बिहार से निकली बात दूर तलक जाएगी | नीलाभ मिश्र
इन नतीजों का दूसरा असर निकट भविष्य में खुद भाजपा की अंदरूनी राजनीति में भी दिख सकता है। भले ही पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की कुर्सी तत्काल न जाए मगर आगामी संगठन चुनाव और नए अध्यक्ष के चुनाव के समय उन्हें अगला पूरा कार्यकाल शायद मुश्किल से ही मिले। एक और असर जो दिख सकता है वह यह कि पार्टी और सरकार में हाशिये पर पड़े नेताओं की भूमिका अहम हो सकती है। निकट भविष्य में यदि राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज जैसे नेताओं की अहमियत बढ़ जाए तो किसी को अचरच नहीं होना चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी के लिए तीसरा असर सहयोगी दलों के साथ संबंधों के संतुलन को लेकर होगा। नतीजे आते ही शिवसेना ने जिस तरह नीतीश की जमकर तारीफ की उसने इसका संकेत दे दिया है कि भाजपा के एनडीए सहयोगी अब गठबंधन में अपनी ज्यादा बड़ी भूमिका की मांग तेज करेंगे। एनडीए सहयोगी दलों के बीच आपसी संबंध पुनर्परिभाषित होंगे। अकाली दल, तेलुगु देशम पार्टी केंद्र में भी ज्यादा हिस्सेदारी की मांग कर सकते हैं। महाराष्ट्र में तो शिवसेना पहले ही भाजपा के साथ टकराव के रास्ते पर है ही।
फिलहाल भले ही नरेंद्र मोदी को कोई खतरा नहीं हो मगर देश की नीतियों के निर्माण में अब उन्हें विपक्ष को भरोसे में लेना ही होगा। एकतरफा तरीके से नीतियों का निर्माण करना अब सरकार के लिए संभव नहीं होगा। दूसरी बात, बिहार के नतीजों ने यह भी साबित कर दिया है कि वर्ष 2019 तक भाजपा को राज्यसभा में बहुमत नहीं मिलने वाला है इसलिए किसी भी कानून को अमली जामा पहनाने के लिए राज्यसभा में भाजपा को विपक्ष के भरोसे ही रहना होगा।
हालांकि सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अब आर्थिक सुधारों की गति धीमी हो जाएगी। इसका साफ संकेत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक दिन पहले दे चुके हैं जब उन्होंने कहा कि आर्थिक सुधार 100 मीटर की दौड़ की तरह नहीं बल्कि मैराथन दौड़ की तरह होते हैं। आगे भी सरकार उसकी तरह इस रास्ते पर चलेगी। हालांकि इसके लिए भी भाजपा को सामाजिक विभाजन फैलाने वाले अपने नेताओं पर लगाम लगानी होगी नहीं तो आर्थिक सुधार का मैराथन दौड़ भी बाधित होना तय हो जाएगा।
अब जरा केंद्रीय विपक्ष के नजरिये से इन फैसलों का विश्लेषण करें तो सबसे पहले तो यह उम्मीद बंधती है कि 80 के दशक की तरह जब कांग्रेस के खिलाफ एनटी रामाराव या फिर वीपी सिंह ने जैसे एक राष्ट्रीय मोर्चा खड़ा किया था उसी तरह भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के खिलाफ भी एक मोर्चा खड़ा हो सकता है। इसका संकेत लालू प्रसाद यादव ने यह कहकर दिया है कि बिहार विजय की रैली पटना में नहीं बल्कि बनारस में होगी जो कि प्रधानमंत्री मोदी का गढ़ है। यानी सांकेतिक रूप से विपक्ष अपनी एकजुटता की तैयारी शुरू कर चुका है। सवाल यह है कि इस मोर्चे में कांग्रेस की क्या भूमिका होगी? क्या वह इस मोर्चे को बाहर से समर्थन देगी या फिर इसमें शामिल होकर अपनी भूमिका निभाएगी? ऐसे में मोर्चे का नेतृत्व कौन करेगा? क्या राहुल गांधी इसकी अगुआई करेंगे या फिर सोनिया गांधी की तरह वह भी अपना मनमोहन किसी और को चुनेंगे? उनका मनमोहन कांग्रेस से होगा या फिर बाहर से? क्या वह मनमोहन नीतीश कुमार हो सकते हैं। जिस तरह नीतीश कुमार ने बिहार में लालू और कांग्रेस दोनों के बीच अपनी स्वीकार्यता बनाई क्या वैसे ही वह राष्ट्रीय राजनीति में भी कर सकते हैं? बिहार के चुनाव में कांग्रेस ने कई सीटों पर जद यू और राजद के सुझाव पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, क्या कांग्रेस हर उस राज्य में जहां उसकी स्थिति कमजोर है, स्थानीय क्षेत्रीय दलों के सुझाव पर ऐसा ही कदम उठाने को तैयार है? इन सभी सवालों पर टिका है केंद्रीय राजनीति में विपक्ष का भविष्य।
सबसे अंत में, इन नतीजों ने नीतीश कुमार के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी डाली है। चुनाव से पहले और बाद में भी, यह आशंका लगातार जताई जाती रही है कि लालू के साथ मिलकर सरकार चलाने का असर कहीं शासन पर तो नहीं पड़ेगा। नीतीश को इस आशंका को न सिर्फ निर्मूल साबित करना होगा बल्कि यह भी दिखाना होगा कि उनकी सरकार समाज के हर तबके को साथ लेकर चलेगी। इन नतीजों ने यह भी साबित किया है कि बिहार की जनता ने सांप्रदायिकता की राजनीति के बजाय विकास की राजनीति को तरजीह दी है और गुजरात के हवा-हवाई विकास के दावों की जगह नीतीश के ठोस जमीनी कामों पर उसने ज्यादा भरोसा किया है। ऐसे में इस भरोसे को कायम रखना नीतीश की बड़ी चुनौती होगी।