दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज में पुलिस हिंसा को प्रोत्साहन मिल रहा है
जिस तरह से आज हैदराबाद पुलिस ने चार लोगों को गोली मारी, उससे लगता है कि हमने अपनी पुलिस को हत्यारों के गिरोह में बदल दिया है। यह एक कस्टोडियल हत्या है। पुलिस को जांचकर्ता, न्यायाधीश और जल्लाद के रूप में व्यवहार करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। इसमें सबसे दुखद पहलू यह है कि देश में बहुसंख्य लोग तब इसकी खुशी मना रहे हैं जब उन्हें इसका पुरजोर ढंग से विरोध करना चाहिए।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे समाज में इस तरह की पुलिस हिंसा को प्रोत्साहन मिल रहा है। आपने संसद में मॉब लिंचिंग का समर्थन करते लोगों को देखा। अगर भीड़ ही न्याय करने में सक्षम है तो फिर हमें पुलिस और अदालतों की आवश्यकता क्यों है?
हम देश को क्रूर बना रहे हैं और सभ्यता कम करते जा रहे हैं। पिछले ढाई साल से यूपी पुलिस क्या कर रही है, उस पर नजर डालिए। मैंने ऐसी कई घटनाओं की रिपोर्ट्स पढ़ी हैं, जहां पुलिस संदिग्धों या आरोपी के पैर में गोली मार देती है। केवल कमअक्ल व्यक्ति ही इसे न्याय के रूप में सोच सकता है।
अगर अंग्रेजों ने हैदराबाद पुलिस की तरह व्यवहार किया होता तो वे भी भगत सिंह को मुठभेड़ में मार देते। उन्हें महीनों तक अदालत में मुकदमा चलाने की जरूरत क्यों पड़ी? इसी तरह, वे गांधी, नेहरू और पटेल को पुलिस मुठभेड़ में मार सकते थे।
इन सब से इतर मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एनकाउंटर तेलंगाना सरकार में ऊपर बैठे लोगों के आदेश पर हुई है। हो सकता है इसमें सीएम भी रहे हों। यह काम मुख्यमंत्री और राज्य के गृह मंत्री के अनुमोदन और संरक्षण के बिना नहीं हो सकता।
इसके लिए आईपीएस नेतृत्व भी उतना ही दोषी है। हो सकता है, किसी कांस्टेबल या सब-इंस्पेक्टर ने ट्रिगर दबाया हो लेकिन अंततः वे पुलिस अधिकारियों के आदेश पर ही काम कर रहे थे। आईपीएस अधिकारी ही नीचे के लोगों को बताते हैं कि यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा, और ऐसा नहीं करने पर उन्हें दंडित किया जाएगा।
यह पैटर्न 1987 के हाशिमपुरा नरसंहार मामले में भी स्पष्ट था। (यूपी पुलिस की पीएसी ने उनकी कस्टडी में रहे 42 मुस्लिमों को मार दिया था।) ट्रिगर दबाने वालों को सजा तो मिल गई, लेकिन इसके पीछे जो लोग थे, वे बचने में सफल रहे। अगर हैदराबाद की घटना की सीबीआई जांच होती है, तो कांस्टेबल स्तर के पुलिसकर्मियों को सजा मिलेगी लेकिन जिन लोगों ने वास्तव में उन्हें ऐसा करने दिया, उन्हें कोई सजा नहीं मिलेगी।
हालांकि इन सब में सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि पुलिस अत्याचार को सामाजिक स्वीकृति मिल रही है। 1979-80 में भागलपुर आंखफोड़वा कांड के वक्त (पुलिस ने 31 को अंधा कर दिया था) शहर में लोग पुलिस के समर्थन में सड़कों पर उतर आए थे। इससे ज्यादा शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता। इसका मतलब है कि हमारी अदालतें और पूरी न्याय प्रणाली विफल हो गई है।
ऐसा तब होता है जब लोग महसूस करने लगते हैं कि उन्हें अदालतों से इंसाफ नहीं मिलेगा। तब वे हताशा में पुलिस की ओर देखते हैं। यह शर्मनाक है और इसका विरोध किया जाना चाहिए। आप अभियुक्तों के खिलाफ मुकदमा चलाते हैं, त्वरित सुनवाई करते हैं और उन्हें मृत्युदंड देते हैं- भले ही मुझे लगता है कि मृत्युदंड समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
एक पुरानी कहावत है, यह सजा की कठोरता नहीं है बल्कि उसके होने की निश्चिंतता है जो भय पैदा करती है। आप 20 साल की सजा दे सकते हैं, लेकिन अगर आप किसी को सजा नहीं देते हैं, तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके बजाय अगर कानून के तहत 20 माह की सजा है और दोषी को तीन महीने में आरोपित कर दिया जाता है तो इसका ज्यादा प्रभाव पड़ेगा।
(विभूति नारायण राय सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी और हाशिमपुरा 22 मई: द फॉरगॉटन स्टोरी ऑफ इंडियाज बिगेस्ट कस्टोडियल किलिंग के लेखक हैं)
(जैसा कि उन्होंने सलीक अहमद को बताया)