जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय को मजूबर किया जाता है कि वे बाकी राष्ट्र से अलग हट जाएं
इन दिनों यदि आप जेएनयू में प्रस्तावित फीस बढ़ोतरी पर कोई भी खबर या इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन पर कोई लेख देखते हैं तो नीचे दिए गए ‘कमेंट’ सेक्शन पर गौर करें। ज्यादातर जगह आप देखेंगेः
“जेएनयू को बंद कर दो। न रहेगा बांस न रहेगी बांसुरी” (इंडियन एक्सप्रेस)
“इसका नाम बदल कर सरदार पटेल विश्वविद्यालय कर देना चाहिए। दूसरी बात कश्मीर प्रेमी इन वामपंथियों को निकाल बाहर करना चाहिए। इसके बाद विश्वविद्यालय अच्छा हो जाएगा।”
“सबसे पहले तो टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्यों, गुंडों और कई बच्चों के पिता इन बुड्ढे छात्रों को निष्कासित कर देना चाहिए। इन लोगों ने लगभग मुफ्त सुविधा का खूब आनंद उठाया...कन्हैया कुमार, शहला राशिद, अनिर्बान, उमर खालिद तरह के लोग परीक्षाओं में फेल होते रहे और मुफ्त में रहते रहे...।” (टाइम्स ऑफ इंडिया)
अब यह कहना आम है कि अंग्रेजी प्रेस भारत की नब्ज के संपर्क से बाहर है। लेकिन पश्चिम में भी अंग्रेजी भाषा का मीडिया, विशेष रूप से उदार मीडिया के लिए डोनाल्ड ट्रंप की जीत किसी झटके से कम नहीं थी। क्योंकि उनकी जीत ने कई प्रमुख समाचार पत्रों की भविष्यवाणियों को धता बता दिया था।
लेकिन “कमेंट” सेक्शन में लेख, खबरें और विचार एक तरह की “उदार” नब्ज है। बिलकुल वैसी जैसी शौकिया जासूस ब्योमकेश बक्शी अपने दोस्त अजीत को कही थी। बक्शी, अपने दोस्त अजीत को कहता हैः “अखबारों की परवाह किसे है? ये तो बस फिलर हैं। असली खबर तो विज्ञापनों में होती है। मैं सिर्फ विज्ञापन ही पढ़ता हूं।”
ब्योमकेश की तरह, हम में से अब कई लोग संवेदनशील लेखों की हेडलाइन पढ़ने के बाद सीधे, “कमेंट” सेक्शन पर चले जाते हैं। यहां विचित्र प्रकार की स्थितियां सामने आती हैं।
निश्चित रूप से इस “नब्ज” में इंटरनेट पर पेड ट्रोल्स, ट्रॉल्स, बॉट्स (ऑटोमैटिक रोबोटिक प्रोग्राम) या सेमी-बॉट्स या एआई मशीन-आर्मी हैक और अपशब्द कहने वाले शामिल हैं। लेकिन फिर भी इन सब को खारिज नहीं किया जा सकता।
यह अपरिहार्य और निर्विवाद सत्य हैः दशकों से भारत में उच्च शिक्षा संस्थान, नेहरूवाद की चौखट पर ही पोषित हुए है। लेकिन पिछले एक दशक में, मौलिक रूप से समकालीन मान्यताओं या मौलिक रूप से राष्ट्र के विश्वास, इच्छाओं और आकांक्षा के साथ या मुखर मध्यवर्ग के दायरे से ये विश्वविद्यालय बाहर चले गए। आज जब मैं ये लिख रहा हूं तो ट्विटर पर टॉप ट्रेंडिंग हैशटैग चल रहा है, #शटडाउनजेएनयू। उदाहरण के लिएः
“लोगों को कॉलेज सब्सिडी के लिए फंडिंग करने में कोई परेशानी नहीं है यदि वहां वास्तव में चिकित्सा, इंजीनियरिंग, विज्ञान आदि की पढ़ाई हो रही हो। यह वास्तव में समाज के लिए महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन यदि वहां इन सब के बजाय जेंडर स्टडीज, अफ्रीकन स्टडीज और लेस्बियन डांस थ्योरी जैसी बकवास चीजें पढ़ाई जा रही हों तो क्या मतलब।”
जाहिर सी बात है, गुस्से से भरी आवाजें दूसरी ओर भी हैं। मेरा पसंदीदाः “हां, #जेएनयूबंदकरदो और वॉट्सऐप विश्वविद्यालय खोल दो...और देश को हजारों गायों, संघी गुटकाखोरों से भर दो...”
लेकिन बड़े पैमाने पर, दूसरी तरफ की आवाजें दब जाती हैं क्योंकि दूसरी तरफ की आवाजें कमजोर अल्पसंख्यकों की आवाज है, कई जगहों पर ये अकेली आवाजें हैं। बिलकुल उसी तरह जिस तरह आंसू गैस और वाटर-कैनन की दीवारों के पीछे विरोध करने वाले जेएनयू छात्रों की आवाजें हैं जो चाहरदीवारी के बीच, बाहर की नफरतों के बीच रहते हैं।
स्वतंत्रता के बाद के भारत में उच्च शिक्षा के परिदृश्य को आकार देने वाली नेहरूवादी समाजवादी दृष्टि - वही दृष्टि जिसने आईआईटी को जन्म दिया ने 1969 में जेएनयू की स्थापना को एक उच्च लक्ष्य तक पहुंचाया।
हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने एक खुलासा किया। उन्होंने बताया कि जिस वर्ग और जाति की विविधता के बारे में वह पहले कुछ नहीं जानते थे उसे जानने के लिए वे जेएनयू आए थे। यह विविधता उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज और बंगाली सवर्ण जातियों के पुराने लड़कों के नेटवर्क में भी नहीं मिली थी जिसे वे बहुत ज्यादा दूर छोड़ आए थे।
समाजवादी ताने-बाने जो कभी राष्ट्र के लिए बाध्यकारी थे, अब डिवाइडर इन चीफ बन गए हैं क्योंकि विश्वविद्यालय परिसर प्रस्तावित शुल्क वृद्धि के खिलाफ युद्ध में उतर गया है और समूचा देश विश्वविद्यालय परिसर के खिलाफ युद्ध में उतर गया है।
अमेरिकी विश्वविद्यालयों में 17 साल रहने के बाद, ज्यादातर साल छात्र के रूप में और कुछ साल अध्यापक के तौर पर बिताने के बाद मैंने पाया कि अमेरिका के विश्वविद्यालय द्वीप हैं, उत्कृष्टता के नखलिस्तान जो वास्तविकता के सागर से कटे हुए हैं। यही वजह है कि वो आश्चर्यजनक रूप से बुद्धिजीवी विरोधी राष्ट्र है। इसी कड़ी में कहना चाहूंग कि भारतीय विश्वविद्यालयों में जो कुछ भी गलत है, वो अनुसंधान और नवीन शिक्षण की संस्कृति का अभाव है। जबकि भारत में अधिकांश विश्वविद्यालय, सार्वजनिक और भारत में सामान्य जन की आत्मा के करीब हैं। उनमें से कई महान शहरों में हैं, देहाती उपनगरीय संस्कृति के विपरीत जो महान अमेरिकी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का पोषण करते हैं।
तत्काल साधन और उपभोक्ता संतुष्टि की महान संस्कृति जो कि अमेरिका के महान मॉल को परिभाषित करती है, जल्द ही बुद्धि के संरक्षित स्थान को निगलने के रास्ते पर है जो अमेरिकी विश्वविद्यालय कभी हुआ करते थे। उस बिंदु तक जहां न केवल मानविकी, बल्कि पूरी तरह से उदार कलाएं, उस देश में विलुप्त होने की कगार पर हैं।
भारत में, ठीक इसका विपरीत हुआ है। किसी जमाने में आमजन की चेतना के करीब आने के बाद, महान सार्वजनिक विश्वविद्यालय तेजी से असहिष्णु और देशभक्तिपूर्ण राष्ट्र की नब्ज के साथ दूर और दूर हो रहे हैं।
“जेएनयू-टाइप” ताना बन गया है। हौले से यह उपेक्षित श्रेणी में आ रहा है, शातिराना ढंग से यह “अर्बन नक्सल” श्रेणी में डाला जा रहा है। मैं कई ऐसे शिक्षाविदों को जानता हूं जिन्होंने विश्वविद्यालय के पार्किंग स्टीकर को अपनी कार पर लगाने से इनकार कर दिया, इस डर से कि कहीं उन्हें जेएनयू का प्रोफेसर समझ कर उनकी कार तोड़फोड़ का शिकार न हो जाए।
इन दिनों “जेएनयू टाइप” ऐसी श्रेणी है जो भारत के शिक्षाविदों पर आसानी से चिपक जाती है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कहां पढ़ाते हैं। भारत में ये लड़ाई आसान बायनरी यानी वाम वर्सेज दक्षिण की रही है। अब ये लड़ाई वाम बनाम सभी लोगों की पसंद हो गई है।
विश्वविद्यालय और राष्ट्र एक दूसरे से अलग कैसे और कब हुए?
इसका जवाब शायद शिव विश्वनाथन के अर्नब गोस्वामी की घटना के हालिया विश्लेषण में है: “वह आज के समय का रूपक है। क्योंकि हर दिन वह ज्यादातर भारतीयों का प्रतिनिधित्व करता है।”
एक समय था जब भारतीय सार्वजनिक विश्वविद्यालय बहुसंख्यक भारतीयों के करीब थे। लेकिन शायद ऐसा था नहीं। विश्वविद्यालय हमेशा से विशिष्ट वर्ग के लिए आरक्षित थे और इसलिए वे हमेशा मुख्य जगह से हट कर होते थे। लेकिन आज ये सागर का ही एक हिस्सा हैं।
एक विकासशील देश में एक युवा आबादी के साथ, कुछ ऐसी कहानियां हैं जो अधिक दुखद हैं।
(लेखक अशोक विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और रचनात्मक लेखन के प्रोफेसर हैं। हाल ही में उनका नया उपन्यास ‘द सेंट ऑफ गॉड’ आया है। ये उनके निजी विचार हैं।)