रिश्ते बचाने की दरकार
पिछले कुछ हफ्तों में भारत-नेपाल के रिश्तों में तनाव पैदा करने वाली और द्विपक्षीय संबंधों में खटास लाने वाली घटनाओं के केंद्र में रहा सीमा विवाद कोई नया मुद्दा नहीं है। पहले भी यह मुद्दा कई बार दोनों देशों के बीच रिश्तों के लिए चुनौती बना, लेकिन कभी भी इतना गंभीर नहीं हुआ कि हमारे ऐतिहासिक रिश्तों पर भारी पड़े। इसी वजह से अटकलें लग रही हैं कि यह बिलकुल अलग मामला हो सकता है। इस मुद्दे को नेपाल में लगातार प्रभाव बढ़ा रहे चीन के संदर्भ में भी देखना होगा। सीमा विवाद के मूल में दोनों देशों की सीमा का विभाजन करती महाकाली नदी है। 1816 के सुगौली समझौते के अनुसार, इस नदी, जिसे नेपाल में काली के नाम से भी जाना जाता है, के उद्गम स्थल, के पूर्व का हिस्सा नेपाल और पश्चिम का हिस्सा भारत की सीमा में है। लेकिन दोनों पक्षों के बीच महाकाली नदी के उद्गम स्थल को लेकर मतभेद है। नेपाल दावा करता है कि यह नदी लिंपियाधुरा से निकलती है, इसलिए लिपू लेख पास महाकाली के पूर्व का पूरा हिस्सा उसका है। लेकिन भारत का तर्क है कि इस नदी का उद्गम इस स्थान पर नहीं है, इसलिए लिपू लेख उसके राज्य उत्तराखंड में आता है।
लिपू लेख पास और इस क्षेत्र की रणनीतिक अहमियत इस वजह से बढ़ जाती है कि इस रास्ते से न सिर्फ चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में आने वाले कैलाश मानसरोवर की यात्रा का मार्ग काफी छोटा है, बल्कि भारत चीन के साथ लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) के निकट पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिकों की गतिविधियों पर नजर रख सकता है।
गौरतलब है कि पिछले 10 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेपाली पीएम कृष्ण प्रसाद शर्मा ओली के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत में यह मुद्दा बिलकुल नहीं उठा। दोनों नेताओं का रुख काफी दोस्ताना रहा और सौहार्दपूर्ण माहौल में बातचीत हुई। इस वार्ता का फोकस इस क्षेत्र में गंभीर संकट बनकर उभरे कोविड-19 और इसके कारण आर्थिक और अन्य गतिविधियों में आ रही दिक्कतों से निपटने पर था।
दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच सहमति बनी कि सीमा पार आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई सुगम रहनी चाहिए। उनके बीच भारत-नेपाल सीमा पर भटक रहे लोगों को जल्द से जल्द घर पहुंचाने के लिए व्यवस्था पर भी चर्चा हुई।
इस बात का तनिक भी आभास नहीं था कि जल्दी ही दोनों पड़ोसी देशों के बीच सीमा के मुद्दे पर मतभेद इतने बढ़ जाएंगे कि चंद हफ्तों में यह दूसरे सभी मुद्दों पर हावी हो जाएगा। भारत-नेपाल के रिश्तों में ऐसा क्या हुआ जिसके कारण ऐतिहासिक संबंध टूटने के कगार पर पहुंच गए।
पर्यवेक्षकों के अनुसार, भारत-नेपाल संबंधों में हाल का तनाव नेपाली पीएम की उस योजना का हिस्सा है जो उन्होंने अपना पद बचाने के लिए बनाई है। अपने पद पर आए संकट के लिए वे भारत को जिम्मेदार मानते हैं। सीमा विवाद पर मतभेद वास्तविक कारण नहीं है। सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर पिछले कई महीनों से ओली विरोधी वरिष्ठ नेताओं में असंतोष बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री के निरंकुश रवैए, सरकार के खराब प्रदर्शन और पार्टी नेताओं को दरकिनार करने की कोशिशों के चलते नौ सदस्यों वाले पार्टी हाई कमान यानी सेक्रेटेरिएट में अधिकांश सदस्य उनसे नाराज हैं।
पिछले महीने जब वह दूसरी किडनी ट्रांसप्लांट सर्जरी के बाद वापस आए, तो उन्हें लगा कि उन्हें हटाने के प्रयास किए जा रहे हैं। उन्होंने अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने के लिए दो अध्यादेश पारित किए। पहले अध्यादेश के अनुसार, छोटी पार्टियों के दल-बदल को प्रोत्साहन देने वाले और अपनी खुद की पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को टूटने से बचाने के लिए कानून में संशोधन किया गया। दूसरे अध्यादेश के अनुसार, नेता विपक्ष के बिना भी संसद का कामकाज सुनिश्चित हो सकता है।
अधिकांश पर्यवेक्षकों ने नए कानून को तराई क्षेत्र में प्रभावशाली भारतीय मूल की मधेसी पार्टियों को तोड़ने के ओली सरकार के प्रयास के तौर पर देखा। ये पार्टियां उन्हें उस समय आवश्यक समर्थन दे सकती थीं, जब वे अपनी ही सरकार और पार्टी में अल्पमत में होते। नए कानून के मुताबिक, किसी पार्टी का तभी विभाजन हो सकता है, अगर उसकी केंद्रीय कमेटी या संसदीय पार्टी के 40 फीसदी सदस्य ऐसे प्रस्ताव को समर्थन दें। पहले किसी पार्टी में तभी विभाजन संभव था, अगर केंद्रीय कमेटी और पार्लियामेंट्री पार्टी दोनों के 40 फीसदी सदस्य इसका समर्थन करें।
लेकिन हाल की कुछ और राजनीतिक घटनाओं से ओली अलग-थलग पड़ गए। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल टूटने के बजाय आपस में मिल गईं, जिससे उनके सदस्यों की संख्या नेपाल के निचले सदन में बढ़कर 33 हो गई।
2017 में, जब ओली ने अपनी कम्युनिस्ट पार्टी का विलय पुष्प कमल दहल प्रचंड की पार्टी के साथ किया था, तब वह सीनियर पार्टनर बन गए थे। लेकिन अब वे जूनियर पार्टनर बन गए हैं और पार्टी की सेक्रेटेरिएट सेंट्रल कमेटी और स्टैंडिंग कमेटी में उनके विरोधियों का दबदबा बढ़ गया है और वे उनसे इस्तीफा मांग रहे हैं। ओली ने भारत पर आरोप लगाया कि वह उनके स्थान पर प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने के लिए पार्टी के सदस्यों को प्रोत्साहित कर रहा है।
हालांकि ओली को अध्यादेश वापस लेने को बाध्य कर दिया गया। उन्होंने ये अध्यादेश राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी की मदद से संसद से पारित करवा लिए थे। लेकिन उन्हें संकट से उबारने को चीन सामने आ गया। उसने प्रचंड और पार्टी के अन्य नेताओं को समझाया कि पार्टी का एकजुट चेहरा सामने आना चाहिए और ओली को कम से कम तब तक समर्थन दिया जाना चाहिए, जब तक उनका उपयुक्त उत्तराधिकारी नहीं मिल जाता है।
अब अहम तथ्य यह है कि ओली बच गए और इसके पीछे चीन के प्रयास ही हैं। पार्टी में विभाजन टालने और ओली की कुर्सी बचाने के लिए चीन के नेपाल में राजदूत होऊ यांगनी की नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख सदस्यों के साथ कई दौर की वार्ताएं हुई थीं। लेकिन तेजी से हुए राजनीतिक ड्रामे के बीच भारत में धारचूला से लिपू लेख पास को जोड़ने वाले महत्वपूर्ण मार्ग के उद्घाटन करने के भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के फैसले ने मुद्दे को और गरमा दिया, जो एलएसी के निकट भारत-चीन-नेपाल के ट्राईजंक्शन तक जोड़ता है। अप्रैल में पूर्ण हुए 80 किलोमीटर लंबे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस मार्ग से न सिर्फ भारतीय तीर्थयात्रियों को मदद मिलेगी, बल्कि भारतीय सेना भी भारत-चीन सीमा तक जल्दी पहुंच सकेगी।
ऐसे क्षेत्र में सड़क बनाने के भारत के एकतरफा फैसले से नेपाल में असंतोष बना हुआ था, जिसे वह अपना क्षेत्र बताता है। लेकिन भारतीय सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवाणे ने मामला और भड़का दिया, जब उन्होंने कहा कि नेपाल ने यह मुद्दा चीन की खातिर उठाया है। उन्होंने हाल के एक वेबिनार में कहा, “मुझे इसमें कोई विरोधाभास नहीं दिखता है। नेपाली राजदूत ने कहा कि नदी के पूर्व का क्षेत्र उनका है जबकि सड़क उसके पश्चिम में बनाई गई है। इसलिए मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि उन्हें क्या परेशानी हो सकती है। हां, ट्राईजंक्शन के पास मतभेद हो सकते हैं।” जनरल का इशारा था कि नेपाल किसी और की तरफ से यह मुद्दा उठा रहा है। उनका संकेत था कि नेपाल ने कदम चीन की खातिर उठाया है। कई लोग मानते हैं कि भारतीय सेना प्रमुख ने भारत-नेपाल रिश्ते और बिगाड़ दिए हैं जो विवादित क्षेत्र में भारत द्वारा सड़क बनाए जाने के कारण पहले ही तनावपूर्ण थे।
अभी इसका आकलन नहीं हुआ है कि भारतीय सेना प्रमुख की टिप्पणी ने नेपाली नेतृत्व के रुख पर कितना असर डाला है। लेकिन उनके बयान को नेपाल में पिछले कुछ हफ्तों के दौरान हुई राजनीतिक घटनाओं के संदर्भ में भी देखा जा रहा है।
यद्यपि इसके सबूत नहीं हैं कि नेपाल के रुख को चीन ने कितना प्रभावित किया है, लेकिन भारत के खिलाफ पीएम ओली का कठोर रुख उनकी खुद की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हो सकता है क्योंकि वे पद बचाने के लिए चीन के प्रति आभार जता रहे हैं। भारत के खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी तेज करके और राष्ट्रवाद के कार्ड का इस्तेमाल करके ओली अपनी आलोचना का रुख बदलने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उनके आलोचक सरकार के खराब प्रदर्शन और वरिष्ठ नेताओं के साथ सरकारी कामकाज में सहयोग करने में नाकामी से नाराज हैं।
अधिकांश पर्यवेक्षक मानते हैं कि चीन के प्रयासों के बावजूद नाराज नेता लंबे समय तक प्रधानमंत्री ओली का साथ नहीं देंगे। केंद्रीय कमेटी की ओर से उनका उत्तराधिकारी तलाशने के लिए एक और प्रयास हो सकता है। उस स्थिति में प्रधानमंत्री आपातकालीन प्रावधानों के जरिये सत्ता में बने रहने के लिए राष्ट्रपति से मदद मांग सकते हैं और अपनी सत्ता बचाने के लिए कोविड-19 का सहारा ले सकते हैं।
लेकिन भारत को नेपाल में उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए क्या करना चाहिए। सुझाव दिया जा रहा है कि सरकार को तत्काल राजनयिक माध्यम अपनाने चाहिए और भारत-नेपाल संबंधों में तनाव घटाने और उन्हें और बिगड़ने से बचाने के लिए नेपाल के नेतृत्व के साथ विवादास्पद और लंबित सीमा मुद्दों पर तत्काल बातचीत शुरू करनी चाहिए।
नेपाल में राजनीति जिस तरह से बदल रही है, हो सकता है आने वाले समय में वहां के राजनीतिक समीकरण भारत के नियंत्रण में न रहें। लेकिन भारत सरकार को नेपाल के नेताओं और वहां की जनता के बीच मिलने वाली अहमियत आगे भी बनाए रखने के लिए भरपूर प्रयास करने चाहिए। आखिर नेपाल के साथ हमारे ऐतिहासिक रिश्ते हैं।