...प्रवासी मजदूर वोटबैंक होता!
आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान कितने प्रवासी मजदूरों की मृत्यु हुई। केंद्र सरकार ने संसद के मानसून सत्र के दौरान इसकी पुष्टि की है। सिर्फ यह बताया गया कि देश के विभिन्न शहरों में काम करने वाले एक करोड़ से अधिक श्रमिक कोरोनावायरस संक्रमण को रोकने के उद्देश्य से लगाई गई तालाबंदी के दौरान अपने-अपने गृह राज्य लौट गए। दलील यह दी गई कि जन्म-मृत्यु के आंकड़े रखना स्थानीय निकायों का कार्य है। लोकशाही में आंकड़ों की महत्ता है, लेकिन हर आंकड़े सरकारी संचिकाओं में मिल ही जाएं, यह जरूरी नहीं है। खासकर वैसे तबकों से संबंधित जिन्हें देश की सियासत में कभी वोटबैंक समझा ही नहीं गया।
मजदूरों का पलायन हाल के वर्षों की असाधारण मानवीय त्रासदी थी, जिसकी भयावहता के दृश्य स्मृतियों से अभी ओझल नहीं हुए हैं। लंबे समय तक होंगे भी नहीं। बढ़ती अनिश्चितता के बीच रोजगार छिन जाने के चलते प्रवासी मजदूरों के पास महानगरों से गांव लौटने के अलावा विकल्प ही क्या था? आवागमन की सारी सुविधाओं के ठप होने के बावजूद हजारों की संख्या में मेहनतकश परिवार समेत पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर अपने गांव की ओर चल दिए। किसी ने कंधे पर बच्चे को बिठाया, किसी ने उसे चक्केवाले सूटकेस पर लिटाया, और लौट गए अपने पुरखों की जमीन पर, जिसे छोड़ कर वे दो जून की रोटी की तलाश में निकले थे। लेकिन, सब के नसीब में घर वापसी भी न थी। दिन भर की थकान के बाद पटरियों पर सो रहे उनमें से कुछ को पता भी नहीं चला कि कब उनके ऊपर एक ट्रेन उन्हें रौंदते हुए गुजर गई, इसका एहसास भी न हुआ कि जिस लॉरी में वे चोरी-छुपे अपने घर जाने को निकले थे, वह रास्ते में उनकी अकाल मृत्यु का सबब बन जाएगी।
सरकार के अनुसार, प्रवासी मजदूरों के पलायन की एक बड़ी वजह फर्जी खबरें थी। कारण जो भी हो, इस दौरान कितने परिवारों ने अपनों को खोया, इसका कोई आधिकारिक लेखा-जोखा केंद्रीय श्रम मंत्रालय के पास नहीं है और जैसा संसद में बताया गया, इस वजह से किसी परिवार को अनुकंपा के आधार पर मुआवजा नहीं दिया जा सकता।
इससे किसी को हैरत भी नहीं होनी चाहिए। आजादी के बाद से ही प्रवासी मजदूरों की समस्याओं का हल करना किसी सरकार या राजनैतिक दल की प्राथमिकता नहीं रही है। इसका मूल कारण यह है कि प्रवासी मजदूरों की संख्या करोड़ों में होने के बावजूद उनकी समग्र समूह के रूप में पहचान कभी नहीं बन पाई, जो चुनावी नतीजों को प्रभावित कर पाती। दरअसल, ये ‘नोव्हेर मैन’ समझे जाते हैं, ऐसे अनाम गरीब-गुरबों की भीड़, जिसका कोई लिवाला नहीं। भले ही हर सुबह काम की तलाश में ये महानगरों के चौक-चौराहों पर दिख जाएं, भले ही उनके बगैर स्थानीय अर्थव्यवस्था ठप हो जाए, उन्हें बाहरी ही समझा जाता है। विडंबना यह है कि अपने गृह राज्य में भी उन्हें परदेसी समझा जाता है, जो मेहमानों की तरह सिर्फ त्योहारों के मौसम में दिखते हैं। सबको पता है, वे लौट जाएंगे, कोई बारामुला के पास पहाड़ तोड़ कर सुरंग बनाने के लिए, कोई लोखंडवाला की अट्टालिकाओं से कमर में रस्सी बांध कर लटक कर रंग-रोगन करने। जहां भी रहें, उनकी बस एक ही ख्वाहिश होती है कि रोज दिहाड़ी मिलती रहे, ताकि अपना पेट पाल सकें और कुछ बच जाए तो गांव में रह रहे वृद्ध मां-बाप को भेज सकें।
दरअसल, प्रवासी मजदूर प्रतीक है देश में विकास के प्रादेशिक असंतुलन का। शुरू से ही विकसित प्रदेश और विकसित होते चले गए और गरीब सूबे और गरीब होते गए। इसका मुख्य कारण यह था कि आजादी के बाद भी रोजगार के अवसर महानगरों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गए। अविकसित राज्यों में आजीविका के साधन सीमित होने से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन शुरू हुआ, किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर प्रवासी मजदूरों के हितों का जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, उतना कभी नहीं दिया गया।
मोदी सरकार अब राष्ट्रीय स्तर पर असंगठित और प्रवासी मजदूरों को आधार कार्ड से जोड़कर डाटाबेस बनाने की पहल कर रही है, ताकि उन्हें भविष्य में सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने और अन्य सहायता मुहैया कराया जा सके। यह सकारात्मक कदम है, लेकिन स्थिति तभी बदलेगी जब लोगों के लिए हर राज्य में रोजगार के समान अवसर उत्पन्न किये जा सकें, ताकि किसी को घर-परिवार छोड़ कर बाहर न जाना पड़े। सही है कि प्रादेशिक असंतुलन रातोरात खत्म नहीं किया जा सकता है, लेकिन राजनैतिक इच्छाशक्ति हो तो बदलाव लाया जा सकता है, ताकि इस वर्ष लॉकडाउन के दौरान हुई त्रासदी की पुनरावृत्ति न हो सके।
@giridhar_jha