मोदी सरकार को विदेशी कर्ज के सहारे ग्रोथ का भरोसा
मोदी 2.0 सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था 2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर (350 लाख करोड़ रुपये) पर पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। चालू वित्त वर्ष के बजट में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश की दशकों पुरानी एक वर्जना को तोड़ दिया गया है। बजट ने यह संकेत दिया है कि आठ फीसदी विकास दर पाने के लिए सिर्फ घरेलू बचत काफी नहीं है। इस वजह से सरकार की वित्तीय आवश्यकताएं पूरी करने के लिए विदेशी कर्ज का अधिकाधिक इस्तेमाल करने में कोई हर्ज नहीं है। अभी तक वित्तीय आवश्यकताएं पूरी करने के लिए विदेशी कर्ज लेने में सरकारों का रुख काफी सतर्कतापूर्ण या कहें तो अत्यधिक अनुदारवादी रहा है। जोर इस बात पर रहा है कि घरेलू बचत के सहारे ही आर्थिक विकास किया जाए। लेकिन बजट ने इस सोच को पीछे छोड़ दिया है। हालांकि इस वर्जना के विघटन से पिछले कई दशकों में पहली बार लगा कि बजट में कोई थीम है। आमतौर पर बजट में ऐसी कोई थीम नहीं होती है, बल्कि सिर्फ वित्तीय ब्योरों का बयान भर होता है।
इस बजट में इस साल विदेशी उधारी भले ही प्रतीकात्मक हो, लेकिन यह कदम सबसे महत्वपूर्ण है कि घरेलू खर्चों की पूर्ति के लिए विदेशी कर्ज न लेने की परिपाटी त्याग दी है। सरकार के नजरिए में यह बदलाव भारतीय कर्जदारों के लिए गेमचेंजर साबित हो सकता है। हालांकि संभव है कि विदेशी कर्ज लेने में सरकार ज्यादा जल्दबाजी न दिखाए, लेकिन थोड़ा विदेशी कर्ज लेना भी अहम होगा। इसके लिए सरकार के सोवरेन बांड इश्यू से दूसरे विदेशी बांड निर्गमों के लिए स्पष्ट बेंचमार्क तय करने में मदद मिलेगी और भारतीय कंपनियों के लिए उधारी लागत में कमी आने की भी संभावना है। इस कदम से भारतीय बांड यानी ऋण प्रपत्र की मांग बढ़ने की भी संभावना है। कुल मिलाकर लंबे समय में बांड मार्केट को फायदा मिलेगा। इससे घरेलू बाजार में विदेशी मुद्रा की सप्लाई सुधरेगी और विदेशी मुद्रा की कमी को लेकर चिंता कम होगी। विदेशी मुद्रा की आमद बढ़ने से भारतीय रुपये के एक्सचेंज रेंट को भी समर्थन मिलेगा।
चालू वित्त वर्ष के कुल जीडीपी के मुकाबले 13.2 फीसदी सरकारी व्यय का प्रस्ताव इस लिहाज से स्वागत योग्य माना जा सकता है कि राजस्व की चिंताओं के चलते इसमें कटौती की आशंकाएं निर्मूल साबित हुई हैं। माना जा रहा था कि सरकार राजकोषीय घाटे को लक्ष्य के भीतर रखने के लिए अपने कुल व्यय पर कैंची चला सकती है। अगर ऐसा होता तो पहले से सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था के लिए और चुनौतियां पैदा होतीं।
लेकिन सरकार ने अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिए निवेश को प्रोत्साहन देने पर ध्यान दिया है। इसी उद्देश्य से उसने सस्ते मकानों के लिए कर रियायतें देने की घोषणा की। इसके अलावा ऑटो सेक्टर में जान फूंकने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों की खरीद के लोन पर देय ब्याज पर भी डिडक्शन देने का प्रस्ताव किया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पूंजी बढ़ाने का अहम कदम उठाया गया है। सरकार बैंकों को मजबूत बनाने के लिए उन्हें 70,000 करोड़ रुपये पूंजी देगी। इससे बैंक मजबूत होंगे तो वे देश के आर्थिक विकास को समर्थन देने में सक्षम होंगे। सरकार ने गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र (एनबीएफसी) के लिए भी कदम उठाए हैं। बैंकों को मजबूत एनबीएफसी के बांड खरीदने की अनुमति दी गई है। इससे संकट में घिरे वित्तीय क्षेत्र को पटरी पर लाने में मदद मिलेगी। अंततः इन सभी उपायों से आर्थिक विकास को रफ्तार मिलने की संभावना है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने केंद्रीय बजट में व्यय की जो योजना पेश की है, उसे देखकर लगता है कि जीडीपी के मुकाबले व्यय बहुत अधिक है। जीडीपी के मुकाबले 13.2 फीसदी सरकारी व्यय का बजट पेश किया गया है। सरकार ने अंतरिम बजट में जीडीपी के मुकाबले कुल सरकारी व्यय इसी स्तर पर रखा था। इससे प्रतीत होता है कि सरकार अपनी फ्लैगशिप योजनाओं और दूसरे उपायों के जरिए किसी भी कीमत पर देश की आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाना चाहती है। लेकिन यह बात भी एकदम सच है कि जीडीपी के मुकाबले सरकार का व्यय बहुत ज्यादा है।
बजट में यह सुखद आश्चर्य भी देखने को मिला कि सरकार ने राजकोषीय घाटे का लक्ष्य अंतरिम बजट के मुकाबले घटा दिया है। जीडीपी के मुकाबले राजकोषीय घाटा 3.3 फीसदी पर रखने का लक्ष्य रखा गया है जबकि अंतरिम बजट में इसे 3.4 फीसदी पर रखा गया था। वैसे यह कहा जा सकता है कि सरकार ने वित्तीय सुदृढ़ता और विकास को रफ्तार देने की कोशिशों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया है। सरकार ने उत्पाद शुल्क और विनिवेश तथा लाभांश प्राप्तियों का लक्ष्य बढ़ाया है। इस कदम से सरकार ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि कुल राजस्व प्राप्तियों में कमी न आए।
यह कदम खासतौर पर उस समय अहम हो जाता है, जब जीएसटी और व्यक्तिगत आयकर संग्रह में सुस्ती बनी हुई है। वैसे तो इन दोनों स्रोतों से राजस्व प्राप्तियों का लक्ष्य घटाकर उन्हें ज्यादा वास्तविक बना दिया और घटे लक्ष्य को हासिल करना सुनिश्चित होगा। इससे कुल राजस्व प्राप्ति अनुमान भी ज्यादा भरोसेमंद प्रतीत होता है। लेकिन विनिवेश और लाभांश से राजस्व प्राप्तियां पिछले वर्षों में जैसे अनिश्चितत रही हैं, ऐसे में अगर लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया तो मुश्किल आ सकती है। इसी तरह जीएसटी संग्रह में भी कुछ हद तक अनिश्चितता बनी हुई है। अगर इनके घटे लक्ष्य हासिल नहीं हो पाए तो राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा। इसी तरह जीडीपी की विकास दर अनुमान के अनुसार नहीं रही तो इसके मुकाबले कुल व्यय और बढ़ जाएगा।
(लेखक एचडीएफसी बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट हैं)