गांधी प्रासंगिक कैसे नहीं
अब समय आ गया है कि हम खुद से पूछें, “क्या हम गांधी के लायक हैं?” जवाब है नहीं
महात्मा गांधी भारत के लाखों निराश्रितों के लिए खड़े हुए। और कौन है जिसने इतनी सादगी से भारत की विशाल जनता को अपने रक्त और मांस की तरह अपनाया? सत्य ने सत्य को जागृत किया -रबींद्रनाथ ठाकुर
बापू कहते थे कि न तो उनका दर्शन और न ही उनकी पद्धति उनके अपने आविष्कार थे। उनका दर्शन सभ्यता, सत्य, प्रेम, अहिंसा और शांति की बुनियाद पर आधारित था। यह उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी नदियां और पहाड़ हैं। उनकी पद्धति भी इसी दर्शन से निकली थी, और यह भी सत्य, प्रेम, अहिंसा और शांति पर आधारित थी। सत्य, प्रेम, अहिंसा और शांति सभ्यताओं के निर्माण की बुनियाद भी है। इसी बुनियाद पर समुदाय बने और समुदायों के समूह से सभ्यता ने आकार लिया। इस तरह यह कहा जा सकता है कि हमारा अस्तित्व इन बुनियादी जरूरतों के पालन पर निर्भर करता है- ठीक उसी तरह जैसे हमारा जीवन हवा, पानी, पोषण और ऊष्मा पर निर्भर है।
बापू आज प्रासंगिक हैं या नहीं, जब यह सवाल चुनौती की तरह मेरी ओर उछाला जाता है, तो मुझे बहुत चिढ़ होती है। मुझसे उम्मीद की जाती है कि मैं बापू की प्रासंगिकता साबित करने की पूरी कोशिश करूंगा। आखिरकार मैं उनका पड़पोता हूं और मैंने उनका बचाव नहीं किया तो कौन करेगा? भला यह बात कैसे मायने रखती है कि बापू आज प्रासंगिक हैं या नहीं? बापू ने वही किया, जो उन्हें अपने जीवनकाल में करना था। अब उनके लिए यह बात मायने नहीं रखती कि हम उन्हें प्रासंगिक मानते हैं या कचरे के ढेर में डाल देते हैं। इसके विपरीत हमें खुद से पूछना होगा कि उनकी प्रासंगिकता हमारे लिए मायने रखती है या नहीं?
अब हम बापू के विश्वास और विचारों की नींव बनाने वाले तत्वों पर गौर करते हैं और देखते हैं कि क्या वे आज भी हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं या हम उनके बिना ही बेहतर हैं।
सत्य के बिना रह सकते हैं ?
हमने चालाकी से “सुविधाजनक सत्य” का आविष्कार कर लिया है। हम सब उसी को मानते हैं तथा खुद को समझाने की कोशिश करते हैं कि हम सत्य के साथ हैं। लेकिन तथ्य यह है कि जब हम अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते हैं तो हमें एहसास होता है कि हम खुद को जो समझाने की कोशिश कर रहे हैं, वह असल में सत्य नहीं, महज एक दिखावा है। सत्य शाश्वत और एक ही रंग का होता है। यह अनोखा और सकारात्मक है। बापू ने इसी सत्य के लिए कहा था कि उनकी अंतरात्मा उनसे इसके बारे में बात करती थी। अगर हम अपनी अंतरात्मा को इजाजत दें, तो हम भी ऐसा कर सकते हैं। हमारी अंतरात्मा हमेशा हमसे बातें करती है, लेकिन बहुत कम लोग ही उसे सुनते हैं। जब अंतरात्मा की आवाज तेज हो जाती है, तब पूर्ण सत्य सुनाई देता है। लेकिन अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनने के लिए हमें आध्यात्मिक प्रवृत्ति, आध्यात्मिकता पर आधारित एक निःस्वार्थ भाव विकसित करना होगा, तभी हम समझ सकेंगे कि अंतरात्मा क्या बताने की कोशिश करती है। मैं यहां जिस आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं, उसे धार्मिकता से जोड़कर भ्रमित मत होइए। कई बार हमारी आंतरिक आवाज हमारी सबसे ईमानदार और गंभीर आलोचक होती है, इसलिए हममें यह सुनने और स्वीकार करने का साहस होना चाहिए कि वह क्या कहती है। सत्य के बिना कोई भी रिश्ता कायम नहीं रह सकता है, सत्य के बिना भरोसा करना मुश्किल है, सत्य के बिना कभी कोई दोस्त नहीं बना सकता। इसलिए दूसरे शब्दों में कहें तो सत्य के बिना समाज का अस्तित्व नहीं हो सकता है। क्या अब हम सत्य के बिना रह सकते हैं? नहीं। सत्य बापू के विश्वास का एक मुख्य तत्व है, इसलिए उनका विश्वास सत्य की ही तरह शाश्वत बन जाता है।
प्रेम के बिना रह सकते हैं ?
प्रेम के कई रूप हैं। इसका सिर्फ सांसारिक रूप ही अस्थायी है। हम सब इससे परिचित हैं और प्रेम का यह रूप तात्कालिक और क्षणिक संतुष्टि देता है। प्रेम के भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप अमर और चिरस्थायी हैं। मां और बच्चा गर्भ से ही प्रेम साझा करने लगते हैं, और दोनों का अस्तित्व खत्म होने के बाद ही वह समाप्त होता है। भाई-बहन का प्रेम हमेशा नहीं दिखता, लेकिन दोनों के अलग होने पर यह साफ झलकता है। भाई-बहन साथ होने पर एक-दूसरे को भले नहीं झेल पाते हों, लेकिन अलग करते ही उनका प्रेम प्रकट हो जाता है। पिता का अपने बच्चों से प्यार भी अनोखा है। यह प्यार के उन रूपों में एक है, जो वास्तव में मधुर है और समय के साथ बदलता है, लेकिन मूल भावना हमेशा बनी रहती है। शिक्षक और छात्र के बीच प्रेम है। मैंने हमेशा अपने शिक्षकों से प्रेम किया है।
भले ही एक छात्र के रूप में मैंने उन्हें बहुत सताया हो, लेकिन मेरे जीवन में जब भी चुनौतियां आईं, तब मैंने उन शिक्षकों को याद किया जिन्होंने मुझे चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार किया और राह की बाधाएं दूर करने में भूमिका निभाई। पति-पत्नी और प्रेमियों के बीच प्रेम आध्यात्मिक, भावनात्मक और शारीरिक सभी रूपों में दिखता है और रिश्ते को मजबूत बनाता है। सभी रिश्तों में हम प्रेम को उस सीमेंट की तरह पाते हैं जिसके बिना व्यक्ति कभी एक-दूसरे से नहीं जुड़ पाएगा। प्रेम के बिना हम अपने साथियों से नहीं जुड़ सकते, परिवार समुदाय, समाज और सभ्यता का निर्माण नहीं कर सकते और न ही पर्यावरण को बचा सकते हैं। तो क्या प्रेम शाश्वत है? हां, और बापू को प्रेम में विश्वास था, इसलिए उनका विश्वास भी शाश्वत है।
हमारे अस्तित्व के लिए शांति आवश्यक है ?
क्या हम शत्रुता, संघर्ष और हिंसा के बीच जीवित रह सकते हैं? क्या हिंसा से हमारे अस्तित्व को खतरा है? इन सभी सवालों का जवाब “हां” है। मानव जाति हिंसा के बीच जीवित नहीं रह सकती, यह शत्रुतापूर्ण माहौल और घृणा के बीच नहीं फल-फूल सकती है। इनसानों ने जब शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के बारे में सीखा, तभी समाज और सभ्यताएं बनीं। आज भी हम देखते हैं कि राष्ट्र तभी बिखरते हैं, जब वहां के नागरिकों के बीच अक्सर हिंसक घटनाएं अधिक होने लगती हैं। गृहयुद्ध हमेशा बाहरी आक्रमण की तुलना में ज्यादा विनाशकारी साबित हुआ है।
बापू ने कहा था कि आंख के बदले आंख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी। यदि आंख के बदले आंख का सिद्धांत होता, तो हमारे अस्तित्व के लिए बहुत पहले खतरा पैदा हो गया होता। जब हमारा अस्तित्व संकट में पड़ जाता है, तब हमें शांति के महत्व का एहसास होता है और हम दोबारा शांति कायम करने के लिए बड़ी कीमत चुकाते हैं। तो क्या शांति शाश्वत है? हां, और अगर शांति शाश्वत है तो क्या बापू कभी अप्रासंगिक हो सकते हैं? नहीं।
अहिंसा आवश्यक है ?
कई बार हम शत्रुता न होने को अहिंसा के प्रतीक के रूप में मान लेते हैं, लेकिन यह अहिंसा की परिभाषा का सरलीकरण है। सच्ची अहिंसा एक जीवन पद्धति है। इसका मतलब है कि हम अपने अस्तित्व के कारण दूसरों के अधिकारों में दखल नहीं देते हैं, प्रकृति के संतुलन का उल्लंघन नहीं करते हैं, हम हवा, पानी, अग्नि या पर्यावरण का उल्लंघन नहीं करते हैं। आदर्श अहिंसा किसी के गुजरने पर उसके अस्तित्व का कोई पदचिह्न नहीं छोड़ती है। लेकिन यह अहिंसा का सबसे शुद्ध रूप है, इसे रोजमर्रा के जीवन में हासिल करना मुश्किल है। इसलिए हमें ऐसा जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें हम अपने पीछे बहुत छोटे ही सही, पदचिह्न ही छोड़ें।
आज जब हम हर चीज की निरंतरता कार्बन फुट प्रिंट में आंकते हैं, तब इस अवधारणा को समझना आसान हो जाता है। पर्यावरण के प्रति अहिंसा हमें अपने पीछे कम से कम कार्बन फुट प्रिंट छोड़ने की चुनौती देती है। अहिंसा का मतलब सिर्फ यह नहीं कि हम लड़ाई-झगड़े से दूर रहें, इसका मतलब यह भी है कि हमारे जीवन से दूसरों को कम से कम नुकसान हो, और हम अपने पीछे धरती, पर्यावरण और वायुमंडल में कम से कम गंदगी छोड़ें। बापू ने कहा था, “प्रकृति के पास सबकी जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन किसी का लालच पूरा करने के लिए नहीं।” अहिंसा में उनका विश्वास शाश्वत है और जब उसका उल्लंघन होता है तो वह ओजोन छिद्र, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के रूप में हमें परेशान करता है। अहिंसा सिर्फ संघर्ष और जंग में ही प्रभावी नहीं है, बल्कि तब तो यह उम्मीद करना भी बेमानी होगा कि अहिंसा हमें बचा सकती है। अहिंसा एक जीवन शैली है और जब तक जीवन अनमोल है, अहिंसा कभी गैर-जरूरी नहीं बन सकती। बापू का संपूर्ण दर्शन अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित था। इसलिए जिस तरह अहिंसा हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी है, बापू भी शाश्वत हैं।
इस प्रकार जब तक सत्य, प्रेम, शांति और अहिंसा हमारे कल्याण और अस्तित्व के लिए जरूरी हैं, बापू भला कैसे प्रासंगिक नहीं हो सकते?
बापू के जन्म के 150 साल बाद हमें- देश के नागरिक जिन्हें उन्होंने आजाद कराया- खुद से यह सवाल जरूर पूछना चाहिए, कि क्या हम उनकी विरासत के लायक हैं। मैं जानता हूं कि देश में ऐसी आवाज उभर रही है जिसका जवाब होगा- ‘नहीं’। वे उस नए भारत का हिस्सा हैं जहां हर उस चीज की पूजा होती है जिसे बापू पाप समझते थे। विलासिता, असहिष्णुता, घृणा, आक्रामकता, अलगाव, उपभोग और आत्मकेंद्रित लालची जीवनशैली। यह देखिए कि हमने कैसी विलासितापूर्ण जीवन शैली अपनाई कि बाकी दुनिया हमें एक आकर्षक बाजार और उपभोक्तावादी समाज के रूप में देखती है। यह देखिए कि हम एक व्यक्ति और समाज के रूप में कितने असहिष्णु हो गए हैं कि जरा-सी बात पर अपराध कर बैठते हैं। हम अपने से भिन्न की जीवन शैली को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। हम कैसे रहते हैं, क्या खाते हैं, कैसे पहनते हैं, कैसे और किसकी पूजा करते हैं, हम कहां से आते हैं, हम क्या है- ये सब बातें झगड़े, दमन और यहां तक कि हत्या की वजह बन जाती हैं।
बलात्कार उत्पीड़न और दमन का हथियार बन गया है। लिंचिंग एक सामान्य घटना बन गई है। समाज में नफरत कभी इतनी हावी नहीं हुई थी। सोशल मीडिया पर आप इसकी व्यापकता देख सकते हैं। हमने व्यापक असमानताओं वाला राष्ट्र बना दिया है। एक तरफ कुछ लोगों के पास अकूत संपत्ति है, तो दूसरी तरफ एक बड़ा तबका है जो गरीबी के कारण अमानवीय जीवन जीने को मजबूर है। समाज के इस वर्ग के प्रति किसी को कोई परवाह भी नहीं है।
हमारे शासन का अर्थशास्त्र नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता के बजाय सेंसेक्स के बारे में अधिक परेशान है। जीडीपी का महत्व जीवन की संतुष्टि के सूचकांक से अधिक बड़ा है। देश की बहुसंख्यक आबादी कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनने के बजाय आत्मकेंद्रित बन गई है। यकीनन, क्या अब यह समय नहीं आ गया है कि हम खुद से पूछें- “क्या हम गांधी के लायक हैं?” आज इस सवाल का ईमानदार जवाब ऊंचा और स्पष्ट है, “नहीं, हम नहीं हैं!”
(लेखक, टिप्पणीकार और गांधी के पड़पोते हैं)