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07 September 2015

आहें भरती बीमार नौकरशाही

आउटलुक

स्वतंत्र भारत के राष्ट्र निर्माण में योग्यता आधारित नौकरशाही की अहम भूमिका तजवीज की गई थी। इससे उम्मीद थी कि यह गरीबी से लड़ने, सांप्रदायिक और जातिगत हिंसा को नियंत्रित करने तथा एक मजबूत राष्ट्र के लिए बुनियादी सुविधाओं के जाल के निर्माण में निर्वाचित सरकारों को स्वतंत्र सलाह देगी। नाजायज राजनीतिक दबावों से इसे बचाने के लिए, सिविल सेवकों को कई संवैधानिक और वैधानिक सुरक्षाओं की गारंटी दी गई थी।

लेकिन आज भारत की उच्च सिविल सेवाएं कलंकित होकर लगभग बर्बाद हो चुकी हैं। राजनीतिक नेतृत्व ने सत्ता में साझेदारी के प्रलोभन, अवैध धन अर्जित करने और आकर्षक प्रतिनियुक्ति की स्पष्ट धमकियों के जरिये नौकरशाही को पालतू बना लिया है। भूमि सुधारों को लागू करने में विफलता, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक और जातिगत आग में आपराधिक सहभागिता, गैर न्यायिक हत्याएं और आपातकाल तथा बाबरी मस्जिद विध्वंस में दब्बू रवैया इस गिरावट में मील के पत्थर थे। नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के बाद नौकरशाही लालचवश जेबी पूंदीवाद में भागीदार बनी। जनता से विमुख होकर इसने सार्वजनिक सेवाओं का क्षरण होने दिया। और यह शायद ही कभी राजनीतिक नेतृत्व को निडर राय देने की इच्छा रखती है। इसका मनोबल और स्वतंत्रता संभवत: आपातकाल के समय को छोड़कर अब तक के अपने सबसे बुरे दौर में है।

नौकरशाही के प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रवैया उनके पूर्ववर्ती से उल्टा है। शिक्षाविद से नौकरशाह  बने मनमोहन सिंह मिलनसार और विनम्र थे। उन्होंने पूर्ववर्ती भाजपा शासन में काम कर चुके कई अधिकारियों के साथ काम जारी रखा था। वह विलंब हो जाने, यहां तक कि नीतियों के विफल हो जाने की हद तक सामूहिक निर्णय लेने के लिए प्रयासरत रहते थे। प्रारंभ में कई वरिष्ठ अधिकारियों ने मोदी के लाए निर्णायक माहौल का स्वागत किया था। लेकिन उम्मीद पर पानी फिर गया। नए प्रधानमंत्री ने कमजोर और गतिहीन मंत्रियों और एक सर्वशक्तिशाली पीएमओ का एक अत्यधिक केंद्रीकृत मॉडल अपनाया। वह एक खास मंडली के जरिये काम करते हैं जिनमें से ज्यादातर को सेवानिवृत्ति के बाद लाया गया है।

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पहले की सरकारों की तुलना में आज अधिक नौकरशाह अपने कैडर राज्यों में नियुक्ति की मांग कर रहे हैं। परंपरागत रूप से राज्यों के विपरीत भारत सरकार में सचिव स्थिर कार्यकाल का आनंद लेते हैं। लेकिन मोदी बार- बार फेरबदल करते हैं। अभी हाल ही में केंद्रीय गृह सचिव एल.सी. गोयल के स्थान पर राजीव महर्षि को नियुक्त किया गया, जोकि दरअसल उसी दिन सेवानिवृत्त हो रहे थे जिस दिन उनका नया नियुक्ति पत्र आया। आमतौर से उस स्तर के अधिकारी किसी पद पर दो साल के लिए रहते हैं, लेकिन गोयल को सात महीनों में ही जाना पड़ा। कहा जाता है कि उन्हें नियमानुसार चलने की वजह से जाना पड़ा।

इस सरकार में विचारधारा भी एक अभूतपूर्व भूमिका निभाती है। अपने प्रमुख अधिकारियों में मोदी बाजार और बहुसंख्यक राष्ट्रवाद दोनों के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता चाहते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और प्रधानमंत्री कार्यालय के ज्यादातर वरिष्ठ अधिकारी आरएसएस से प्रभावित विवेकानंद फाउंडेशन से लाए गए हैं। गुजरात में जहां गैर न्यायिक हत्याओं में आरोपित पुलिस अधिकारी जमानत हासिल कर लेते हैं वहीं संजीव भट्ट जैसे गलत को उजागर करने वाले अधिकारी को सफाई का मौका दिए बगैर बर्खास्त कर दिया गया, जिन्होंने बहुचर्चित तौर पर आरोप लगाया था कि 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने गोधरा की घटना के बाद मुसलमानों के खिलाफ अपनी भड़ास निकालने के लिए हिंदुओं को छूट देने के निर्देश दिए थे।

सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि अंधेरे में रहने वाले खतरनाक आरएसएस का सरकार में खुला हस्तक्षेप है जो भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान का खुला विरोधी है। ज्यादा से ज्यादा अधिकारी नागपुर से आदेश ले रहे हैं। सरकारी शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठनों में नियुक्तियां नागपुर से अनिवार्य मंजूरी मिलने के बाद पीएमओ में होती हैं। कुछ लोग यूपीए के राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के साथ इसकी तुलना कर सकते हैं। (पूर्ण प्रकटीकरण: मैं दो साल तक एनएसी का सदस्य था)। वह एक अलग दुनिया थी। एनएसी, गरीबों और वंचितों के लिए सामाजिक नीति के सभी पहलुओं पर प्रधानमंत्री को सलाह देने के लिए बहुमत के साथ औपचारिक रूप से गठित एक सलाहकार समूह था। सभी प्रधानमंत्रियों के सलाहकार समूह होते हैं, और इसमें अलोकतांत्रिक कुछ भी नहीं है। संयोग से, प्रधानमंत्री कई बार एनएसी की राय से असहमति जताते हैं। आरएसएस एक पूरी तरह से अलग तरह का संगठन है। औपचारिक रूप से यह सरकार द्वारा गठित नहीं है और धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों पर इसकी विचारधारा बिल्कुल भिन्न है। सांप्रदायिक दंगों पर बने कई न्यायिक आयोगों ने सांप्रदायिक नफरत पैदा करने और हिंसा फैलाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका का उल्लेख विशेष रूप से किया है।

इन मायनों में सिविल सेवा को बहुसंख्यकवादी विचारधाराओं, बाजार की कट्टरता, जेबी पूंजीवाद और सर्वसत्तावादी नेतृत्व के बढ़ते वर्चस्व ने आज घेर लिया है। हमारे संस्थापक माता-पिताओं ने सोचा था कि सिविल सेवा एक न्यायपूर्ण, समतावादी, समावेशी और मानवीय भारत बनाने में मदद करेगी लेकिन उपरोक्त स्थितियां और लंबी सड़ांध इस संस्था के लिए मौत की घंटी बजा सकती है।

 

 

 

 

 

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TAGS: नरेंद्र मोदी, नौकरशाही, हर्ष मंदर, नवउदारवादी आर्थिक सुधार, जेबी पूंदीवाद, संजीव भट्ट, मनमोहन सिंह, संविधान, अल्पसंख्यक, bureaucracy, Narendra Modi, Harsh Mandar, Sanjeev Bhatt, Manmohan SIngh, Crony Capitalism, Constitution, Minority
OUTLOOK 07 September, 2015
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