एक अच्छे मुसलमान की यादगार | सुहैल हाशमी
और फिर एक दिन वो नहीं रहा।
अब बस उसकी यादें रह गयीं थीं। उन्हें संजोकर रखना था। उन्हें अमृत्व प्रदान करना था, आखिर को वह पहला राष्ट्रपति था जिसे तुमने अपनाया था, तुम जनता से उसके जुडाव और उसकी दृष्टि की व्यापकता का बखान किया करते थे और अब इस समय जब सत्ता तुम्हारे हाथ में थी, तुम्हारे पास मौका था कि कुछ कर दिखाओ। यह जो कुछ नया कर दिखाने का अवसर था, बस एक संकेत, प्रतीकात्मक ही सही, तुम्हारी छवि बदलने में बहुत मददगार होता, तुम फिर घोषणा कर सकते थे, देखो हम अच्छे मुसलमानों की याद किस तरह मानते हैं।
जो अल्पसंख्यक हैं, खास तौर पर उनका सब से बड़ा हिस्सा, देश की आबादी का लगभग 14% आबादी, जरा सोचो हर 7 में से एक मतदाता, उनका जो रवैया तुम्हारी तरफ है वो शायद कुछ नर्म हो जाता, जब सब को साथ लेकर चलने की बात तुम करते तो वो इतना अविश्वास व्यक्त न करते। शायद उनके मन में यह उम्मीद जागती कि अगर वो तुम्हारे बताये हुए रास्ते पर चलने लगें तो उन्हें शांति से जिंदा रहने दिया जाएगा, वो खुद अपनी आंखों से देख लेते, वो जिन की आंखें देख पातीं कि किस प्रकार से तुम “अच्छे मुसलमानों” की यादों को, “अच्छे राष्ट्रभक्त मुसलमानों” की यादों को जिंदा रखते हो।
मगर यह तुम ने क्या किया?
यह माना कि उसकी बहुत सी योजनाएं कुछ ज्यादा ही हवाई थीं, अब सारे ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं उपलब्ध कराने की योजना भला कैसे लागू की जा सकती है, और वैसे भी कोई बड़ा निवेशक ऐसी योजनाओं में सरकार के साथ मिलकर पूंजी निवेश के लिए तैयार होने से रहा। यह माना कि प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक उपचार, दो ऐसी योजनाएं जिनमें उसकी विशेष रूचि थी, इन क्षेत्र में भी कुछ खास करने की गुंजाइश नहीं बची थी। अभी हाल ही में तो पुरानी सभी योजनाओं का नया नामकरण हुआ था, अब चंद ही महीनों में उनका पुनः नव-नामकरण तो नहीं ही किया जा सकता था, और जाहिर है नई योजनाएं आरंभ करना भी असंभव था, शिक्षा और स्वास्थ के बजट में तो पहले ही कटौती की जा चुकी थी। ले दे के हथयार बचे थे, मगर हथयारों का उत्पादन करने वाले सभी देशों को ‘भारत में बना कर विश्व में बेचो’ योजना के तहत पहले ही बजट से अधिक कोटे बांट दिए थे, तो यहां भी किसी नई पहल की संभावनाएं बची नहीं थीं।
माना कि हालात मुश्किल थे मगर कठिन घड़ियों में ही तो असली जीवट की पहचान होती है। यह एक ऐसा ही अवसर था, तुम उसकी याद में मौत की सजा के समापन की घोषणा कर सकते थे, प्रक्षेपण अस्त्रों का प्रेमी मौत की सजा का कड़ा विरोधी था और अगर तुम ने यह निर्णय ले लिया होता तो उसकी आत्मा को निश्चित ही बहुत शांति मिलती। अगर यह तुम ने कर लिया होता तो यह एक बहुत बड़ा कदम होता। सारे विश्व को चौंका देने वाला कदम। तुम ने वो कर दिखाया होता जिसे करने की हिम्मत न पाकिस्तान में है, न चीन में और न ही अमरिका में। मगर तुम तो पहले ही यह फैसला कर चुके थे के तुम्हें तो बहुतों को फांसी की रस्सी के दूसरे सिरे पर झूलते देखना है, आतंकवाद ऐसे ही थोड़े खत्म होगा। अभी तो कई सौ को मौत के घाट उतरना होगा तभी उन सभी बुरे लोगों को अक्ल आएगी जो अभी तक तुष्टिकरण के 6 दशकों के कारण खुले घूम रहे हैं। सो ले दे के तुम्हारे पास बस उसका नाम ही बचा था जिसे अमृत्व प्रदान किया जा सकता था।
उसके नाम को अमर करने के लिए फिर भी काफी कुछ किया जा सकता था, इसमें सब से आसान था कि एक सड़क उसके नाम की भी हो जाती। मगर उसके लिए सड़क तो बनानी ही पड़ती और नया कुछ निर्माण करना तो तुम्हारी परिपाटी का हिस्सा ही नहीं। तुम तो उस सब के खिलाफ हो जो पिछले 1000 साल में बना है। जो बन चुका है, किया जा चुका है, किया जा रहा है, जिसके बारे में दूसरे विचार कर चुके हैं, जो सपने दूसरे देख चुके हैं उस सब पर कब्जा कर लेना और फिर उसे अपना बना कर पेश करना ही तुम्हारी विशेषता है। अधिग्रहण की इस नीति का सब से बड़ा फायदा यह है के बिना रंग और फिटकरी लगाये रंग चोखा आता है। और अंतत: ऐसा ही तुम ने किया भी।
तो उसके नाम को कालजयी करने के लिए अब तुम्हें सिर्फ एक साईन बोर्ड, एक नाम पट्टे की जरुरत थी जिस पर उसका नाम लिखा जा सके और इस नश्वर संसार में अगर कोई चीज चिरस्थायी है तो सड़कों के नाम के पट्टे हैं। तो फिर एक सड़क का पुन: नामकरण करना था सड़क के एक नाम के पट्टे पर एक दूसरा नाम लिखना था, जो भी पहले था उसे मिटाकर अब उसका नाम लिखना था और ये तुमने किया, दिखावे का सब से घटिया और घटिया राजनीति का सब से बढ़िया उदाहरण।
तुम एक नई सड़क भी तो बना सकते थे, किसी ऐसी जगह जहां सड़कों की जरुरत है। किसी ऐसे इलाके में जो प्राथमिक स्वास्थ सेवाओं से मीलों दूर है। ऐसे इलाके जहां दसरथ मांझी जैसे लोग जीते और मरते हैं। जीते कम और मरते ज्यादा हैं क्योंके किसी को उनकी परवाह नहीं है। तुम कहते थे कि यह ऐसा राष्ट्रपति है जिसे ऐसे लोगों की फिक्र है, तो जाओ वहां जहां ऐसे लोग रहते हैं और उसके नाम पर कुछ ऐसा करो जो उसे कालजयी बना दे। ऐसा क्यों नहीं करते कि प्राथमिक स्वास्थ सेवाएं प्रदान करने के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाओ, और वास्तव में ऐसी सेवाएं प्रदान करो जिन से तुम्हारे भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रसन्न होते। यह निश्चित करो कि हर आबादी के पास, इतने पास कि वहां तक इंसान पैदल जा सके, एक प्राथमिक स्वास्थ केंद्र हो। वह केवल भवन न हो जिसे बनाने में ठेकेदार और उसके ऊपर बाकी सब का भला हो, बल्कि ऐसा केंद्र बने जहां डॉक्टर हों, कम से कम दो, जिन में एक महिला डॉक्टर हो, एक नर्स हो, दवा देने वाला पट्टी करने वाला हो, इतना ही कर दो उसका नाम अमर हो जायेगा।
पर तुम्हारे पास तो ऐसी सड़कों और ऐसे प्राथमिक स्वास्थ केन्द्रों के लिए धन ही नहीं है, तुम्हारे पास तो बस कुछ खुले पैसे भर हैं। बस इतने कि कालिख का एक छोटा डब्बा और एक इंच का एक ब्रश खरीद सको, एक नए नाम पट्टे के लिए भी तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं। हम तुम्हारी मजबूरी समझते हैं, तुम अपना भरसक यतन कर रहे हो, इतने कठिन हालात में इस महान यादगार को वास्तविक आकार देने की तुम्हारी पहल को, तुम्हारे इस महान कृत्य को, आने वाली पीढियां कृतज्ञता से याद करेंगी।