नजरिया: सोशल मीडिया के शिकंजे में हमारे गांव
“गांवों का भोलापन छीन रहे इन माध्यमों के इस्तेमाल पर नए सिरे से विचार की जरूरत”
विकास एक सतत प्रकिया है, लेकिन विकास किन शर्तों पर हासिल हो रहा है और उसके लिए क्या कीमत चुकानी पड़ रही है, इसका आकलन जरूर किया जाना चाहिए। ऐसे आकलन से विकास की बुनियाद मजबूत होती है, साथ ही यह भी पता चलता है कि जो रास्ता हमने विकास के लिए अख्तियार किया है, वह हमें सही जगह ले जा रहा भी है या नहीं। आज हम नए दौर के विकास की एक परत को जरा समझने की कोशिश करते हैं।
नए युग का विकास, यानी जिसने दुनिया बदल दी, वह है इंटरनेट। सबसे पहले इस इंटरनेट को तीन हिस्सों में बांटिए। एक, जिसे हम सोशल मीडिया कहते हैं, दूसरा जहां से आप सूचनाएं इकट्ठा करते हैं और तीसरा ई कॉमर्स। इन तीनों हिस्से के अलग-अलग फायदे और नुकसान हैं। नुकसान तब और बढ़ जाता है जब इन तीनों का घालमेल शुरू होता है। जैसे सोशल मीडिया के जरिए सूचनाओं का सिलसिला बढ़ेगा तो उसमें सही जानकारी का हिस्सा निश्चित तौर पर कम ही रहेगा। उसी तरह, ई कॉमर्स का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए किया जाने लगेगा कि हमें नए दौर के साथ कदम मिलाना है, तो हमारी आर्थिक स्थिति डगमगाएगी, और यही हो रहा है इन दिनों।
नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में दूरदर्शन के एक कार्यक्रम के लिए हमने लिखा था कि इन दिनों जब आपके घर के दरवाजे की घंटी बजती है तो आपके घर कोई मेहमान आया होता है, आने वाले दिनों में जब ये घंटी बजेगी तो कोई सामान आया होगा। जाहिर है तब ई कॉमर्स की बुनियाद देश में डाली जा रही थी और ये लाइनें हमने शहरों और महानगरों के लिए लिखी थीं। लेकिन आज परिदृश्य बिल्कुल बदल चुका है। आज भले घंटी न बजे लेकिन गांव-गांव में इंटरनेट अपनी दस्तक दे चुका है। गांवों में भी ई कॉमर्स साइट्स का जमकर इस्तेमाल हो रहा है। इसके प्रभाव को समझने के लिए सामाजिक ताने-बाने पर नजर डालनी होगी और साथ ही कुछ आंकड़ों पर भी गौर करना होगा जिससे से साफ होगा कि आखिर हम किस रास्ते पर हैं।
भारत में तकरीबन पचास फीसदी आबादी इन दिनों इंटरनेट का इस्तेमाल करती है। मैकिन्जे ग्लोबल इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2023 तक भारत में इंटरनेट प्रयोग करने वाले यूजर्स की संख्या 40 प्रतिशत और बढ़ जाएगी और भारत, चीन से भी आगे निकल जाएगा। वर्तमान में चीन के बाद सबसे अधिक इंटरनेट का प्रयोग करने वाले भारत में ही हैं। पिछले छह वर्षों में इंटरेनट इस्तेमाल करने की कीमत में 95 प्रतिशत तक कमी देखी गई, इसलिए इंटरनेट यूजर्स की संख्या लगातार बढ़ी है। 2013 के सरकारी आंकड़े के अनुसार भारत के 6,37,000 गांवों के 75 करोड़ लोग इंटरनेट से वंचित थे। लेकिन 2019 का अंत आते-आते ग्रामीण इंटरनेट यूजर्स की संख्या 29 करोड़ हो गई और अब भारत में ग्रामीण और शहरी इंटरनेट यूजर्स की संख्या लगभग बराबर है। आबादी के हिसाब से आने वाले दिनों में गांव आगे निकल जाएंगे। तो क्या हम सही रास्ते पर हैं? आज हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हम बिल्कुल गलत रास्ते पर हैं।
हम सब जानते हैं कि दिन-रात में चौबीस घंटे होते हैं, और यही घंटे हर इंसान के लिए होते हैं। इन्हीं घंटों का इस्तेमाल हर व्यक्ति करता है। फर्क बस इतना है कि इन घंटों का सही इस्तेमाल करने वालों के पास नतीजे कुछ और निकलते हैं और जो इन घंटों का इस्तेमाल ठीक से नहीं कर पाते उनके लिए भविष्य में परिणाम सुख देने वाला नहीं होता। अब आप सोच रहे होंगे कि इंटरनेट के विकास और समय के इस हिसाब का आपस में क्या संबंध है। तो इसे ऐसे समझिए कि जिस इंटरनेट के जरिए हम समय बचाने का दंभ भरते हैं, वही इंटरनेट आपके जीवन के समय का बहुत बड़ा हिस्सा ले रहा है। अब यहीं पर यह समझना जरूरी है कि जो समय आप इंटरनेट पर बिता रहे हैं, उसमें से कितना समय आप सही इस्तेमाल कर रहे हैँ। पिछले एक दशक में भारत के गांवों में इंटरनेट का इस्तेमाल सबसे ज्यादा बढ़ा है। ऐसा नहीं कि यह इस्तेमाल पूरी तरह से खराब और गलत है, लेकिन यह समझना जरूरी है कि उसका किस हद तक इस्तेमाल आपके लिए फायदेमंद हो सकता है।
पहले यह जानिए कि हमारे देश में गांव अब इंटरनेट का कितना इस्तेमाल करते हैँ। गांवों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों में तकरीबन 40 फीसदी सिर्फ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें से आधे तो सिर्फ वीडियो देखते हैं। तकरीबन 30 फीसदी लोग ई कॉमर्स के लिए और महज 20 फीसदी लोग नई सूचनाओं के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैँ। आम तौर पर इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति औसतन दिन के पांच घंटे मोबाइल पर नेट सर्फ करते हुए बिता रहा है। इन पांच घंटों में से वह महज एक घंटे का इस्तेमाल किसी उचित काम के लिए कर रहा है। मतलब साफ है कि गांवों में इन माध्यमों का इस्तेमाल करने वाले लोग हर रोज अपने जीवन के चार घंटे बिना वजह बर्बाद कर रहे हैं। मतलब इनके लिए दिन-रात अब 24 घंटे की जगह महज 20 घंटे का है।
साथ ही गांवों में सोशल मीडिया का बढ़ता प्रयोग लोगों को बीमार बना रहा है। इंटरनेट का उपयोग करने वाले हर छह में से एक व्यक्ति को सोशल मीडिया से होने वाली समस्या पैदा हो रही है, जिससे तनाव होता है और दूसरी समस्याएं घेर लेती हैं। डॉक्टर बताते हैं कि मोबाइल की स्क्रीन से निकलने वाली रौशनी मानव शरीर के बॉडी क्लॉक (शारीरिक गतिविधियां) को नियंत्रित करने वाले हार्मोन मेलाटोनिन का रिसाव रोकती है। मेलाटोनिन नींद आने का एहसास कराता है, लेकिन रिसाव रुक जाने से व्यक्ति देर तक जागता रहता है। जब नींद ठीक से नहीं आएगी तो दूसरी बीमारियां होने लगती हैं। एक अध्ययन में यह भी पता चला कि ग्रामीण खून की कमी, सांस की समस्या, हार्ट अटैक और कैंसर जैसी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं।
शहरी लोगों को हाइपरटेंशन, मोटापा, मधुमेह, किडनी और आंत से जुड़ी हुई बीमारियां घेर रही हैं। इतना ही नहीं, अध्ययन में पाया गया कि हर पांचवां व्यक्ति लंबे समय से चली आ रही किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त है। ज्यानदातर को हाई ब्लड प्रेशर या खून की कमी की शिकायत है। किशोरों में तनाव का मुख्य कारण उनकी पढ़ाई पाई गई।
पुराने समय में लोग खाली वक्त में आपस में बात करते थे, पसंदीदा खेल खेलते थे, घर से बाहर टहला करते थे। ग्रामीणों में यह आदत ज्यादा थी। लेकिन अब खेल-कूद से लोगों ने दूरी बना ली है, शारीरिक श्रम कम हो गया है। सोशल मीडिया का चाव इस कदर हावी है कि लोग खाने-पीने और नींद का भी ध्यान नहीं रखते। फेसबुक के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार कुल 30 करोड़ भारतीयों का फेसबुक पर अकाउंट है। वहीं, व्हाट्सऐप पर लगभग 20 करोड़ भारतीय हैं। यह आंकड़ा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। सोशल मीडिया वेबसाइट आज लोगों की जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन गई हैं। थोड़ी देर के लिए भी लोग इनसे दूर होते हैं तो बेचैन हो जाते हैं। सोशल मीडिया आपका कीमती वक्त और संबंध दोनों को खराब कर रहे हैं।
दूसरी तरफ, ई कॉमर्स के जरिए आसानी से उपलब्ध बाजार आपकी जेब पर अतिरिक्त असर डाल रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे नई सदी की शुरुआत में बैंकों ने लोन देने के तरीके इतने आसान कर दिए कि हर साधारण शहरी गाड़ी और घर किस्तों में खरीदने लगा और उसकी जिंदगी किस्तों में बंट गई। अब घर बैठे सामान खरीदने की प्रवृत्ति कई दफा बिना जरूरत के सामान भी मंगाती है जिससे आपका बजट खराब होता है। यही परिस्थितियां भारत के गांवों से उसका भोलापन छीन रही हैं और भेड़चाल में हम नई तकनीक के गुलाम होते जा रहे हैं। इस पर हमें सोचना होगा, बार-बार सोचना होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)