कहांं गुम हैं 'दंगल' की बेटियों के लिए गूंजी तालियां
अपनी बेटियों के कुश्ती कैरियर को आकार देने वाले महावीर सिंंह फोगाट की जीवन यात्रा को ‘दंगल’ में हमने खूब सेलिब्रेट किया। यह फिल्म भारत में 387 करोड़ रुपये से अधिक कमाई कर बॉक्स ऑफिस में हिट रही। दिलचस्प बात यह है कि चीन में इसको डब करके रिलीज किया गया और वहां भी इसे 300 करोड़ रुपये से अधिक कमाई हुई थी।
लेकिन आश्चर्य की बात है जब साक्षी मलिक और अन्य महिला पहलवान दिल्ली में एशियाई चैंपियनशिप के लिए पसीना बहा रही थीं, तब स्टेडियम खाली पड़ा था। असली दंगल को न दर्शन मिले, न ही असली नायक-नायिकाओं को वैसी वाहवाही। जबकि फिल्मों में हम ऐसी कामयाबी के किस्सों पर खूब जश्न मनाते हैं, गर्व महसूस करते हैैं। लेकिन जब असल जीवन में जब प्रोत्साहित करने या उनकी खुशी में शामिल होने का वक्त आता है तो बहुत से असली हीरो खुद को यूं ही अकेला पाते हैं। क्रिकेट को छोड़कर बाकी खेलों के प्रति यह सामाजिक उदासीनता हमारी पहचान बन चुुुुकी है। जब समाज ही कुश्ती जैसे खेलों और खिलाड़ियों की उपेक्षा कर रहा है तो सरकारी सहायता और संस्थागत सहयोग की कितनी उम्मीद की जा सकती है।
अगर सानिया मिर्जा, अभिनव बिंद्रा, सानिया नेहवाल या पी.वी. सिंधु विश्व स्तर के खिलाड़ी बन सके हैं तो मुख्य रूप से अपने माता-पिता, कोच और व्यक्तिगत प्रयासों की वजह से। ओलंपिक के वक्त हम दिल थामकर दुआ मनाते हैें कि दीपिका करमाकर कोई करिश्मा कर दिखाए। जिस पर पूरा देश गर्व कर सके। लेकिन उससे पहले दीपिका का क्या संघर्ष रहा हैैै, दीपिका कहां थी, दीपिका कैसी बनी, इसकी सुध हमने कभी नहीं ली। दरअसल हमें खेल और खिलाड़ी से ज्यादा अपने गर्व की चिंता है। हमेशा हम अपने गौरव को पुष्ट करने वाले किस रोल मॉडल की तलाश में रहते हैं। हमें सिर्फ कामयाबी से मतलब है, खेल और खिलाड़ी के संघर्ष से नहीं।
ग्लैमर से ग्रस्त मीडिया भी क्रिकेट के अलावा अन्य खेल की घटनाओं को ठीक तरह से कवर नहीं करता है। आज हर जगह कोई क्लब हो या रेस्त्रां टीवी स्क्रीन पर आईपीएल क्रिकेट के दर्शन होते हैं। इसके उल्ट श्ती चैंपियनशिप कहां चल रही हैं, टीवी पर कब दिखेगी, इसका किसी को अंदाजा तक नहीं है। इस नजरिये के साथ हम चाहते हैं कि हमारे झोली ओलंपिक मैडलों से भर जाए!
हरियाणा राज्य से कई महिला पहलवान आगे आ रही हैं। फिल्म दंगल में हम इस बात की खूब सराहना कर चुके हैं कि पितृृृृसत्ता को चुनौती देतेे हुए लड़कियां कैसे अपने सपनों को जी रही हैं। जो राज्य आज भी कोख में बच्चियों की हत्याओं के लिए बदनाम है, वहां की बच्चियां अपनी लगन और मेहनत से कामयाबी की नई इबारत लिख रही हैं। संघर्ष की ऐसी हजारों कहानियां है जो शायद किसी 'दंगल' में न दिखें। अगर हम असल जिंदगी में इन दंगलों को नहीं सराह सकते तो फिल्म दंगल पर बजी हमारी तालियां खोखली हैं।
(लेखिका दिल्ली की अंबेडकर यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)