अगर कभी ‘मंगेशकर मोनोपोली’ थी तो वह हिंदी सिनेमा के लिए वरदान ही है
सिर्फ यह कहना कि वे भारतीय सिनेमा की पार्श्व गायिकी में सबसे विराट व्यक्तित्व थीं, उन्हें कमतर आंकना होगा। लता मंगेशकर (1929-2022) निश्चित रूप से इस परिभाषा के दायरे से बाहर बहुत कुछ थीं। एक ऐसी अथाह प्रतिभा जिनके पास दैवीय आवाज़ थी। उन्होंने न सिर्फ अपने करोड़ों प्रशंसकों का मन मोहा, बल्कि शास्त्रीय और लोकप्रिय दोनों तरह के महान संगीतकारों की कई पीढ़ियों को दशकों तक रोमांचित किया। वे मधुर संगीत की सबसे विश्वसनीय और विशुद्ध छवि थीं। उनके जैसा कोई नहीं था, ना ही उनके जैसा कोई होगा।
लता मंगेशकर ने एक बार एक साक्षात्कार में कहा था, “मैं हमेशा ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि अगर संभव हो तो वह मुझे पुनर्जन्म ना दे।” इसके बावजूद अगर उन्हें कभी मोक्ष और संगीत में से किसी एक को चुनना पड़ता, तो वे निश्चित रूप से संगीत को ही चुनतीं। संगीत लता मंगेशकर के लिए आजीवन ईश्वर तुल्य रहा, भले ही दुनिया के हर रंग के महान फिल्मकार, संगीतकार और संगीत प्रेमी उन्हें ‘देवी सरस्वती’ कहते रहे हों।
1940 के दशक में जब भारत नई-नई मिली आजादी का आनंद ले रहा था, तब से लेकर आज के मिलेनियम युवाओं तक, वे भारतीय संगीत का पर्याय बनी रहीं। चाहे वह हिंदी सिनेमा की बात हो या इससे बाहर की। आप एक बार हिंदी फ़िल्म संगीत की फेहरिस्त से उनके गाए गानों को हटा दीजिए, फिर देखिए कि वह कितनी कमजोर दिखती है।
जब ‘मल्लिका ए तरन्नुम’ नूरजहां 1947 के बाद पाकिस्तान चली गईं, तब हिंदी सिनेमा में एक खालीपन महसूस किया जाने लगा था। किसी ने भी नहीं सोचा था कि उनकी इस कमी को इतनी जल्दी पूरा कर लिया जाएगा। युवा और शर्मीली लता चुपचाप आईं और भारत को अपनी कोकिला मिल गई। उनके गाए गीतों - फिल्म बरसात का ‘हवा में उड़ता जाए’ और फिल्म महल का ‘आएगा आने वाला’ - (दोनों 1949) ने मानो पूरे देशवासियों के कानों में शहद खोल दिया।
बात चाहे 78 आरपीएम वाले डिस्क की हो या नए जमाने के डिजिटल युग की, उन्होंने सर्वश्रेष्ठ संगीतकारों की धुनों को अपनी आवाज दी, खेमचंद प्रकाश से लेकर निखिल कामत तक। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ गीतकारों के हजारों गीतों को स्वर दिया। जब उन्होंने चीन के साथ युद्ध में शहीद हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि देते हुए ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गीत गाकर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भावविभोर कर दिया था, तब तक वे पूरे देश की आवाज बन चुकी थीं। ऐसी आवाज जिसे सभी देशवासी खुशी और दुख, बिछड़ने और मिलने, दिल टूटने और जोड़ने, हर मौके पर गुनगुनाना पसंद करते थे।
ऐसा नहीं कि हिंदी सिनेमा में प्रतिभाशाली गायकों की कोई कमी थी। केएल सहगल से लेकर मुकेश, मोहम्मद रफी, तलत महमूद और किशोर कुमार तक तथा सुरैया, शमशाद बेगम से लेकर गीता राय दत्त, आशा भोंसले और अन्य तक असाधारण गायकों की सूची बहुत लंबी है। लेकिन इन सबके बीच लता मंगेशकर एक ही थीं।
1970 के दशक के मध्य में संगीतकार आरडी बर्मन चाहते थे कि महबूबा (1976) फिल्म का गाना ‘मेरे नैना सावन भादो’ किशोर कुमार गाएं। इस गाने को समान धुन में लता मंगेशकर को भी गाना था। लेकिन किशोर कुमार ने पंचम दा से आग्रह किया कि वे पहले लता मंगेशकर की आवाज में गाना रिकॉर्ड करें और उसका ऑडियो उन्हें सुनने के लिए दें। किशोर कुमार ने एक हफ्ते तक लता के गाए गीत को सुना और उसकी रिहर्सल की, ताकि धुन में उतार-चढ़ाव की बारीकी को समझा जा सके। लता मंगेशकर के समकालीन किशोर कुमार खुद बेहद प्रतिभाशाली गायक थे और उन दिनों अपने करियर की ऊंचाई पर थे। लेकिन वे भी जानते थे कि राग आधारित इस गाने में लता मंगेशकर कोई गलती नहीं करेंगी।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं। अपने कैरियर के दौरान लता मंगेशकर ने हजारों राग आधारित गाने गाए। फिल्म वो कौन थी (1964) में गाया उनका गीत ‘लग जा गले’ सदाबहार है और आज भी लोग इसे पसंद करते हैं। उनके खजाने में इस तरह के अनेक गाने हैं जो संगीत प्रेमियों को आने वाले अनंत काल तक रोमांचित करते रहेंगे।
दशकों तक इंडस्ट्री पर लता मंगेशकर का प्रभाव इतना अधिक था कि उन पर हिंदी सिनेमा में ‘मंगेशकर मोनोपोली’ चलाने के आरोप भी लगे। आरोप लगाने वालों का कहना था कि वे अपने परिवार से बाहर किसी भी नई प्रतिभा को पनपने का मौका नहीं देती हैं। इस बात के पीछे आलोचक गीता राय दत्त, जगजीत कौर, सुमन कल्याणपुर, वाणी जयराम, सुलक्षणा पंडित, हेमलता समेत कई गायकों का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि लता के एक छात्र राज के चलते ये गायिकाएं हाशिए पर ही बनी रहीं।
उनका यह आरोप भी है कि लता की छोटी बहन आशा भोंसले को भी अपनी दीदी की छाया से बाहर निकलने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था। ओपी नय्यर एकमात्र संगीतकार थे जो लता को देवी नहीं मानते थे। उन्होंने उनकी बहन आशा को प्रमोट किया। कहा जाता है, एक बार उन्होंने कहा था कि आरडी बर्मन हमेशा अपनी सर्वश्रेष्ठ धुन लता से गवाते हैं। अगर ओपी नय्यर ने कभी ऐसा कहा भी हो तो उसके पीछे ठोस कारण है।
सच तो यह है कि ज्यादातर फिल्मकार और संगीतकार लता को छोड़कर अन्य किसी से गाना गवाना ही नहीं चाहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि दूसरा कोई उनके गाने के साथ न्याय नहीं कर पाएगा। उदाहरण के लिए राज कपूर फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम के टाइटल गीत के लिए महीनों तक लता के रजामंद होने का इंतजार करते रहे, लेकिन अन्य किसी गायक से उन्हें यह गीत गवाना गवारा नहीं था। लता और राज कपूर के बीच कुछ दिनों तक मनमुटाव था। तब फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े शोमैन ने लता को राजी करने के लिए गीतकार पंडित नरेंद्र शर्मा की मदद ली थी।
इसलिए यह कहना अनुचित होगा कि अपने शिखर के दिनों में लता ने एकाधिकार बना रखा था। सच तो यह है कि साथी गायकों के अधिकारों के लिए उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की थी। 1960 के दशक के पूर्वार्ध में साथी गायकों की लड़ाई का नेतृत्व किया था ताकि म्यूजिक कंपनियां प्रड्यूसर को जो रॉयल्टी दे रही थीं, उसका एक हिस्सा गायकों को भी दें।
जब मोहम्मद रफी ने उनकी मांग का समर्थन नहीं किया और कहा कि पारिश्रमिक लेने के बाद रॉयल्टी पर गायकों का कोई हक नहीं रह जाता है, तो लता ने कई वर्षों तक उनके साथ गाना बंद कर दिया था। यह बात 1960 के दशक की है जब मोहम्मद रफी पुरुष गायकों में शीर्ष पर थे। लता ने 1969 के बाद पार्श्व गायक के तौर पर फिल्म फेयर अवार्ड लेना भी बंद कर दिया था ताकि नए गायकों को प्रोत्साहन मिले। निस्संदेह वे बेमिसाल थीं। अगर पार्श्व गायिकी में कभी ‘मंगेशकर मोनोपोली’ जैसी कोई बात थी, तो वह हिंदी सिनेमा के लिए वरदान ही है।
अलविदा, लता दी!
(लेखक सर्वश्रेष्ठ सिनेमा आलोचक के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता हैं)