कलाम, याकूब और औसत मानस का मानचित्र
महामहिम कलाम और मुजरिम मेमन के दो जीवन-मृत्यु थिएटर का दर्शक वर्ग एक। दोनों नाट्यों के प्रति दर्शकों की दो प्रतिक्रियाओं के जरिये की हम इन पंक्तियों में हम इस दर्शक वर्ग की मानसिकता की पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं। कोई दर्शक किसी थिएटर को पसंद करता है और किसी की थू-थू तो अपनी मानसिकता के हिसाब से। इन पंक्तियों में हम यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि अब्दुल कलाम और याकूब मेमन के प्रति भारतीय राज्य प्रतिष्ठान और उसे प्राण-प्रतिष्ठित करने वाले मुख्यधारा मध्यवर्गीय मानस की चेतना का मानचित्र और वैचारिक गठन क्या है।
चूंकि कलाम साहब के अंतिम संस्कार याकूब मेमन की फांसी के दिन हुए, जिसके बारे में न्यायपालिका और राष्ट्रपति के निर्णय की प्रतीक्षा अंतिम क्षण तक रहने के कारण सस्पेंस बना रहा, हम अपनी पड़ताल की कुंजी के तौर पर पूर्व राष्ट्रपति के मृत्युदंड के प्रति रुख का इस्तेमाल करते हैं। राष्ट्रपति पद से हटने के बहुत बाद कलाम साहब ने मीडिया साक्षात्कार में पूछे जाने पर कहा कि उनके हिसाब से प्राचीन सभ्यता और आधुनिक नैतिक मूल्य बोध वाले राष्ट्र में मृत्युदंड नहीं होना चाहिए। लेकिन राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने एक बालिका की जघन्य हत्या और बलात्कार के दोषी धनंजय की दया याचिका नामंजूर कर दी थी। उनकी प्रशंसा में कहा जाता है कि राजधर्म के पालन में उन्होंने निजी राय काे तरजीह नहीं दी। लेकिन राजधर्म में, जो भारतीय राज्य प्रतिष्ठान के लिए भारत का संविधान होना चाहिए, कहीं नहीं आता कि राष्ट्रपति को हर हाल में खास तरह के जघन्य अपराधों में दया याचिका अस्वीकार कर मृत्युदंड कायम रखना ही है।
संविधान दया याचिका स्वीकार करने न करने का निर्णय राष्ट्रपति और उन्हें दिशा निर्देश करने वाली मंत्रिपरिषद के विवेक पर छोड़ता है। यानी, पारंपरिक सांस्कृतिक शब्दावली में कहें तो, ‘राजधर्म’ भी कुछ मामलों में स्वविवेक यानी ‘स्वधर्म’ पालन करने की जगह देता है। तो यह ‘राजधर्म’ नहीं, राजधर्म की प्रचलित अवधारणा थी जिसे कलाम ने स्वविवेक यानी ‘स्वधर्म’ पर तरजीह दी। संविधान कहता है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की राय मानने को बाध्य है लेकिन संविधान यह भी कहता है कि राष्ट्रपति कोई भी सलाह मंत्रिमंडल को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है। यानी इस तरह वह मंत्रिमंडल को राय बदलने के लिए अभिप्रेरित करने की कोशिश कर सकता है, मंत्रिमंडल फिर नहीं माने तो राष्ट्रपति उसकी राय से निर्णय लेने को बाध्य होगा। यानी तब वही ‘राजधर्म’ होगा, ‘स्वधर्म’ के ऊपर वरीयता प्राप्त - राष्ट्रपति पद पर किसी व्यक्ति के रहते। हालांकि कुछ राष्ट्रपतियों ने मृत्युदंड के मसले पर संविधान के सृजनात्मक पालन में अपने नैतिक मूल्यबोध के अनुरूप न तो दया याचिका स्वीकार की, न रद्द की बल्कि उसे लंबित रखा, जिस रचनात्मक अभिप्रेरणा का तत्कालीन सरकारों ने सम्मान रखा।
कलाम ने इन संवैधानिक छूटों से बिल्कुल परहेज किया, अपनी निजी राय पूरी तरह दबाकर। क्या प्रभु और प्रचलित विचारधारा से हर हाल में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के ‘आपद्धर्म’ यानी स्व उन्नति के लिए विपदा टालने की मध्यवर्ग-प्रचलित प्रवृत्ति उनकी मध्यवर्ग में लोकप्रियता की एक वजह थी ? कुछ अपराधों के लिए मृत्युदंड यानी आंख के बदले आंख जैसी बदले की भावना को ही न्याय मानने की प्रभु अवधारणा अपनाना ही राजधर्म है, यह याकूब मेमन की क्यूरेटिव याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति दवे ने जोर देकर कहा और मामला सुनते वक्त बारंबार भारतीय संविधान की बजाय मनुस्मृति को उद्धृत किया। यानी मृत्युदंड समर्थक मानसिकता की चौहद्दी में एक आधुनिक, उदार और मनुष्यमात्र के प्रति समदर्शी न्यायबोध की चेष्टा करता भारतीय संविधान नहीं, विषमता आधारित समाज की संकीर्ण और विषम नैतिकता तथा न्यायबोध से उपजी मिथकीय ‘स्मृति’ से गठित मनुस्मृति है।
इस मध्यवर्ग- प्रचलित मानसिकता से तालमेल बिठाकर चलने वाला व्यक्ति मध्यवर्ग में लोकप्रिय नहीं होगा तो क्या। यह मध्यवर्ग एक तरफ मिथकीय स्मृति के स्वर्णयुग में गौरव ढूंढता है तो दूसरी तरफ आसानी और कम सृजनात्मक परिश्रम से प्राप्य स्व उन्नति की फलप्रद विधाओं में। मसलन, समाज में अपनी प्रतिष्ठा वह डॉक्टर बन कमाकर जीवन को सुविधा संपन्न बनाने में समझता है, चिकित्सा विज्ञान की तात्विक चुनौतियों से जूझकर नए-नए मौलिक उपचार ढंूढने में नहीं। भविष्य में दौलत, शोहरत और सुविधाओं की गारंटी अनिश्चित है, अभी तो पगार या आमदनी वही रहेगी, फिर क्यों बौद्धिक श्रम करना, यह मानसिकता इतना भी समझने का श्रम नहीं करती कि विज्ञान क्या है और टेक्नोलॉजी क्या। वह नहीं जानती कि विज्ञान प्रकृति के नियमों और सिद्धांतों की खोज है और टेक्नोलॉजी उन नियमों सिद्धांतों के मनुष्यानुकूल इस्तेमाल करने के तरीकों को उपकरणों में ढालना है। इसलिए उसकी नजर में हर सफल और नामी इंजीनियर, डॉक्टर वैज्ञानिक है। कलाम एक सफल इंजीनियर थे जिन्होंने ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ के लिए टेक्नोलॉजी विकसित करने में योगदान दिया। टेक्नोलॉजी को प्रचलित भारतीय मध्यवर्गीय अवधारणा विज्ञान समझती है इसलिए टेक्नोलॉजी का राष्ट्रवाद से सफल मेल किसी शख्स को मध्यवर्ग में लोकप्रियता दिलाने का सर्वश्रेष्ठ आधार तैयार करता है।
हमने ऊपर कहा है कि कैसे स्व उन्नति के लिए प्रभु और प्रचलित विचारधारा से तालमेल की बात वर्तमान भारतीय मध्यवर्ग के मानसिक गठन में महत्वपूर्ण है। टेक्नोलॉजी में कुशलता यदि उसे अपनी विषम परिस्थितियों से पड़ोसी की तुलना में उन्नति करने का रास्ता देती है तो राष्ट्र की हैसियत भी पड़ोसी और प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों की तुलना में बढ़ाती है। इसलिए टेक्नोलॉजी प्रशिक्षित नए भारतीय मध्यवर्ग में कलाम को इतनी लोकप्रियता मिली।
यह मध्यवर्ग ज्यादातर सवर्ण और युवा है। अक्सर उसकी पूर्ववर्ती पीढ़ी उसकी तुलना में कम साधन और सुविधासंपन्न थी। यह युवा मध्यवर्ग उस सीमित माहौल से निकलकर दुनिया देख रहा है। वह कलाम के साथ तादात्म्य महसूस करता है क्योंकि उन्होंने भी उस सीमित माहौल से निकलकर ‘दुनिया’ देखी लेकिन अंत तक अपनी सरलता बनाए रखी। यह युवा मध्यवर्ग दुनिया में शक्ति के प्रतीक भी अब प्रत्यक्ष देख रहा है- तेज वाहन, त्वरित संचार, मिसाइल, परमाणु बम। शक्तिशाली पश्चिम में आधुनिक मानवतावादी मूल्यबोध, न्यायबोध और सौंदर्यबोध की उपलब्धियां अंदरूनी चेतना और सामाजिक तानेबाने का अंग होने का कारण उतने तमाशाई ढंग से व्यक्त नहीं होतीं जितने शक्ति और हैसियत के प्रतीक। मानवीय चेतना की उपलब्धियों के बावजूद पश्चिमी विश्व अभी शक्ति और हैसियत के मद से मुक्त नहीं हुआ है। एक विषमता पूर्ण भारतीय समाज का युवा मध्यवर्ग पश्चिम के हिंसक शक्ति और हैसियत के प्रतीकों से ज्यादा आकर्षित होता है। उसका राष्ट्रवाद उसे अपने ‘देश’ को इन्हीं आक्रामक प्रतीकों से सुसज्जित देखना चाहता है। मिसाइलमैन कलाम की लोकप्रियता इस लोकमानस की उपज है।
एक विषमतापूर्ण देश-समाज का युवा विषम प्रतियोगिता में स्व उन्नति के लिए आक्रामक प्रतियोगी भावना विकसित कर लेता है। इसलिए हम महानगरों में रोड-रेज यानी सड़क-आक्रोश के कारण इतनी मध्यवर्गीय हिंसा देखते हैं। इस युवा मध्यवर्ग का राष्ट्रवाद भी इसलिए इतना आक्रामक है। व्यक्ति, वर्ग या राष्ट्र में आक्रामक प्रतियोगी भावना उसे स्वनिष्ठ बनाती है और उदारता की जगह संकीर्णता पैदा करती है। समदर्शी न्याय की जगह बदले की भावना को ही न्याय समझने की भूल पैदा करती है। यहां कलाम नहीं, याकूब मेमन और उसकी फांसी का मसला आ जाता है।
न्याय के साथ सही साक्ष्य आधारित कानूनी प्रक्रिया जुड़ी है। इसका बोध न होने के कारण औसत भारतीय युवा मध्यवर्गीय मानसिकता मानती है कि मुंबई बम धमाकों जैसे जघन्य आतंकी कृत्य का बदला लेना जरूरी है, इसलिए याकूब को अपने भाई टाइगर मेमन पर आरोपित अपराधों के बदले तुरत फांसी दो, भले ही निर्णीत दंड भारतीय कानून सम्मत या नैसर्गिक न्याय सम्मत है या नहीं, इसके संपूर्ण निपटारे पर सवाल कायम हों। याकूब मेमन ने भारतीय कानूनी और खुफिया एजेंसियों से सहयोग किया, यह बात खुफिया एजेंसी रॉ के प्रमुख बी. रमण अपनी मृत्यु के पूर्व बाद के दिनों के लिए लिख कर छोड़ गए। न्याय बोध ने उनके अंतःकरण को कचोटा। कई कानूनविदों ने याकूब के मामले में अदालती फैसले के कानून सम्मत और न्यायसम्मत न होने का सवाल उठाया है। मृत्युदंड गलत दे दिया जाए तो मृत्यु के बाद अभियुक्त के लिए न्याय का अवसर नहीं रहता, इस न्यायबोध के आधार पर दुनिया में 140 देश, जिनमें वे कई पश्चिमी देश भी शामिल हैं जिनकी शक्ति की चकाचौंध से भारतीय मध्यवर्ग और शासकवर्ग चुंधियाया हुआ है, मृत्युदंड समाप्त कर चुके हैं। भारत उन बहुसंख्यक सभ्य देशों में नहीं है। जिन्हें यह बात कचोटे भी वे अपनी भलाई के लिए नाहक पंगा क्यों लेना के सिद्धांत पर चलेेंगे और ‘आपद्धर्म’ निभाएंगे।