न्यायिक नियुक्तियां - पारदर्शिता हो, आजादी भी
एनजेएसी के तहत न्यायाधीशों के चयन और तबादले में कार्यपालिका के पास ज्यादा बड़ी भूमिका होगी, इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए अच्छा शगुन नहीं माना जा सकता। इसे भोलेपन में न लें। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का गठन, जैसा कि 99वें संविधान संशोधन विधेयक में उल्लेखित है, न्यायपालिका के क्षेत्र में कार्यपालिका की घुसपैठ है। जजों के चयन और तबादले के अधिकार से लैस एनजेएसी, उस कॉलेजियम व्यवस्था की जगह लेगा जो पारदर्शिता के अभाव जैसी कमजोरियों के कारण मुश्किल से चल पा रही है। हालांकि पुरानी व्यवस्था की कमजोरियों को दूर करने की बजाय ऐसा लगता है कि नई व्यवस्था में कार्यपालिका को बहुत अधिक अधिकार दे दिए गए हैं।
इसके कई अवांछित परिणाम होंगे जिनमें सबसे पहला है न्यायपालिका की आजादी का हनन, जो हमारे लोकतंत्र का महत्वपूर्ण स्तंभ है। सबसे पहले पृष्ठभूमि। संविधान का अनुच्छेद 124 मूल रूप से यह कहता है, 'सुप्रीम कोर्ट के हर जज की नियुक्ति राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के संबंधित जजों से सलाह-मशविरे से करेंगें जिसमें भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) से हमेशा सलाह ली जाएगी। जजों की नियुक्ति एवं तबादले में किसकी चलेगी इसे लेकर न्यायपालिका और कार्यपालिका में 1980 के दशक से ही जोर-आजमाइश चल रही है।
तीन महत्वपूर्ण फैसले मायने रखते हैं। एसपी गुप्ता केस (1981) ने साफ किया कि भारत के प्रधान न्यायाधीश की सिफारिश राष्ट्रपति ठोस वजह होने पर ठुकरा सकते हैं, इससे कार्यपालिका का पलड़ा भारी हो गया। वर्ष 1993 में न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में नौ जजों की पीठ ने फैसला दिया कि जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका का बराबर का हक नहीं हो सकता। यहां से कॉलेजियम व्यवस्था की शुरुआत हुई। इसके बाद 1998 में न्यायमूर्ति एसपी भरूचा की अध्यक्षता में नौ जजों की पीठ ने इस मामले में न्यायपालिका की सर्वोच्चता फिर से स्थापित कर दी।
कॉलेजियम व्यवस्था, जिसे संविधानिक वैधता हासिल नहीं थी, प्रधान न्यायाधीश और चार अन्य वरिष्ठ जजों को मिलाकर काम करती है और सभी उच्च न्यायपालिका के सभी नियुक्तियों और तबादलों पर फैसला लेती है। इसके बावजूद कॉलेजियम व्यवस्था को इतनी कड़ी आलोचना नहीं झेलनी पड़ती यदि नियुक्तियां पारदर्शी तरीके से होतीं। इसके खिलाफ आरोप है कि इसकी पूरी कार्यवाही बंद कमरे में होती है और अधिकतर वरिष्ठ जजों और दुर्भल रूप से जाने-माने वकीलों के विचार सुने जाते हैं जिससे पक्षपात की बू आती है। कॉलेजियम के पास सीमित संचालन सुविधाओं को देखते हुए यह सवाल भी उठता है कि गृह मंत्रालय के पास विचार के लिए नामों को भेजने से पहले पर्याप्त कवायद की भी गई है या नहीं।
एनजेएसी, हालांकि प्रकट रूप में प्रक्रिया को बेहतर करने का प्रयास दिखता है, मगर यह कार्यपालिका की सर्वोच्चता बनाने का प्रयास ज्यादा है। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ इसपर विचार कर रही है। एनजेएसी के पक्ष में जो मुख्य तर्क है वह यह कि इसमें कानून मंत्री के रूप में कार्यपालिका का सिर्फ एक प्रतिनिधि है और इसमें जजों का बहुमत है। वर्ष 2014 का एनजेएसी कानून कहता है कि इस आयोग छह सदस्यों में एक भारत के प्रधान न्यायाधीश होंगे जो कि इसके अध्यक्ष भी होंगे, दो अन्य सदस्य सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज होंगे, एक भारत के कानून मंत्री होंगे और शेष दो देश की जानी-मानी शख्सियतें होंगी।
इसलिए इसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता का किसी तरह से हनन नहीं होगा और हर मामले में जजों की ही बात मान्य होगी। मगर क्या सचमुच ऐसा है? निश्चित रूप से जानी-मानी शख्सियतों की परिभाषा तय नहीं है। यह किसी भी क्षेत्र से कोई भी शख्स हो सकता है और एक वकील के हालिया कटु व्यंग्य पर ध्यान दें तो, बाबा रामदेव भी हो सकते हैं। एक क्षण को मान लें कि ये दोनों शख्स न्यायविद हों तब भी उनकी निष्पक्षता संदिग्ध रहेगी। ऐसा इसलिए क्योंकि इन दो शख्सियतों का चयन करने वाले तीन सदस्यीय पैनल में दो राजनीतिज्ञ, प्रधानमंत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल होंगे।
तीसरे सदस्य और पैनल के अध्यक्ष भारत के प्रधान न्यायाधीश होंगे। इस पैनल में राजनीतिज्ञों के बहुमत के बीच यह स्पष्ट नहीं है कि यदि किसी नाम पर सीजेआई की आपत्ती हो और बाकी दोनों उसपर सहमत हों तो क्या होगा। ठीक वैसे ही जैसे अधिकांश राजनीतिक दलों ने एनजेएसी को पारित करने के लिए अपने मतभेद किनारे रख दिए, अगर इन महत्वपूर्ण शख्सियतों को चुनने के लिए इन दोनों राजनीतिज्ञों ने हाथ मिला लिया तो लोगों को आश्चर्य नहीं होचा चाहिए। ऐसी स्थिति में इस पैनल में सीजेआई की भूमिका महज दर्शक की रह जाएगी।
ये शख्सियतें एक बार नामित होने के बाद तीन साल पद पर रहेंगी और दोबारा नामित नहीं होंगी। ये अलग बात है कि तात्कालीन सरकार उनकी विशेषज्ञता का लाभ उठाने के लिए उन्हें किसी दूसरे आयोग में नियुक्ति कर दे। ऐसे में उनकी वफादारी किसके प्रति होगी यह समझी जा सकती है। इसलिए वास्तविकता में सोचें तो मुमकिन है कि अधिकांश मामलों में एनजेएसी में एक तरफ तीन जज और दूसरी तरफ कानून मंत्री और सरकार के वफादार दो अन्य लोग होंगे। कानून का एक अन्य प्रावधान कहता है कि यदि दो सदस्य किसी नाम पर असहमत हों तो उस नाम पर विचार नहीं किया जाएगा।
ऐसे में यदि तीनों जज सोचते हैं कि किसी खास हाईकोर्ट के जज सुप्रीम कोर्ट में लाए जाने लायक हैं तो कानून मंत्री किसी भी एक जानी-मानी शख्सियत के साथ मिलकर उस नियुक्ति को वीटो कर सकते हैं। कल्पना करें कि यदि उस हाईकोर्ट जज ने किसी राजनीतिक दल या सरकार के खिलाफ कोई कड़ा फैसला दिया हो तो क्या सुप्रीम कोर्ट में उसकी नियुक्ति होगी? सीधा संदेश जो पूरे न्यायिक तंत्र में जाएगा वह यही होगा कि कॅरिअर में ऊंचाई हासिल करनी है तो कार्यपालिका को खुश रखना सीख लो। आखिर में, एनजेएसी के पक्षधर यह तर्क देते हैं कि अमेरिका में राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करते हैं जिसपर बाद में सीनेट की मंजूरी ली जाती है।
यदि वहां जजों के चयन में कार्यपालिका की सर्वोच्चता है तो यहां क्या असर पड़ जाएगा? लेकिन यह अधूरा सच है, हकीकत यह है कि अमेरिका में एक बार जज बनने के बाद पूरी जिंदगी के लिए संबंधित शख्स जज ही रहता है। इसलिए उसपर कार्यपालिका का कोई दबाव नहीं होता। हमारे यहां की तरह नहीं जहां रिटायरमेंट के बाद जज विभिन्न आयोगों के प्रमुख बना दिए जाते हैं। पूर्व प्रधान न्यायाधीश पी.सदाशिवम तो रिटायर होने के बाद केरल के राज्यपाल बना दिए गए।
विपक्ष का आरोप है कि उनके कार्यकाल में अमित शाह के मामले में आए फैसले का हाथ इस नियुक्ति में है। इसमें कोई शक नहीं है कि न्यायपालिका को अपना घर साफ करने की जरूरत है और खाली पड़े पदों को योग्य जजों से भरा जाना चाहिए। कॉलेजियम व्यवस्था को खत्म होना ही चाहिए मगर इसकी जगह जो व्यवस्था आए उसमें न्यायपालिका का पलड़ा भारी होना चाहिए कार्यपालिका का नहीं।