उत्साहित भाजपा के समक्ष नेतृत्वविहीन विपक्ष
उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन के दो प्रमुख घटक दलों - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और समाजवादी पार्टी - के मध्य सीटों के बंटवारे को लेकर सहमति बन जाने के बावजूद भाजपा के विरुद्ध सशक्त मोर्चा तैयार नहीं हुआ है। दक्षिण भारत में अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत तो हैं, लेकिन वे एक साझा कार्यक्रम वोटरों के समक्ष प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं। कर्नाटक एवं तेलंगाना में कांग्रेस की ही सरकारें हैं जबकि केरल में वाम मोर्चे की सरकार है। इसलिए साम्यवादी पार्टियां और कांग्रेस सार्थक पहल करेंगीं तो क्षेत्रीय दलों का भरोसा जीता जा सकता है। हिमाचल प्रदेश में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी पंजाब में आम आदमी पार्टी के समक्ष घुटने टेकने के लिए विवश है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का अति-आत्मविश्वास इंडिया गठबंधन के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है। "इंडिया गठबंधन" - जो ठीक से शक्ल अख्तियार नहीं कर सका - के संयोजक पद की आकांक्षा संजोकर नितीश कुमार अंततः एन डी ए में शामिल हो गए। जनविश्वास यात्रा पर निकले राजद नेता तेजस्वी यादव का मानना है कि श्री कुमार को भाजपा ने हाईजैक कर लिया है। अरविंद केजरीवाल भाजपा और कांग्रेस की राजनीतिक शैली का उपहास उड़ा कर चुनाव जीतने का कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। मुफ्त बिजली-पानी देने के नारों के सहारे गरीब वोटर ही नहीं बल्कि साधन संपन्न लोगों को भी केजरीवाल आकर्षित कर रहे हैं। अब कांग्रेस आम आदमी पार्टी की शर्तों को मानने के लिए मजबूर है। भारतीय राजनीति में यह बहुत बड़ा बदलाव है। बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में अपनी आभा खोती जा रही है।
2024 के लोकसभा चुनाव में माहौल भाजपा के पक्ष में पहले ही बन गया है, क्योंकि विपक्षी पार्टियां वैकल्पिक नीतियां प्रस्तुत करने में रुचि नहीं ले रहीं हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में वोटरों को बहलाया नहीं जा सकता. गोदी मीडिया शब्द का प्रयोग कर लेने भर विपक्षी दलों की जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती। कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत की वारिस है, उसे अपने दायित्व का निर्वहन करना चाहिए।
2004 में यू पी ए गठबंधन को सत्ता मिली थी लेकिन यह निरंतरता 2014 में टूट गयी क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में "आक्रामक हिंदुत्व" को स्वीकृति प्राप्त हो गयी। भाजपा का नया नेतृत्व लोक कल्याणकारी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के साथ-ही-साथ गौरवशाली इतिहास पर भी जोर दे रहा है।
1996 में भाजपा केंद्र सरकार में सिर्फ तेरह दिनों तक ही टिक सकी थी। लेकिन संयुक्त मोर्चे की सरकार के दो वर्षों के कार्यकाल में देश ने दो प्रधानमंत्रियों को देखा। और इस प्रकार 1998 में फिर एकबार लोकसभा चुनाव के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया। इस चुनाव में यद्यपि भाजपा को बहुमत नहीं मिला तथापि एन डी ए के तत्कालीन संयोजक जॉर्ज फर्नांडीज के कौशल ने गैरकांग्रेसी सरकार के गठन के सपने को साकार किया। भारत की संसदीय राजनीति में एक नया अध्याय तब जुड़ा, जब 1999 में अटल बिहारी वाजपेयीजी को सत्ता से बेदखल करने के लिए ओडिशा के मुख्यमंत्री गिरिधर गोमांग को अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में मतदान करने का अवसर मिला। गौरतलब है कि संवैधानिक प्रावधानों के कारण मुख्यमंत्री गिरिधर गोमांग की लोकसभा की सदस्यता बची हुई थी। तब नैतिक मूल्यों को नकार दिया गया था।
कारगिल युद्ध में जीत हासिल करने वाले नेता के हौसले बुलंद थे। देशवासियों की नजरों में अटलजी नायक थे, इसलिए पुनः 1999 में प्रधानमंत्री बने। लेकिन 2004 में "शाइनिंग इंडिया" का स्लोगन वोट नहीं जुटा सका और देश ने एक "एक्सीडेंटल प्राईम मिनिस्टर" को दस वर्षों तक शासन करने का जनादेश दिया।
2014 में कांग्रेस गठबंधन की हार ने नेहरूयुगीन मूल्यों को संग्रहालय में संजोकर रख दिया। धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार सॉफ्ट हिंदुत्व की बातें करते हुए दिखाई देने लगे हैं। वामपंथी विचारकों का समूह अप्रासंगिक हो चुका है। जातीय जनगणना में सभी समस्याओं का समाधान ढूंढ लेने का दावा कर रहे कांग्रेस नेता राहुल गांधी कितने कामयाब होंगे, इसकी प्रतीक्षा की जा सकती है. बिहार में तो जातीय जनगणना के नायक भगवा गठबंधन में शामिल होकर अपना वजूद बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
द्रमुक नेता स्टालिन अपनी क्षेत्रीय आकांक्षाओं की सीमाओं से बाहर नहीं निकलना चाहते हैं। जगनमोहन रेड्डी और नवीन पटनायक की राजनीतिक प्राथमिकता भाजपा की पराजय नहीं है। ये अपने दायरे में सिमटे हुए हैं. किसी क्षेत्रीय राजनीतिक दल की रूचि वैदेशिक एवं सामरिक विषयों में नहीं दिखती है। सबसे बड़ी समस्या परिवारवाद को लेकर है। भाजपा अपनी प्रतिबद्धताओं के कारण लोकप्रिय है।
भाजपा के जिन वादों को अमलीजामा पहनाना असंभव माना जा रहा था, वे सभी या तो पूरे हो गए या आने वाले वर्षों में पूरे हो जायेंगे। इसलिए गैर-एनडीए दलों को बुनियादी तौर पर कुछ नया करना होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)