मेरी आजादी मेरा गौरव है
भारत का सर्वश्रेष्ठ लेकिन उपेक्षित संस्थान एफटीआई स्वतंत्रता की प्रतिमूर्ति है। सहज ही। शायद इसलिए अपनी शुरुआत से ही यह सरकार के पैरों का कांटा रहा है। सरकारें नियंत्रण चाहती हैं और कलाकारों को यह पसंद नहीं है।
कोई स्वतंत्रता के बारे में कैसे लिखे ? पाबंदी, सीमाओं, कैद, बंदिशों के बारे में लिखना तो आसान है पर स्वतंत्रता के बारे में ? यह तो एक ऐसी अवस्था है जिसे महसूस ही किया जा सकता है लेकिन बताया नहीं जा सकता, कम से कम मैं तो अपने आपको बताने में असमर्थ पाती हूं। शायद इसका कारण यह है कि मैं इसे यहां गहराई में महसूस करती हूं, अपने आप में यह एक ऐसा संपूर्ण अनुभव है जिसे किसी भी शब्द या व्याख्या की कोई जरूरत नहीं।
और वह स्वतंत्रता मेरे साथ क्या करती है ? वह मेरे दिमाग को खोलती है, मेरे दिल को खोलती है। जिस वजह से मै अपनी गहराई में डूबकर अपने अंदर मौजूद रचनात्मक क्षमता को खोज सकती हूं। फिर मैं अपने आपसे सवाल करती हूं, दूसरों से सवाल करती हूं जो असुविधाजनक पर आवश्यक होते हैं। सवाल हमें मुक्त करते हैं, जवाब हमेशा नहीं करते हैं। स्वतंत्रता की उन्मुक्ता में मैं खुद की सच्चाई पाती हूं। अपने अंदर की उस जगह से जब मैं कोई रचना करती हूं तो इस दुनिया में कुछ बदलने लगता है। हम सब के अंदर कुछ बदलाव होता है, यह वही परिवर्तन है जिसके लिए हम सब जीते हैं।
मैं यहां कलाकार बनने के लिए पढ़ने वाली एक छात्रा हूं। पैसा उतना ही महत्व रखता है जितना जीने के लिए जरूरी होता है। मैं घर की, कार की और विदेश यात्रा की इच्छा नहीं रखती हूं, वह बाद में हो सकता है, लेकिन हां फिल्म समारोहों के लिए पैसों की जरुरत है जिनका न के बराबर होना तकलीफ देता है। न ही मैं फकीर हूं और न ही मैं कोई वामपंथी हूं, न मैं बागी हूं, लेकिन अगर ऐसी व्यवस्था बना दी जाए जिससे मैं फिल्म निर्माण नहीं सीख सकती तो मैं सब कुछ हो सकती हूं ! मुझे सिर्फ सीखने की इजाजत चाहिए और कुछ नहीं और एफटीआईआई मुझे इसकी इजाजत देता है।
लेकिन 1997 से उन्होंने मेरे सर पर अर्थव्यवस्था की तलवार लटका रखी है। मुझे रुपये की शक्ल में अच्छा खासा मुनाफा उन्हें वापस देना है। मुझे यहां मिली आजादी के लिए पैसे चुकाने होंगे वरना मुझसे यह आजादी वापस ले ली जाएगी। अपनी स्वतंत्रता बरकार रखने के लिए मुझे उनके खाते के मुनाफे वाले हिसाब में दिखना होगा। बोस ने कहा था, ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’। सरकारों ने इस नारे को अपना लिया और कहा ‘तुम मुझे पैसे दो मैं तुम्हें तुम्हारी आजादी दूंगा’। आर्थिक युग, आह ?
जब मैं इनकार करती हूं तो वे हमला करते हैं। फिर मेरे पास वापस हमला करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। और तब वे मेरा पक्ष सुनने के बजाय योजना बनाकर मुझ पर विद्रोही होने का इल्जाम लगाते हैं। तब मैं विरोध जारी रखने के अलावा और क्या कर सकती हूं ? तुम अपने बही खाते के लिए लड़ रहे हो, मैं जिंदा रहने के लिए लड़ रही हूं।
तुम्हारी बही खाते की तलवार के बगैर मैं बिना बोझ की होती हूं और अपनी दौड़ लगाने के लिए आजाद होती हूं। हर चीज में तुम्हें मेरी मदद करनी थी। यहां मैं जो चाहती हूं वह पहन सकती हूं, जो महसूस करती हूं वह कह सकती हूं, मैं यहां पर वैसे ही व्यवहार कर सकती हूं जैसा मैं करती हूं क्योंकि यह मुझे खुद को इस लायक करने की जिम्मेदारी देता है कि मैं दुनिया को पैसों के मुनाफे से कहीं ज्यादा लौटा सकूं। इस मुनाफे के लिए मेरे सर पर जब तुम तलवार लटकाते हो तो तुम मुझे भ्रष्ट बना देते हो। तुम मेरा रास्ता रोक कर मुझे बंधक बना लेते हो। जबकि यह जगह मुझे बैठने और सोचने के लिए कहती है। अपने लिए सोचना। शायद यही वह बात है जो तुम्हें डराती है, क्या यह बात नहीं है?
चूंकि तुम अमूर्तदाय नहीं समझते हो तो मुझे मूर्त तथ्यों के बारे में बोलने दो। मेरे स्टूडियो दिन रात खुले रहते हैं और मेरे कर्मचारी मुझ पर इतना विश्वास करते हैं कि जब भी मैं काम करना चाहती हूं तो बिना किसी खास-देख-रेख के उन्हें मेरे हवाले कर देते हैं। मेरे सभी विभागों के पास उपकरण हैं जो वे मुझे कोर्स के बाहर भी अपने हुनर का अभ्यास करने के लिए देने की इच्छा रखते हैं। मेरे सभी शिक्षक मुझे अपनी अपनी क्षमताओं और विशेषज्ञता से ऊपर उठकर सहायता देना चाहते हैं, क्योंकि हम दोनों ही अर्थशास्त्र से ऊपर उठकर फिल्म निर्माण में विश्वास करते हैं। यहां छात्रों के बीच छोटे-बड़े जैसी कोई बात नहीं है, सभी एक दूसरे से सीखते हैं और हर कोई यहां जानकारियां बांटने के लिए उतावला रहता है। (क्या आपको पता था कि 1971 के हड़ताल के दौरान सीनियर छात्रों ने विजडम वृक्ष के नीचे जूनियर छात्रों की कक्षाएं ली थीं ताकि पढ़ाई के साथ संपर्क बना रहे?)। मैं आधी रात के अंधेरे में बिना किसी डर के पूरे कैंपस में घूम सकती हूं और यह मेरे अपने विकास के लिए एक अद्भुत करामाती बात है। तुम बाहर मुझे इस तरह की दुनिया देने लायक कभी नहीं रहे और अब तुम इसे भी छीन लेना चाहते हो। अच्छा है।
भारतीय फिल्म और टेलीवीजन संस्थान एक जीवनशैली है। यह सच है कि इसमें अनगिनत समस्याएं हैं और यह बाहर की दुनिया के साथ चलते हुए बदलाव करने से इनकार करता है। लेकिन शायद ऐसा इसलिए है कि यह किसी अच्छे काम के लिए जाना जाता है, ऐसा कुछ जो बिल्कुल नहीं बदला जाना चाहिए अगर हमें बाहर की दुनिया में आ रहे बदलावों का सामना करना है। अपने अर्थशास्त्र की तलवार से इसे खत्म कर दो और उसके बदले में एक चमकीली पतली सी खालीपन से भरी हुई को संरचना रख लो तो तुम मेरी स्वतंत्रता का कत्ल कर रहे हो समाज के हर कलाकार का भी कत्ल।।
मेरी स्वतंत्रता मेरा अभिमान है। और इसी कारण मैं एफटीआईआई के लिए लड़ रही हूं।
(फातेमा कागावाला एफटीआईआई में दूसरे वर्ष की छात्रा हैं।)