कानून नहीं तो पुलिस बेलगाम
अगस्त 2009 में मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी रिपोर्ट ब्रोकन सिस्टम- डिसफंक्शन, एब्यूज ऐंड इंप्यूनिटी इन द इंडियन पुलिस में कहा, “भारत में पुलिस का ढांचा औपनिवेशिक कानून पर आधारित है। इसमें निचले दर्जे के पुलिसवालों को कामकाज संबंधी अधिकार नहीं होते, इन्हें पेशेवर ट्रेनिंग भी नहीं मिली होती है। देश में अंग्रेजी शासन खत्म होने के छह दशक बाद भी यही पुलिस प्रणाली बनी हुई है। पुलिस में 85 फीसदी कर्मचारी कांस्टेबल ही हैं, जबकि आपराधिक शिकायतों की जांच के लिए उन्हें प्रशिक्षण भी नहीं मिला है।”
पुलिस को ऐसे व्यक्ति को बिना वारंट के ही गिरफ्तार करने का अधिकार है, जिस पर आपराधिक कृत्यों से जुड़े होने का ‘वाजिब संदेह’ है अथवा अपराध में शामिल होने की ‘वाजिब शिकायत’ या ‘भरोसेमंद सूचना’ मिली है। ये ऐसी अस्पष्ट परिस्थितियां हैं जिनके तहत पुलिस गिरफ्तार करने के अधिकार का दुरुपयोग कर सकती है और मनमाने तरीके से गिरफ्तारियां कर सकती है। इस व्यवस्था से पुलिस को मानवाधिकारों के उल्लंघन की जैसे अनुमति मिल जाती है और उसके लिए बलात्कार, यातना, मनमाने तरीके से हिरासत में लेने और हत्या करने जैसे जघन्य अपराध भी क्षम्य हो जाते हैं। इस वजह से पीड़ित व्यक्तियों को न्याय नहीं मिल पाता है। खासतौर पर गरीबों और सामाजिक अथवा राजनैतिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों को लंबे समय तक हिरासत में रखने की आशंका ज्यादा रहती है। उनके साथ बार-बार इस तरह का व्यवहार होता है, क्योंकि वे पुलिस को रिश्वत देने में अक्षम होते हैं। अपराध से पीड़ित गरीबों को प्रायः पुलिस से मदद नहीं मिल पाती है। पुलिसवाले एफआइआर दर्ज करने के लिए भी रिश्वत मांगते हैं।
हिरासत में उत्पीड़न और यातना की घटनाएं इस कदर रोजमर्रा की बात हो गई हैं। यह देश में कानून लागू करने वाले अधिकारियों की ज्यादती की वीभत्स मिसाल है। कमजोर और लाचार लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा करने की पुख्ता व्यवस्था के अभाव में पुलिस हिरासत में बलात्कार, यौन उत्पीड़न, यातना और फर्जी मुठभेड़ जैसे आम हो गए हैं।
जीवन जीने और स्वतंत्रता ऐसे मूलभूत अधिकार हैं जिनसे किसी को भी वंचित नहीं रखा जा सकता। किसी भी रूप में किसी व्यक्ति को मूलभूत अधिकारों से वंचित रखना पूरे समाज के लिए चिंता की बात है। इसलिए, जब किसी सरकारी एजेंसी पर हिरासत में हिंसा अथवा मौत का आरोप लगता है तो इसका मतलब है कि उस संगठन ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत नागरिकों के प्रति अपने मूलभूत कर्तव्यों का पालन नहीं किया। लोकतांत्रिक दर्शन इसी मूल आधार पर निर्भर होता है कि राज्य ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे तय कानूनी प्रक्रिया को छोड़कर किसी भी स्थिति में कोई नागरिक जीवन जीने के अधिकार से वंचित हो।
डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल केस (1997) में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस लॉकअप में हिंसा और हत्याओं को लेकर चिंता जताई। कोर्ट ने इसे रोकने के लिए दिशानिर्देश जारी किए। कोर्ट ने कहा, पारदर्शिता और जवाबदेही संभवतः दो ऐसे उपाय हैं, जिन पर जोर दिया जाना चाहिए। पुलिस फोर्स में समुचित कार्य संस्कृति विकसित करने, ट्रेनिंग और मूलभूत मानव मूल्यों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। पुलिसवालों की ट्रेनिंग का तरीका बदला जाना चाहिए। उन्हें मानव मूल्य समझाने चाहिए और संविधान के दर्शन के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। जांच के दौरान पुलिस के नजरिए में बदलाव लाने के प्रयास होने चाहिए ताकि वे पूछताछ के समय मूलभूत मानव मूल्यों को नजरअंदाज न करें और आपत्तिजनक तरीके न अपनाएं। गिरफ्तार किए गए व्यक्ति से पूछताछ के समय कुछ मौकों पर उसके वकील की उपस्थिति पुलिस के थर्ड-डिग्री तरीकों पर रोक लगाएगी।
कोर्ट के आदेशों, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशानिर्देशों और पीयूसीएल के सुझावों के आधार पर मेरे विचार से पुलिस सुधार के लिए ये कदम उठाए जाने चाहिएः-
. पुलिस फायरिंग में होने वाली मौतों के सभी मामलों की सीआरपीसी की धारा 176 के तहत मजिस्ट्रेटी जांच होनी चाहिए, और धारा 190 के तहत रिपोर्ट जुडीशियल मजिस्ट्रेट के पास भेजी जानी चाहिए।
. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दखल तब तक अनिवार्य नहीं है जब तक स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच को लेकर संदेह न हो। हालांकि घटना की सूचना एनएचआरसी या राज्य मानवाधिकार आयोग को बिना देरी किए भेजी जानी चाहिए।
. घायल अपराधी अथवा पीड़ित को चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराई जानी चाहिए, मजिस्ट्रेट या मेडिकल अफसर द्वारा उसका बयान दर्ज किया जाना चाहिए और फिटनेस सर्टिफिकेट जारी किया जाना चाहिए।
. यह सुनिश्चित होना चाहिए कि एफआइआर, डायरी का विवरण, पंचनामा, स्केच आदि संबंधित अदालत को बिना देरी के भेजा जाए।
. घटना की पूरी जांच के बाद रिपोर्ट धारा 173 के तहत सक्षम अदालत को भेजी जानी चाहिए। जांच अधिकारी द्वारा प्रस्तुत चार्जशीट पर मुकदमे की कार्यवाही यथाशीघ्र पूरी की जानी चाहिए।
. मौत होने की स्थिति में पीड़ित के नजदीकी परिजन को जल्द से जल्द सूचना दी जानी चाहिए। अगर पीड़ित व्यक्ति के परिवार को लगता है कि तय प्रक्रिया नहीं अपनाई गई है या यातना देने के चिह्न हैं या स्वतंत्र जांच नहीं हुई है तो वह सेशन जज के यहां शिकायत कर सकता है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अपनी स्थापना के समय से ही वार्षिक रिपोर्ट में हिरासत में हिंसा और मौतों का विवरण प्रकाशित करता है। आयोग ने इस संबंध में दिशानिर्देश भी जारी किए हैं। उसने सरकार से मांग की है कि यातना को अलग अपराध माना जाए और इसके लिए अलग सजा की व्यवस्था की जाए। हिरासत में यातना देना अब भी आपराधिक कृत्य नहीं है।
(लेखक पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सीनियर एडवोकेट हैं)