बस सामान ही बचा
यह सब गुस्सा, विक्षोभ और दुख के साथ मुझे लिखना पड़ रहा है। क्या हमने कुछ लोगों के लिए बढ़ती सुविधाओं के खिलाफ आवाज उठाई? क्या हमने बिहार, कोलकाता, पूर्वी उत्तर प्रदेश में जाने वाली गाड़ियों की हालत देखी है? मुझे याद है वर्ष 2010 या 2012 के आसपास जब मैं रेल की नौकरी में था, तो पटना से दिल्ली आने वाली किसी राजधानी किस्म की गाड़ी के एसी कोच में कुछ खराबी आ गई थी जिसमें कुछ जनप्रतिनिधि थे, तो संसद में कई घंटे बर्बाद किए गए थे। अब ये जनप्रतिनिधि जनता के दुख-दर्द में शामिल नहीं हैं। अब ये सब नई दिल्ली के ऐशो-आराम के साथ हैं और इसीलिए यह देश दुनिया के अमीरों और दुनिया की सबसे ज्यादा भूखी आबादी के बीच बंट चुका है।
हर बार की तरह कई इंक्वायरी कमेटी एक साथ लगा दी गई है- कमिश्नर रेलवे सेफ्टी, हाइ प्रोब कमेटी। और ताजा-ताजा सीबीआइ को भी मामला सौंप दिया गया है। रेलवे में भीषण रेल दुर्घटनाओं का एक लंबा सिलसिला लाल बहादुर शास्त्री जी के समय रेल दुर्घटना पर उनके त्यागपत्र देने के बाद रहा है। वैसा त्यागपत्र तो कभी नहीं हुआ, लेकिन दुर्घटना भीषण से भीषणतम होती गई है। बिहार में 1981 में तकरीबन 750 लोग मारे गए थे। फिर किशनगंज में, पंजाब में खन्ना से लेकर दक्षिण भारत तक सिलसिला जारी है।
हर बार ऐसी ही तत्परता से इंक्वायरी कमेटी बनाई जाती है। उनकी रिपोर्ट भी हजारों पेज की होती है। पार्लियामेंट भी एक-दो दिन चर्चा करती है। और फिर, उसकी सिफारिशें डिब्बों में बंद हो जाती हैं। सीकरी, काकोडकर कमेटी, खन्ना कमेटी, न जाने कितनी कमेटियों की रिपोर्ट रेल मंत्रालय के पास है। कुछ पर कुछ कार्रवाई भी होती है लेकिन सचमुच तंत्र में ज्यादा बदलाव नहीं होता और कुछ साल के बाद फिर हम ऐसी ही दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं।
पिछले कुछ वर्षों से रेल दुर्घटनाओं में कमी आई है। इसका कारण कोरोना काल में रेलगाड़ियों का कम चलना तो है ही, तकनीकी रूप से हमने कुछ कदम भी आगे बढ़ाए हैं, लेकिन सुरक्षा का प्रश्न अब भी उतना ही बड़ा है। कोरोना के समय रेल की पटरी, पुल की मरम्मत आदि के लिए भी अच्छे कदम उठाए गए थे। वंदे भारत को सफल प्रयोग के रूप में देखा जा सकता है। रेल की दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कवच नाम का एक नया इंस्ट्रूमेंट भी भारतीय रेल के इंजीनियरों ने कुछ विदेशी तकनीक की मदद से तैयार किया है। यह सस्ता है, ग्लोबल मार्केट के हिसाब से भी है और इसका परीक्षण भी हो चुका है। रेल में लगाने की शुरुआत भी हो गई है, लेकिन कवच लगाने की रफ्तार अभी धीमी है।
यहीं पर इस दुर्घटना पर विचार करने का समय आ गया है। रफ्तार! रफ्तार! रफ्तार! हम पिछले कई वर्षों से सुनते आ रहे हैं और रेल की सारी प्राथमिकताएं उस रफ्तार की तरफ बढ़ गई हैं। यह रफ्तार उस मध्यमवर्ग को चाहिए जो भले ही दोपहर तक सोता रहे लेकिन रेल में कदम रखते ही उसे रफ्तार चाहिए! उसी रफ्तार से दिल्ली से निकलते ही गाजियाबाद में हल्दीराम का खाना चाहिए! मेरठ पहुंचने तक बीकानेरी मिठाई और भी जो भी सुविधाएं मिल सकती हैं। तंत्र और सरकार पर दबाव है इस रफ्तार को बढ़ाने के लिए। सरकार का मानना हे कि इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करना होगा।
क्या रेल की पटरियां इतनी सक्षम हैं? क्या रास्ते वाले सारे पुल मजबूत हैं? क्या रास्ते में ऐसी गाड़ियों को स्टॉप नहीं दिया जाना चाहिए? क्या दौड़ने वाली ट्रेन के डिब्बे इतने सक्षम हैं कि किसी भी मानवीय या तकनीकी दुर्घटना होने पर यात्रियों की जान बचाई जा सके? और कवच लगाने की प्राथमिकता तो सबसे पहले ऐसी ही ज्यादा सुविधाओं वाली ज्यादा रफ्तार की गाड़ियों में होगी! और क्या हमारे पास उतने आर्थिक साधन हैं? जिस देश की गिनती दुनिया में सबसे ज्यादा भूखों मरने वाले नागरिकों में होती हो क्या हमें सिर्फ कुछ अमीरों के लिए सारी सुविधाओं को देना लोकतंत्र कहा जाएगा?
बचपन से ही हम अपनी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ते आ रहे हैं गांधी जी का मंत्र, “आप जो भी कदम उठाएं उस पर विचार कीजिए कि क्या उसका फायदा अंतिम आदमी तक पहुंचेगा।” क्या इन सब योजनाओं में हमने कभी उस अंतिम आदमी के बारे में सोचा है? आप गांधीजी की टोपी पहनें या आंबेडकर जी का सूट, अंतिम आदमी की परवाह किसी को भी नहीं है। इसीलिए तंत्र और सरकार ऐसा करती है, जब कवच जैसी योजनाएं पीछे रह जाती हैं और अमीरों के लिए चलने वाली रेलगाड़ियां आगे निकल जाती हैं।
अभी सिर्फ अफसोस किया जा सकता है कि काश! रेलगाड़ियों में कवच यंत्र लगा होता! हमारे सिग्नलिंग सिस्टम और बेहतर होते! इंटरलॉकिंग या दूसरी तकनीकी खराबी के बचने से उपाय किए जाते! तो शायद हम गरीबों के घर में मातम नहीं पसरा होता।
ठीक ऐसे मौके पर सिर्फ राजनीति के स्तर पर ही नहीं, आम मध्यवर्ग एक और चर्चा छेड़ देता है कि विदेशों में तो ऐसा नहीं होता। वहां दुर्घटनाएं नहीं होतीं। उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या उन देशों, उन समाजों की तरह हम अपने काम के प्रति वैसी निष्ठा रखते हैं? जहां स्कूल का टीचर समय पर नहीं पहुंचता हो, सरकारी दफ्तर खाली पड़े रहते हों, वहां सिर्फ रेल से ऐसी उम्मीद क्यों? क्या सरकार को आपने सिर्फ मेरिट पर सरकार चलाने, सक्षम योग्य लोगों को ही भर्ती करने, प्रशिक्षित करने और कोई चूक होने पर नौकरी से निकाल देने की स्वतंत्रता दी है? ठीक उसी समय धर्म और जाति के आधार पर कई मोर्चे खुल जाते हैं। डोनेशन देकर पढ़ने वाले आरक्षण वालों पर आरोप उठाते हैं तो आरक्षण वाले सदियों पहले हुए किसी अत्याचार पर। और नतीजा, 21वीं सदी का भारत अपने रोजाना के जीवन में वैसा ही बना रहता है जैसा हजार पांच सौ साल पहले रहा होगा। यह भी कह सकते हैं कि 21वीं सदी में पिछले 1000 साल के भारत के सभी नमूने उपलब्ध हैं। आधे नंगे आदिवासियों से लेकर फाइव स्टार होटलों की 27वीं मंजिल पर स्विमिंग पूल में शराब के नशे में डूबे हुए लोग।
ऐसी दुर्घटना के वक्त ऐसे सभी दृश्य ज्यादा साफ-साफ याद आते हैं। संविधान में वादा तो समानता का किया गया था लेकिन लगातार हम असमानताओं के ऐसे शिखर की तरफ बढ़ रहे हैं जहां दुनिया के सबसे ज्यादा अमीर रहते हों और भूखे मरने वाले भी। हमें इस खाई को फैलने से रोकना होगा! जब तक सभी रेलगाड़ियों में सेफ्टी मजबूत नहीं होती, सुरक्षा कवच नहीं लगाए जाते, तब तक हमें सुविधाओं और रफ्तार वाली गाड़ियों पर लगाम लगानी होगी।
अमीरों के लिए आपने हवाई जहाज पहले ही खोल रखे हैं। 140 करोड़ हवाई जहाज से नहीं जा सकते हैं। सिर्फ उनको वोट का अधिकार देना ही पर्याप्त नहीं है। उन्हें जीने, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात की सभी सुविधाओं में समानता देनी होगी। भारतीय व्यवस्था में रेल का महत्व था, है और रहेगा। 21वीं सदी में ग्लोबल तकनीक और प्रबंधन से सीखते हुए हमें तुरंत कदम उठाने होंगे! पूरे तंत्र और व्यवस्था को बदलने के लिए हमारे मीडिया, समाज और बुद्धिजीवियों की भी जिम्मेदारी है कि इस देश के अंतिम आदमी का खयाल करें। पूरी व्यवस्था वैसे ही काम करती है जैसा उसका समाज होता है। इस दुर्घटना के सबक रेल और देश को हमेशा याद रखना चाहिए, तभी सही दिशा में कदम उठेंगे।
(लेखक रेलवे बोर्ड के पूर्व एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं)