माखनलाल चतुर्वेदी: जिनकी आत्मा पराधीन भारत की दुर्दशा देखकर चीत्कार करती थी
माखनलाल चतुर्वेदी शिक्षक-कवि, निबंधकार-पत्रकार, कई पत्रिकाओं के सम्पादक, क्रांतिकारी अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व थेलेकिन कवि के रूप में इनकी छवि सर्वाधिक प्रसिद्ध है। माखनलाल जी मूल रूप से लेखक-कवि और वरिष्ठ साहित्यकार के अलावा, हृदय में राष्ट्रप्रेम की अनन्य भावना से सराबोर स्वतंत्रता सेनानी भी थे जिनकी आत्मा पराधीन भारत की दुर्दशा देखकर चीत्कार करती थी। त्याग-बलिदान जैसे उच्च गुणों में विश्वास रखने वाले, उन्होंने उस युग की आवश्यकता को पहचानकर अपनी कविताओं में वही भाव रचे और कविताओं के माध्यम से देशवासियों को त्याग और बलिदान का महत्व बताया। राष्ट्रीय भावनाओं से पूर्णतया ओतप्रोत होने के कारण श्रद्धापूर्वक माखनलाल जी “भारतीय आत्मा” के नाम से भी संबोधित किए जाते हैं।
आज से 133 वर्ष पूर्व, 4 अप्रैल, 1889 को माखनलाल चतुर्वेदी जी का जन्म, नर्मदापुरम (होशंगाबाद) से कुल 33 किमी. दूर माखननगर (पूर्व नाम बाबई) के पटेल मोहल्ले में हुआ था। इनके पिता पंडित नंदलाल चतुर्वेदी अध्यापक थे और माता सुकर बाई गृहणी थीं। उनको बचपन से पढ़ने-लिखने में अत्यधिक रुचि थी, बाल्यकाल में ही उन्होंने रामायण, भगवद्गीता और महाभारत जैसे प्रमुख ग्रंथों-पुराणों का अध्ययन कर लिया था। माखनलाल जी बचपन से ही हास-परिहास वाली प्रवृत्ति के थे, उन्हें तुकबंदियों में बात करना बहुत पसंद था। जन्मजात आदर्शों के परिणामस्वरूप उन्होंनेस्वाध्याय द्वारा ज्ञान में वृद्धि की क्योंकि उन्हें सदा से ही विभिन्न भाषाओं में निपुण होने का शौक था। हिंदी भाषा तो उनकी आत्मा थी, साथ ही संस्कृत, मराठी, गुजराती, बंगाली और अंग्रेज़ी भाषा पर भी उनका अच्छा अधिकार था। उनके ग्रंथालय में कई भाषाओं का उच्च साहित्य उपलब्ध था, परिणामस्वरूप उन्होंने प्रेरणादायक विषयों पर लिखना आरंभ किया।
माखनलाल जी का व्यक्तित्व, कृतित्व और उनका साहित्य हमेशा आपस में सामंजस्य बनाये रहे। कुछ दिनों तक अध्यापन करने के बाद उन्होंने ‘प्रभा’ नामक मासिक पत्रिका का संपादन किया। खंडवा से प्रकाशित होने वाली ‘कर्मवीर’ पत्रिका का 30 वर्ष तक संपादन और प्रकाशन किया। राष्ट्रवादी विषयों पर लिखने के साथ ही उन्होंने राष्ट्रीय गतिविधियों में भी भरपूर भाग लिया और क्रांतिकारी गतिविधियों में सम्मिलित होने के कारण कई बार बंदी बनाए गए। बतौर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, माखनलाल जी को मार्च 1922 में बिलासपुर केंद्रीय कारागार से जबलपुर कारागार भेजा गया, वहीं वे गणेशशंकर विद्यार्थी जी के संपर्क में आए और विद्यार्थी जी की प्रेरणा से इन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया, अनेकों बार बंदी भी बनाए गये। कारावास में भी इनका लेखन अनवरत चलता रहा और कलम के ये सिपाही कारागार में रहते हुए भी स्वतंत्रता के जोशीले दीवानों का प्रोत्साहित करते रहे। विद्यार्थी जी की मासिक पत्रिका ‘प्रताप’ के लिए उन्होंने सुप्रसिद्ध रचना ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखी।
1919-1920 में महात्मा गांधी ने काशी विश्वविद्यालय में निहत्थे क्रांतिकारियों का स्वागत किया था। माखनलाल जी भी वहां पहुंचे और गांधीजी के भाषण से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने हिंसक क्रांतिकारी गतिविधियों का त्याग करते हुए अहिंसा के पथ पर चलने का निर्णय किया और राष्ट्र की आज़ादी के लिए स्वयं को सौंप दिया। उन्होंने आजीवन राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लेना जारी रखा। एक तरफ उनकी ओजपूर्ण कविताएं राष्ट्रभक्ति की भावनाओं से सराबोर थीं, दूसरी ओर उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से भी स्वाधीनता आंदोलन में अपना सहयोग और योगदान दिया। उन्होंने पत्रों और प्रकाशनों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के प्रति जोशीला विरोध व्यक्त किया। उनके सरकार विरोधी कार्यों से चिंतित होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बार-बार देशद्रोह के आरोप में कैद किया।
माखनलाल जी ने जीवनकाल में स्वयं निंदा के शिकार होते हुए भी अपनी तरफ से प्रतिदान में प्रेम दिया। जीवन में अत्यधिक आर्थिक संकटों का सामना करते हुए भी कभी ना उनका मनोबल टूटा, ना ही वे कभी निराश हुए। उनके काव्य में, साहित्य में, पत्रकारिता में, राजनीति में और राष्ट्रवादी गतिविधियों में प्रेम ही दिखाई देता है। उनकी साँसों की पहली और अंतिम ताकत उनकी भावनाएं थीं और उनके देह की ताकत उनका शब्दकोश था। माखनलाल चतुर्वेदी को 1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार, ‘देव पुरस्कार’ दिया गया था। वे ‘हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार’ जीतने वाले पहले साहित्यकार थे। हिंदी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान देने के कारण माखनलाल जी को 1959 में सागर यूनिवर्सिटी द्वारा डी.लिट् की उपाधि प्रदान की गयी। 1963 में भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण प्रदान किया गया (हालाँकि 10 सितंबर 1967 को राष्ट्रभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में माखनलाल जी ने यह अलंकरण लौटा दिया था।)
माखनलालजी द्वारा हिंदी साहित्य को दिए गए अभूतपूर्व योगदान के कारण, उनके सम्मान में कई विश्वविद्यालय उनके नाम पर विविध पुरस्कार देते हैं। पंडितजी के देहांत के बाद 1987 से एक सम्मान, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’ देना शुरू किया गया जो मध्यप्रदेश सांस्कृतिक काउंसिल द्वारा नियंत्रित मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा देश की किसी भी भाषा में योग्य कवियों को दिया जाता है। भोपाल का एकमात्र ‘माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय’ भी इन्हीं के नाम पर स्थापित किया गया। ‘माखनलाल चतुर्वेदी जी’ के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता और लेखन के द्वारा दिए योगदान को सम्मान देते हुए, 1991में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी जो एशिया में अपने प्रकार का पहला ‘पत्रकारिता विश्वविद्यालय’ है। भारत के डाक-तार विभाग ने भी पंडित माखनलाल चतुर्वेदी जी को सम्मान देते हुए ‘पोस्टेज स्टाम्प’ की शुरुआत की जो पंडितजी के 88वें जन्मदिन, 4 अप्रैल 1977 को ज़ारी किया गया।
79 वर्ष की आयु में, जीवन के अंतिम दिनों में भी ‘साहित्य वाचस्पति’, ‘भारत की आत्मा’ माखनलाल जी में युवाओं जैसा जोश था और हिंदी साहित्य जगत को उनकी लेखनी से बहुत अपेक्षाएं थीं। उनकी कर्तव्यनिष्ठा के चलते बाबई निवासियों ने उनके शहर को ‘‘माखननगर’’ संबोधित करना शुरू कर दिया, जिसे 7 फरवरी 2022 को नर्मदा जयंती के दिन केंद्र सरकार ने आधिकारिक रूप से स्वीकृति दे दी। माखनलाल जी की समस्त रचनाएं हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। पंडित जी ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में ओजपूर्ण, भावनात्मक शैली में लिखी वीररस से परिपूर्ण कविताओं से युवकों में ओज और प्रेरणा का भाव भरकर अमूल्य योगदान दिया। माखनलाल जी का राष्ट्रीय चेतना जगाने वाले कवियों में मूर्धन्य स्थान है। हिंदी साहित्य जगत, साहित्य सेवा के लिए इनका सदैव चिरऋणी रहेगा। 30 जनवरी 1968 को उनके खंडवा वाले घर में उनका देवलोकगमन हो गया।
(लेखक साहित्यप्रेमी, फोटोग्राफर एवं शेफ हैं)