जवाबदेही तय करना जरूरी
महिलाओं की सुरक्षा और पुलिस की इस समस्या से निपटने की शैली, दोनों ही आज गंभीर चर्चा का विषय हैं। 16 दिसंबर 2012 को निर्भया कांड के बाद केंद्र सरकार ने जस्टिस जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट तौर से लिखा कि वर्तमान वातावरण, जिसमें महिलाएं अपने को असुरक्षित महसूस करती हैं, उसका सबसे बड़ा कारण है सुशासन की कमी, न कि कानून का अभाव। जस्टिस वर्मा ने अपनी रिपोर्ट के 28 पृष्ठों में पुलिस सुधार पर विशेष रूप से चर्चा की थी। उन्होंने स्पष्ट रूप से सभी राज्य सरकारों से आग्रह किया था कि वे पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करें। जस्टिस वर्मा की यह सोच थी कि अगर पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधार हो जाएंगे, तो न केवल महिलाओं की सुरक्षा बल्कि अन्य बड़ी चुनौतियों का सामना करने में भी पुलिस सक्षम हो जाएगी। कोर्ट ने आदेश 2006 में दिया था। 13 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन राज्य सरकारों का रवैया ढुलमुल है। केंद्र सरकार ने भी इस विषय पर कोई गंभीरता नहीं दिखाई है। फलस्वरूप पुलिस की लचर व्यवस्था चली आ रही है, और जैसा कि सर्वविदित है, महिलाएं आज भी उतनी ही असुरक्षित हैं जितनी निर्भया कांड के समय थीं। कानून में कुछ सख्त प्रावधान अवश्य जोड़ दिए गए हैं, लेकिन इनके वांछित परिणाम नहीं दिख रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने हाल ही में पुलिस महानिदेशकों के पुणे सम्मेलन में महिला सुरक्षा के लिए प्रभावी पुलिस व्यवस्था पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि अधिकारियों को पुलिस की छवि निखारने के प्रयास करते रहना चाहिए, ताकि महिलाओं और बच्चों समेत समाज के सभी वर्गों के बीच भरोसा बढ़ सके। गृह मंत्रालय ने भी हाल में सभी राज्यों को एक पत्र भेजा है, जिसमें मुख्य सचिवों से महिलाओं की सुरक्षा की दिशा में ठोस कदम उठाने का सुझाव दिया गया है। राज्यों की पुलिस से यह विशेष तौर से कहा गया है कि वह इन्वेस्टिगेशन ट्रैकिंग सिस्टम फॉर सेक्सुअल ऑफेंसेज (आइटीएसएसओ) का प्रयोग करे। इसके द्वारा यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि ऐसे अपराधों की विवेचना दो महीनों में समाप्त हो सके। केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी कहा है कि 1,023 फास्ट ट्रैक कोर्ट और बनाए जाएंगे, ताकि महिला हिंसा, दुष्कर्म और पॉक्सो एक्ट के तहत मुकदमों की तत्काल सुनवाई हो सके। मंत्री ने यह भी कहा कि राज्यों के मुख्यमंत्री और हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखा जाएगा कि महिलाओं के खिलाफ दर्ज अपराधों की जांच दो माह में और सुनवाई अधिकतम छह महीने में पूरी कर दी जाए। यह आशा की जा सकती है कि इन आदेशों से स्थिति में सुधार आएगा।
पुलिस ने हैदराबाद में दुष्कर्म पीड़िता के आरोपियों को जिस तरह निपटाया, उसको लेकर अच्छा-खासा विवाद खड़ा हो गया है। एक तरफ ऐसे लोग हैं, जो यह कहते हैं कि “अच्छा हुआ, त्वरित न्याय हो गया।” दूसरी तरफ, कुछ लोगों का यह कहना है कि पुलिस को यदि ऐसे अख्तियार दिए गए, तो उसका गंभीर दुरुपयोग हो सकता है और पुलिस कब किसको मार देगी, कोई ठिकाना नहीं रहेगा। ऐसी कार्यशैली से कानून के राज की एक तरह से समाप्ति होगी।
तेलंगाना पुलिस का यह कहना है कि वह जब अपराधियों को लेकर मौके पर गई तो उनमें से कुछ ने पुलिस के हथियार छीन लिए और पुलिस पर गोली चलाई और डंडे और पत्थरों से भी हमला किया। पुलिस ने भी जवाबी फायरिंग की जिसके फलस्वरूप चारों मुल्जिम मारे गए। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार, इस मामले की मजिस्ट्रियल जांच अनिवार्यतः होगी। न्यायिक जांच के भी आदेश दिए जा सकते हैं। इस संबंध में राज्य सरकार को निर्णय लेना होगा। इस बीच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सक्रिय हो चुका है और उसकी जांच टीम हैदराबाद पहुंच चुकी है। आयोग की जांच और राज्य सरकार की जांच से कालांतर में सच्चाई सामने आ जाएगी।
तेलंगाना पुलिस ने घटनाक्रम का जो विवरण दिया है, उसे यदि फिलहाल सच भी मान लिया जाए तो कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। सामान्यतः जब पुलिस किसी ऐसे काम के लिए अपराधियों को अपने साथ ले जाती है, तो उसे कुछ सावधानियां बरतनी होती हैं। सबसे पहले तो यह सुनिश्चित करना होता है कि अपराधियों के पास कोई ऐसा सामान तो नहीं है, जिसका वह किसी प्रकार की हिंसा में प्रयोग कर सकें। इसके लिए उनकी अच्छी तरह तलाशी ली जानी चाहिए। दूसरा यह कि अपराधी व्यक्ति पूरी तरह से पुलिस के भौतिक नियंत्रण में होने चाहिए। इसके लिए उन्हें हथकड़ी लगाई जा सकती है या कैदियों के लिए सुरक्षित गाड़ी में ले जाया जाना चाहिए। यहां यह कहना शायद अनुचित न होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपराधियों को हथकड़ी न लगाने के जो आदेश दिए हैं, उससे पुलिस को उन पर प्रभावी नियंत्रण रखने में बहुत व्यावहारिक दिक्कतें आ रही हैं। उचित होगा यदि कोर्ट इन आदेशों पर पुनर्विचार करे। तीसरी बात, पुलिस को इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि अपराधियों के साथी उन्हें छुड़ाने का प्रयास कर सकते हैं, ऐसी परिस्थिति के लिए बल को तैयार रहना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि तेलंगाना पुलिस ने ऐसी सावधानियां बरतने में कहीं-न-कहीं चूक की। अन्यथा गोली चलाकर अपराधियों को मारने की नौबत नहीं आती। तेलंगाना के एक मंत्री ने यह भी बयान दिया है कि राज्य सरकार पर तत्काल कार्रवाई के लिए बहुत दबाव था और जो उपलब्धि हुई, उसका श्रेय प्रदेश के मुख्यमंत्री को जाता है। अगर यह सही है, तो घटना की गंभीरता और बढ़ जाती है। जांच अधिकारी को राज्य में उच्चतम स्तर तक की भूमिका का आकलन करना होगा।
(लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस और असम पुलिस के महानिदेशक रह चुके हैं)