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03 June 2017

किसान हित के प्रतीक पुरुष

'मेरे सपनों की कांग्रेस कुछ समय पहले ही मर चुकी है। इसकी हत्या हमने अपने ही हाथों से की थी। आज केवल मैं ये देखता हूं कि इसकी लाश मेरी आंखों के सामने से गुजर रही है।’ यह पत्र चौधरी चरण सिंह ने, जिनकी तीसवीं पुण्यतिथि कुछ ही दिन पहले 29 मई को बीत गई, 9 नवंबर, 1951 को लिखा था। उत्तर प्रदेश कांग्रेस संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष आचार्य जुगल किशोर को संबोधित यह पत्र कभी भेजा नहीं गया। सन 1983 में चरण सिंह ने अपनी सभी फाइलें प्रसिद्ध अमेरिकी राजनीतिशास्त्री पॉल आर. ब्रास को सौंप दी थीं जिनमें से एक फाइल में यह पत्र मिला। संभवत: वे उन अंतिम नेताओं में से थे जो विभिन्न विषयों पर बहुत सावधानीपूर्वक फाइल बनाकर रखते थे, नियमित रूप से महत्वपूर्ण नेताओं को पत्र लिखते थे और आने वाले हर पत्र का उत्तर देते थे। इस पत्र से स्पष्ट है कि आजादी मिलने के कुछ समय के भीतर कांग्रेसजन किस तरह की निराशा का सामना करने लगे थे। पॉल ब्रास ने इन फाइलों और अपने स्वतंत्र शोध के आधार पर उत्तर भारत की राजनीति पर तीन खंडों में एक वृहत अध्ययन प्रस्तुत किया है जिसके केंद्र में चरण सिंह हैं। सेज पब्लिकेशंस द्वारा प्रकाशित इस अध्याय का पहला खंड अंग्रेजी में 2011 में 'एन इंडियन पॉलिटिकल लाइफ : चरण सिंह एंड कांग्रेस पॉलिटिक्स, 1937-1961’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था और अब तक शेष दो खंड भी प्रकाशित हो चुके हैं। हाल ही में सेज ने ही पहला खंड हिन्दी में 'चरण सिंह और कांग्रेस राजनीति : एक भारतीय राजनीतिक जीवन, 1937 से 1961 तक’ शीर्षक से प्रकाशित किया है और प्रभात शुंगलू ने इसका अनुवाद किया है।

चौधरी चरण सिंह उन नेताओं में से थे जिन्हें उत्तर भारत के गांवों में रहने वाले मझोले और गरीब किसान, पिछड़ी जातियों के लोग जितना प्यार करते थे उतना ही शहरों में रहने वाले मध्यम और उच्च वर्ग के लोग नफरत। लेकिन उनके कठोरतम शत्रु भी कभी उनके आचरण और चरित्र पर छींटाकशी नहीं कर पाए क्योंकि अपने राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही चरण सिंह ने यह सिद्ध कर दिया था कि अत्यधिक महत्वाकांक्षी होने और राजनीतिक गुटबाजी में माहिर होने के बावजूद वे सिफारिश, खुशामद और रिश्वत के सख्त खिलाफ हैं और राजनीति उनके लिए अपने स्वप्नों को साकार करने का माध्यम है, जेब भरने का नहीं। आज जब अधिसंख्य नेता भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं और कुछ तो जेल की हवा भी खा चुके हैं, चरण सिंह सार्वजनिक जीवन में शुचिता के प्रतीक के रूप में याद किए जाएंगे। जब वे उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री थे, तब उन्होंने अपने सबसे छोटे भाई मान सिंह को झिड़क दिया था और उनके तबादले के बारे में संबंधित मंत्री चंद्रभानु गुप्त से बात करने से साफ इनकार कर दिया था। जब एक बक्शी (वेतन जारी करने के लिए जिम्मेदार अधिकारी) के भ्रष्टाचार के आरोपों से बरी होने के खिलाफ मेरठ जिले में सफाई कर्मचारियों ने आंदोलन किया, तो चरण सिंह ने उनका साथ दिया, क्योंकि बक्शी के खिलाफ हुई जांच की निष्पक्षता और सच्चाई पर आम तौर पर लोगों को यकीन नहीं था।

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यह सही है कि एक मुफस्सिल कस्बे के एक वकील से ऊपर उठ कर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने वाले चौधरी चरण सिंह का विजन बहुआयामी या विराट नहीं था। लेकिन आज जब राजनीतिक नेताओं में कोई विजन ही नजर नहीं आता, तब उनकी याद आना स्वाभाविक है क्योंकि उनमें सीमित ही सही लेकिन भारत के भविष्य और उसमें कृषि क्षेत्र की भूमिका के बारे में एक विजन अवश्य था। कृषि क्षेत्र की हालत और भूमि सुधार उनकी बौद्धिक चिंताओं के केंद्र में थे और इन विषयों पर चरण सिंह ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखीं। उत्तर प्रदेश में हुए भूमि सुधारों और जमींदारी उन्मूलन में उनका अविस्मरणीय योगदान था। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय उनकी अंतिम पुस्तक 'इकनॉमिक नाइटमेयर ऑफ इंडिया : इट्स कॉज एंड क्योर’ (भारत का आर्थिक दु:स्वप्न : इसके कारण और निदान) है जो सन 1981 में प्रकाशित हुई थी। सन 1959 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अपनाई जा रही नीतियों को चुनौती देते हुए एक पुस्तिका लिखी थी जो बड़े कृषि फार्म के स्थान पर छोटे कृषि फार्म की वकालत करती थी। इस तथ्य से यह भी पता चलता है कि उस समय तक कांग्रेस में इतनी आंतरिक शक्ति बची हुई थी कि उसके प्रमुख प्रांतीय नेता केंद्रीय नेतृत्व से खुलेआम मतभेद व्यक्त कर सकें।

चरण सिंह आर्यसमाज और स्वामी दयानन्द से बहुत प्रभावित थे। उनके राजनीतिक विरोधियों और मीडिया ने उनकी छवि किसान नेता और आर्थिक विचारक के बजाय जातिवादी जाट नेता के रूप में उभारी जबकि वैचारिक रूप से वे जातिप्रथा के खिलाफ थे और जाति-आधारित भेदभाव दूर करने में आर्यसमाज द्वारा अदा की गई भूमिका के प्रशंसक थे। लेकिन संभवत: आर्यसमाज के प्रभाव के कारण ही आजादी मिलने के ठीक पहले और बाद के कुछ वर्षों तक भी उनमें मुस्लिम-विरोधी भावना अक्सर जोर मारती रही, जैसा कि सन 1946 में गढ़ मुक्तेश्वर में हुए सांप्रदायिक दंगों के समय खुलकर उजागर हुआ। उच्च सवर्ण और शिक्षित लोगों द्वारा 'जाट’ शब्द को मखौल उड़ाने और अपमान करने के लिए इस्तेमाल किए जाने का उनके दिल पर जरूर गहरा असर पड़ा था और नेहरू ने जब एक बार असावधानीवश उनके 'जाटपन’ का जिक्र किया तो चरण सिंह जीवन भर इसे भूल नहीं पाए। नेहरू परिवार और कांग्रेस के साथ उनके खिंचाव भरे रिश्ते कायम करने में इस तथ्य का भी योगदान रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैंराजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं।)

 

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TAGS: chaudhary charan singh, indian farmer, farmer leader, charan singh and congress politics, Paul R. Brass
OUTLOOK 03 June, 2017
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