बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 साल: क्या फिर से सरकार को पसंद आ रहा है प्राइवेट मॉडल
19 जुलाई 2019, यानी आज बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। 19 जुलाई 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार राष्ट्रीयकरण किया था। साल 1969 के बाद 1980 में पुनः 6 बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे।
आर्थिक तौर पर सरकार को लग रहा था कि कमर्शियल बैंक सामाजिक उत्थान की प्रक्रिया में सहायक नहीं हो रहे थे। बताते हैं कि इस समय देश के 14 बड़े बैंकों के पास देश की लगभग 80 फीसदी पूंजी थी। इनमें जमा पैसा उन्हीं सेक्टरों में निवेश किया जा रहा था, जहां लाभ के ज्यादा अवसर थे। वहीं, सरकार की मंशा कृषि, लघु उद्योग और निर्यात में निवेश करने की थी।
दूसरी तरफ एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रुपया डूब गया था। उधर, कुछ बैंक काला बाजारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे। इसलिए सरकार ने इनकी कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया ताकि वह इन्हें सामाजिक विकास के काम में भी लगा सके।
राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई। शहर से उठकर बैंक गांव-देहात की तरफ चल दिए। आंकड़ों के मुताबिक, जुलाई 1969 को देश में बैंकों की सिर्फ 8322 शाखाएं थीं। 2018 के आते आते यह आंकड़ा 1,40,000 को पार कर गया।
इसका यह फायदा हुआ कि बैंकों के पास काफी मात्रा में पैसा इकट्टा हुआ और आगे बतौर कर्ज बांटा गया। प्राथमिक सेक्टर, जिसमें छोटे उद्योग, कृषि और छोटे ट्रांसपोर्ट ऑपरेटर्स शामिल थे, को फायदा हुआ। सरकार ने राष्ट्रीयकर्त बैंकों को दिशानिर्देश देकर उनके लोन पोर्टफोलियो में 40 फीसदी कृषि लोन की हिस्सेदारी की बात की। दूसरी तरफ, अपना टार्गेट और व्यक्तिगत लाभ के चलते, आंख बंद करके पैसा बांटा गया, जिससे बैंको का एनपीए बढ़ा। आज 2019 में सरकारी बैंकों का यह डूब रहा पैसा 10 फीसदी से ऊपर है। फायदा लेने वालों में रसूखदार ही थे। छोटे किसान या व्यापारी हाशिये पर खड़े रह गए।
यदि कुल मिलाकर देखा जाए तो ये बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारीकरण ज्यादा हुआ। कांग्रेस की सरकारों ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनैतिक लोगों को बिठाकर बैंकों का दुरूपयोग किया। जो लोग बोर्ड में बैंकों की निगरानी के लिए बैठे थे उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैंकों का भरपूर इस्तेमाल किया। बैंक यूनियंस के जो नेता बोर्ड में शामिल हुए उन्होंने भी बैंक कर्मचारियों का ध्यान न करते हुए बोर्ड मेम्बेर्स की साजिश में शामिल हो गए, जिसके कारण आज बैंकों की यह दुर्दशा हो गई हे कि ओपरेटिव प्रॉफिट कमाने के बाद भी बैंक घाटे में चल रहे हैं।
यदि वास्तव में बैंकों में सुधार और बैंकों को आम जनता तक पहुंचाने का काम किसी सरकार ने किया है तो वह मोदी सरकार द्वारा किया गया है। 45 वर्षों में जो बैंक आम जनता तक नहीं पहुंच पाए थे सरकार ने लगभग 35 करोड़ जनधन खाते खुलवाकर आम जनता को बैंकों से जोड़ा है। बैंकों से लोन लेकर वापिस नहीं करने वाले लोगों पर भी नये और सख्त कानूनों के द्वारा रिकवरी प्रक्रिया को तेज किया जा रहा है, लेकिन अभी और बहुत से सुधारों की जरूरत है।
इन वर्षों में राष्ट्रीयकृत बैंको ने कई दौर देखे हैं।
- लोन मेलों का दौर।
- मैन्युअल लैजेर्स से कम्पूटराइजेशन का दौर।
- बैंकों को पूरी स्वायतता देने का दौर।
- वैश्वीकरण के बाद बैंकों के शेयरों को पब्लिक में बेचने का दौर।
- बैंकों को बैंकिंग के अलावा दूसरी सेवाओं को देने का दौर।
- जनधन खातों से जनता तक पहुंचने का दौर।
- ओर सबसे कष्टदायक नोटबंदी का समय।
इंदिरा जी के गरीबी हटाओ से लेकर मोदीजी के मुद्रा लोन तक सभी योजनाओं का क्रियान्वयन इन बैंकों ने उत्साह से किया है। सबसे अभूतपूर्व कार्य नोटबन्दी के 54 दिनों मे इन बैंकों ने करके दिखाया। देश के सरकारी तन्त्र की कोई भी इकाई (सेना को छोड़कर) 36 घंटे के नोटिस पर ऐसा काम नहीं कर सकती जैसा इन सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने कर दिखाया।
और इन सभी के बीच यदि कोई वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है तो वह है बैंक कर्मचारी। बैंकों में काम तो बड़ा है और कर्मचारी ईमानदारी से सरकार की सभी योजनाओं को भी लागू कर रहे हैं लेकिन काम के फलस्वरूप जहां एक ओर बैंक कर्मचारियों की संख्या बहुत कम है वहीं उनको काम के बदले सही वेतन और सुविधाएं नहीं मिलती।
50 वर्ष बीतने के बाद भी बैंकों को और ताकतवर बनाने की जरूरत है। इसके लिए इनके राष्ट्रीयकृत ढांचे को बनाए रखने की सख्त जरूरत है।
(लेखक दिल्ली प्रदेश बैंक वर्कर्स आर्गेनाईजेशन के महामंत्री हैं। )