा बदलाव मातोश्री से मंत्रालय शिफ्ट होना भी है और मातोश्री की ताकत बरकरार रखने के लिए मंत्रालय की ताकत का इस्तेमाल करना भी है। लेकिन दुश्मन बनाने के तरीकों में कोई बदलाव नहीं आया है। 1995 में जब भाजपा के साथ मिलकर शिवसेना ने सरकार बनाई तो बालासाहेब ने शिवसेना की रणनीति साफ करते हुए कहा, “शिवसेना में आपको हमेशा प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहना होता है। एक अर्थ में आपका दुश्मन आपका निर्माण करता है। दुश्मन कौन है, इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। असल में यहां दुश्मन वक्त-वक्त पर बदलता रहता है। कभी यह गैर -महाराष्ट्रीय होता है तो कभी कम्युनिस्ट। कभी उत्तर प्रदेश का भईया, कभी उड्डपी रेस्तरां वाला। कभी लुंगी वाला, कभी फुटपाथ पर सोने वाला। कभी मुसलमान तो कभी कोई अन्य गैर-हिंदू। यह आगे फिर बदला जा सकता है।” लेकिन इस पूरी कड़ी में उग्र हिंदूत्व का चोगा कभी बालासाहेब ने शिवसेना से उतरने नहीं दिया और उद्धव ठाकरे ने भी राजनीतिक हिंदूवादी चेहरे को ही शिवसेना का ढाल बनाया। मातोश्री की पहचान भी यही रही और ताकत भी इसी से मिली। तभी तो 5 जून 2019 को जब अमित शाह 50:50 के फॉर्मूले पर मुहर लगाने मातोश्री पहुंचे तो उद्धव ठाकरे ने भाजपा का नाम लिए बगैर कहा, “आरएसएस तय करे कि जो भगवान राम के पदचिन्हों पर न चले, झूठ बोले, क्या उसे हिंदूवादी पार्टी कहा जा सकता है?” अब यही सवाल भाजपा उठा रही है, “जो हनुमान चालीसा पाठ करने वाले पर राजद्रोह का मुकदमा ठोंक दे, क्या वह हिंदूवादी पार्टी हो सकती है।”

सवाल तीन हैं। पहला, क्या सत्ता की परिभाषा एक-सी है? दिल्ली में नरेंद्र मोदी हों या मुबंई में उद्धव ठाकरे। मौका मिला तो ठाकरे भी विरोधियों को कानूनी पचड़े में फांस राजद्रोह तक पहुंचे। मोदी भी सीबीआइ-ईडी से होते हुए राजद्रोह को हिंदुत्व विरोध से जोड़ने की दिशा में कानूनी कारवाई तक ले गए। मोदी के पहले पांच साल (2014-2019) देश में राजद्रोह के 326 मामले दर्ज हुए, जो अंग्रेजों की सत्ता की याद दिलाता है।

दूसरा, क्या शिवसेना के रास्ते को भाजपा ने अपना लिया और शिवसेना भाजपा सरीखी हो गई। दरअसल शिवसेना ने जिस रास्ते मुबंई और महाराष्ट्र में अपनी ताकत बढ़ाई और विस्तार किया, अब वह उस रास्ते चल नहीं सकती। सांप्रदायिक हिंसा हो या दंगे, जहां-जहां शिवसेना की भागीदारी हुई, वहां वह राजनीतिक तौर पर मजबूत हुई। 1970 के दशक में महाड, भिवंडी, जलगांव, 1984 में भिवंडी से ठाणे और मुंबई तक। 1989 में पनवेल, नासिक, औरंगाबाद और अमरावती तक। ध्यान दें तो नवनीत राणा अमरावती से ही चुनाव जीतीं। जिस अमरावती पर 1996 से 2014 तक शिवसेना का कब्जा (1998 में रिपब्लिकन) रहा, उस अमरावती में 20 साल बाद निर्दलीय नवनीत राणा ने शिवसेना के सासंद आनंद राव अड्सूल को 37 हजार वोटों से हराया। नवनीत राणा 2014 में राकांपा के टिकट पर शिवसेना से सवा लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव हार गई थीं। तो क्या भाजपा ने शिवसेना को खत्म कराने के लिए ही 2019 के विधानसभा चुनाव में अपने वोट नवनीत राणा को ट्रांसफर कराए। और 2022 में भाजपा हनुमान चालीसा के सवाल पर खुलकर निर्दलीय सासंद नवनीत के पीछे खड़ी हो गई। यानी भाजपा जानती है कि शिवसेना अगर सफल हो गई तो महाराष्ट्र में वह कभी सत्ता में वापस लौट नहीं पाएगी। दिल्ली में सत्ता में रहने के बावजूद अगर मुंबई पर कब्जा नहीं है तो यह उसकी सबसे बड़ी हार है, क्योंकि बड़े कॉरपोरेट हों या गुजराती व्यापारियों का समूह दोनों की जरूरत मुंबई है।

पुलिसिया कार्रवाई के खिलाफ बोलते भाजपा नेता किरीट सोमैया

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मुंबई पर राज शिवसेना ने किया है। मातोश्री ने किया है। यानी शिवसेना की राजनीतिक फंडिंग कॉरपोरेट और गुजराती व्यापारियों के आसरे ही होती रही। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने 2014 में शिवसेना को खुले तौर पर वसूली पार्टी कहा और बड़े कॉरपोरेट से लेकर गुजरातियों तक को आसरा दिया कि अब उसे शिवसेना को फंडिंग करने की जरूरत नहीं है। 2019 तक तो यह चल गया लेकिन शिवसेना के सत्ता में आने के बाद फंडिंग को लेकर भी दिल्ली-मुंबई के बीच टकराव है।

तीसरा सवाल पावर शिफ्ट का है, क्योंकि शिवसेना न तो अपने बूते महाराष्ट्र की सत्ता में है और न ही वह शरद पवार की राकांपा और कांग्रेस की विचारधारा के साथ खड़ी है। यानी सत्ता की चाबी और मोदी विरोध ने ही शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा को साथ ला खड़ा किया है। लेकिन इस कड़ी में उद्धव ने बालासाहेब की शिवसेना को गंवाया और मोदी-अमित शाह की जोड़ी जिस रास्ते राजनीति साध रही है उसमें बालासाहेब  की सोच ही दिल्ली से उभरती दिखाई देती है। 19 अगस्त 1967 को नवाकाल में पत्रकार प्रभाकर वैद्य ने बालासाहेब ठाकरे के उस वक्तव्य को छापा, जिसमें वे खुद को हिटलर मानने से नहीं कतराते। लिखा, “हां, मैं तानाशाह हूं। इतने शासकों की हमें क्या जरूरत है। आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है। भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिए? यहां तो हमें हिटलर चाहिए।” अब उद्धव ठाकरे खुले तौर पर मोदी-शाह को हिटलर कहने से नहीं कतराते। तो, सियासी बदलाव के इस दौर में समझना यह भी होगा कि शरद पवार हों या शिवसेना या भाजपा, सभी को सत्ता चाहिए।

जो आज इधर नजर आ रहा है, वह कल भी नजर आए, यह जरूरी नहीं। 1975 में बालासाहेब ने इमरजेंसी की वकालत करते हुए उसे ‘कल्याणकारी हुक्मशाही’ कहा था। लेकिन 1977 में जनता पार्टी के साथ खड़े हो गए। शरद पवार ने भी सत्ता की खातिर 1978 में कांग्रेस का साथ छोड़ा। महज 38 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बन गए। 2022 में भी मुंबई-दिल्ली टकराव के बीच शरद पवार ही खड़े हैं, जिनका शिफ्ट होना एक झटके में सत्ता परिवर्तन करा देगा। इसलिए मातोश्री को बचाए रखने के लिए शिवसैनिक सड़क पर नजर आ रहे हैं। भाजपा नेताओं पर भी हमले से चूक नहीं रहे, तो सोच मातोश्री की ताकत को बरकरार रखने की ही है।

राकांपा नेता शरद पवार

राकांपा नेता शरद पवार

मुबंई जानती है सत्ता किसी की रहे, मातोश्री सामानांतर सत्ता का प्रतीक है। इसलिए एक वक्त बहुराष्ट्रीय कंपनी एनरॉन की चेयरमैन रेबेका मार्क को भी आना पड़ा। अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर भी मातोश्री पहुंचे। हथियारों के अंतरराष्ट्रीय व्यापारी अदनान खागोशी हो या चंद्रास्वामी या पूर्व पीएम देवेगौड़ा, या मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह, सभी को हिंदू पादशाही के संस्थापक ठाकरे के मातोश्री जाना ही पड़ा। पहली बार उसी मातोश्री को हनुमान चालीसा के नाम पर चुनौती दी गई, तो आग दिल्ली तक पहुंची है। दिल्ली शिवसेना को शहीद बनाए बगैर सत्ता से हटाना चाहती है। उद्धव ठाकरे मंत्रालय नहीं तो मातोश्री से मुबंई को हांकने की ताकत बरकरार रखना चाहते हैं। टकराव मुंबई पर कब्जे भर का नहीं, बल्कि 2024 से पहले हर हाल में महाराष्ट्र में नए राजनीतिक समीकरण बनाने का है जिसकी जरूरत अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव दोनों में भाजपा को सबसे ज्यादा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)

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OUTLOOK 14 May, 2022
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