न नीति, न नीयत, दोगुनी आय कैसे बनेगी हकीकत
भाजपा सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का वादा चौथे बजट में भी उतने ही जोर से दोहराया जितने कि 2014 के चुनावी भाषणों में ऐलान किया था। बीते पौने चार साल का लेखा-जोखा करें तो पाते हैं कि खेती की आमदनी बढ़ने के बजाय घटी है। इसकी एक वजह तो मौसम की मार है और दूसरे कृषि उपज के उचित और लाभकारी मूल्य नहीं मिलना है। हालांकि भाजपा 2014 के संसदीय चुनावी घोषणा-पत्र में लिखित वादा कर चुकी है कि डॉ. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिश के मुताबिक कृषि लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य दिया जाएगा। लेकिन अभी वह वादा ही बना हुआ है।
इस साल पेश केंद्रीय बजट (2018-19) में तो कृषि लागत की परिभाषा ही बदल दी गई है। इसे सी2 के बजाय ए2+एफएल (यानी पारिवारिक मजदूरी) करके यह दावा किया गया है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश लागू कर दी गई है। यह बात मान भी लें तो इसमें नया क्या है? ऐसा तो पहले से हो ही रहा था। इतना ही नहीं, महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जो समर्थन मूल्य घोषित किए जाते हैं, वे भी किसानों को नहीं मिल रहे हैं। केवल गेहूं और धान की खरीद का इंतजाम है, वह भी सिर्फ चार-पांच राज्यों में। शेष प्रदेशों के किसानों को तो इन दो उपजों का समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता।
फिर ज्वार, बाजरा, मक्का, चना, मसूर, मूंग, उड़द जैसे दूसरे अनाज तो पूरे देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से 25 से लेकर 40 फीसदी कम पर बिकते रहे हैं। सरसों, तारामीरा, सूरजमुखी, सोयाबीन जैसी तिलहन की फसलों और कपास व गन्ना जैसी नकदी फसलों की भी यही स्थिति है। गन्ना किसानों की दशा तो और भी बदतर है, न तो उचित मूल्य मिलता है और न समय पर भुगतान। उत्तर प्रदेश की कई चीनी मिलों ने तो पिछले साल का भी पूरा भुगतान अभी तक नहीं किया है। सरकार की ओर से कहा गया कि उपरोक्त अनाजों की उपज मांग से अधिक होने के कारण इनके दाम गिरे हैं। यह कोई नया तर्क नहीं है। ऐसी ही स्थिति से निपटने के लिए तो न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली का उद्भव हुआ था। तो, सवाल उठता है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य दे ही नहीं सकती, या देना नहीं चाहती, तो उन्हें घोषित क्यों करती है?
इसी तर्क के आधार पर किसानों को उपदेश दिया गया कि वे परंपरागत फसलों को छोड़कर सब्जी, फल, दूध पर ज्यादा जोर दें। किसानों ने बात मानी, लेकिन बीते चार-पांच साल से आलू, प्याज, लहसुन जैसी सब्जियों और कीनू जैसे फलों के दाम भी इतने गिरे हैं कि उन्हें सड़क पर फेंकना पड़ा। इस साल तो दूध और अंडे भी लागत से कम पर बिक रहे हैं। इस सबके बावजूद किसानों को उत्पादन बढ़ाने का उपदेश लगातार जारी है। इससे क्या यह सिद्ध नहीं हो जाता कि सरकार चलाने वाले या तो कृषि की अर्थव्यवस्था को समझते नहीं, या यूं ही बहक रहे हैं या बहका रहे हैं।
अब रही 2022 तक आमदनी दोगुनी करने की बात। ऐसा केवल निम्नलिखित पांच उपायों से ही संभव हैः
- प्रति किसान जमीन दोगुनी कर दी जाए।
- कृषि की प्रति एकड़ उपज दोगुनी हो जाए और लागत मूल्य वही रहे।
- कृषि जिंसों के किसानों को मिलने वाले मूल्य दोगुना हो जाएं और लागत उतनी ही रहे।
- मूल्य वही रहें और लागत आधी हो जाए।
- किसान को खेती के अतिरिक्त किसी अन्य साधन से आमदनी हो जाए।
इन पांचों में से सरकार कौन-सा उपाय अपनाना चाहती है, यह बताना होगा। सरकार की ओर से बजट में या किसी अन्य माध्यम से ऐसी कोई रूपरेखा अभी तक पेश नहीं की गई है। तब कैसे विश्वास हो कि सरकार वास्तव में इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रतिबद्ध है? अर्थशास्त्रीय गणित के हिसाब से देखें तो अगले चार साल में यानी 2022 तक आय दोगुनी करने के लिए खेती का विकास अर्थात उपज दर ही नहीं, बल्कि किसान की आमदनी को भी 20 फीसदी सालाना बढ़ाना होगा। जबकि वर्तमान विकास दर दो फीसदी के आस-पास है। इसे बीस फीसदी करने के लिए खेती में कुल निवेश वर्तमान स्तर की अपेक्षा दस गुना यानी एक हजार फीसदी तक बढ़ाना होगा। न तो केंद्रीय बजट में इसका कोई संकेत या प्रावधान है और न किसानों के पास इतनी अपनी पूंजी है। बजट से पूर्व प्रकाशित आर्थिक सर्वेक्षण में तो कहा गया है कि कृषि में निजी अर्थात किसानों की ओर से किए जा रहे निवेश में कमी आई है। स्पष्ट है कि उन्हें अपने परिवारों का पालन-पोषण करने के बाद कुछ बचे तभी तो वे कुछ निवेश करें।
उपरोक्त उपायों की व्यावहारिकता पर विचार करें तो निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुंचते हैंः
- जमीन दोगुनी हो नहीं सकती।
- उपज भी एकदम डबल नहीं हो सकती। असिंचित क्षेत्रों में सिंचाई व्यवस्था उपलब्ध कराने से उन क्षेत्रों में उत्पादकता दोगुनी हो सकती है। लेकिन सरकार के पास अभी तक ऐसी कोई समयबद्ध योजना नहीं है।
- किसानों की उपज का दाम भी दोगुना करना कई कारणों से संभव नहीं है। अभी तक तो वर्तमान घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य भी सरकार नहीं दिला पा रही है, तो दोगुना कहां से देगी? और फिर उपज दोगुनी होने से मूल्य और नीचे आ जाएंगे। सरकार पहले ही कह रही है कि अधिकांश जिंसों की पैदावार खपत और मांग से अधिक है। अगर उपज और बढ़ी तो स्थिति बदतर ही होगी।
- लागत आधी होने की भी कोई संभावना नहीं है। बीज, खाद, दवा, डीजल, मशीनरी, मजदूरी वगैरह सब लगातार बढ़ रहे हैं। सब्सिडी को कम करने की बात हो रही है, तो उससे भी लागत में वृद्धि होगी।
- पांचवां उपाय खेती से इतर साधन से आमदनी का है, वैसा भी कोई कार्यक्रम अभी दूर तक दिखाई नहीं पड़ता।
- छठा उपाय निवेश को दस गुना करने का हो सकता है। जाहिर है कि इतनी पूंजी किसान के पास तो होने का सवाल ही नहीं उठता। उसका तो घर खर्च ही पूरा नहीं हो पाता, बचत और पूंजी निवेश की तो गुंजाइश ही कहां?
बजट में बताए उपाय तो पुराने, घिसे-पिटे आधे-अधूरे ही हैं। न उनमें कोई नई दिशा है और न ही पर्याप्त वित्तीय प्रावधान। और तो और, मंडी एवं विपणन व्यवस्था के सुधार का घिसा-पिटा राग भी इस वक्तव्य के साथ पेश कर दिया गया कि कृषि राज्य सरकारों का विषय है, उन्हें मंडी कानून में संशोधन करने को कहा जा रहा है।
यही तो पहले की सरकारें भी कहती रही हैं। इस मामले में भी एक पुराना शाश्वत प्रश्न पूर्ववत खड़ा है कि आज तो भाजपा का बीस राज्यों में शासन है, क्या वहां की सरकारें भाजपा आलाकमान के ऐसे निर्देश की अवहेलना करने की जुर्रत कर सकती हैं? उत्तर स्पष्ट है कि कदापि नहीं। तब सच्चाई तो यही है कि मोदी नीत सरकार का राजनैतिक संकल्प ही संदेहास्पद है। खेती उसकी प्राथमिकता में शायद है ही नहीं।
आंकड़ों के जादू का एक सरल उपाय जरूर है कि प्रत्येक किसान भाई की आमदनी को ही किसान बहन के खाते में भी दिखा दिया जाए। तब किसान भाइयों + बहनों की आय मिलकर दोगुनी हो सकती है। कोई अन्य जादुई छड़ी तो दिखाई नहीं देती। बस प्रतीक्षा करें, क्या तिलिस्म होने वाला है?
(लेखक पूर्व केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री हैं)