बिहार का सच
“बिहार के मतदाताओं से ऐसी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे वैसे उम्मीदवारों को जरूर धूल चटाएं जो बाहुबल, जाति या पैसे की ताकत पर चुनाव जीतने के अरमान संजोए हुए हैं”
कई मिथक तोड़ने से भी नहीं टूटते, और कुछ पूर्वाग्रह अपने आप नहीं भुलाए जाते। परिवर्तन प्रकृति की प्रवृति रही है, इसके बावजूद कभी-कभी लगता है कि स्थितियां कितनी भी बदल जाएं, सब कुछ पहले जैसा ही रहता है। सिलिकॉन वैली भले भी तकनीकी रूप से दक्ष भारत के पेशेवर युवा कंप्यूटर इंजीनियरों से पटी हो, अभी भी बनारस की गलियों में पाश्चात्य देशों से आए पढ़े-लिखे पर्यटक सपेरों को ढूंढ़ते मिलेंगे। बिहार भले ही वर्षों से आइएएस बनाने की फैक्ट्री रहा हो, अभी भी राज्य के बाहर कई लोगों को लगता है कि मुंह पर गमछा बांधे कुछ नौजवान, हाथ में देसी कट्टा लिए मारुती ओमनी में आएंगे और आपको राजधानी के व्यस्ततम चौराहे से उठाकर ले जाएंगे। बिहार का मतलब ही उन्हें गरीब-गुरबों का इलाका लगता है। विकास के हर पैमाने पर पीछे रहने वाले राज्यों के लिए जिस अर्थशास्त्री ने ‘बीमारू’ शब्द का नामाकरण करके ‘यूरेका’ चिल्लाया होगा, उसे इस बात का इल्म न रहा होगा कि ‘स्टीरियोटाइपिंग’ जिद्दी वायरस की तरह होती है, आसानी से पीछा नहीं छोड़ती। बिहार के साथ भी यही हुआ है। भले ही पिछले कुछ वर्षों में राज्य की विकास दर दस प्रतिशत से ऊपर रही हो, नरसंहारों का दौर पीछे छूट गया हो, गावों में 22 घंटे से अधिक बिजली रहती हो और इसके किसी भी छोर से आप सड़क मार्ग से पटना छह घंटे में पहुंच सकते हों, इसकी दशकों पुरानी छवि अभी भी कमोबेश बरकरार है। बाढ़, सूखा और पलायन से ग्रस्त ऐसा पिछड़ा राज्य, जो जातिगत राजनीति से ऊपर की सोच नहीं पाता।
यह छवि और भी उभर कर आती है, जब भी बिहार में चुनाव का मौसम आता है। चुनाव की घोषणा होती नहीं कि सभी राजनैतिक दल जाति समीकरण साधने में जुट जाते हैं। विकास दर की बातें गौण हो जाती हैं और सारा ध्यान इस बात पर केंद्रित हो जाता है कि किस इलाके में किस जाति की बहुलता है। चुनाव विश्लेषक यादवों को लालू प्रसाद यादव का वोट बैंक समझते हैं तो कुर्मियों का मत नीतीश कुमार के लिए सुरक्षित समझा जाता है। कुछ छोटे-बड़े नेताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी-अपनी जातियों का वोट अपने-अपने गठबंधन को एकमुश्त दिला सकें, मानो उनके समुदाय के पंचों ने उन्हें कोई मैजिक रिमोट पकड़ा दिया है। चुनाव पूर्व बस यही बहस होती है कि किस दल ने कितने अगड़ों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और दलितों को टिकट दिया है। उम्मीदवारों की बाकी योग्यताओं जैसे स्वच्छ छवि, ईमानदारी और समाज के चतुर्दिक विकास की प्रतिबद्धता को ताक पर रख दिया जाता है। शायद इनकी आवश्यकता यूटोपिया के चुनाव में होती होगी, बिहार में तो जाति से बेहतर योग्यता किसी उम्मीदवार के बॉयोडेटा में अभी भी नहीं समझी जाती है। हां, जाति के समकक्ष चुनाव जीतने को कोई गुण है तो वह है बाहुबल। आप बाहुबली हैं तो लाजिमी है कि आप धनकुबेर भी होंगे। बैलट पेपर अब ईवीएम के जमाने में लूटे नहीं जाते, लेकिन अपराधी चरित्र के विजयी उम्मीदवारों की संख्या में हाल के वर्षों में कोई कमी नहीं आई है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के आंकड़ों के अनुसार, बिहार में इस विधानसभा चुनाव में कोई बदलाव नहीं दिख रहा है। तीन चरणों में हो रहे चुनाव के पहले चरण के 1064 उम्मीदवारों में 328 यानी 31 प्रतिशत के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं और दूसरे चरण में कुल 1463 में 502 यानी 34 फीसदी ऐसे ही उम्मीदवार है। जाहिर है, उनमें कई चुनाव जीतकर सदन में ‘माननीय’ बन जाएंगे। यह सिर्फ बिहार की नहीं, बल्कि समूचे देश की त्रासदी है, लेकिन उनका इतना बोलबाला अन्यत्र नहीं रहा है, उत्तर प्रदेश में भी नहीं।
इस वर्ष फरवरी में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश के अनुसार, हर पार्टी को दागी उम्मीदवार को चुनने की वजह सार्वजनिक करनी थी। यह भी बताना था कि किसी स्वच्छ छवि वाले को क्यों टिकट नहीं दिया जा सकता। उम्मीद थी कि इसके बाद हो रहे बिहार के पहले बड़े चुनाव में सकारात्मक असर दिखेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एडीआर के अनुसार, बिहार में पार्टियों ने वैसे उम्मीदवारों की वजह उनकी लोकप्रियता, उनके सामाजिक कार्य और राजनैतिक विद्वेष के कारण दर्ज किये गए मामलों को बताया है।
स्पष्ट है, बिहार के इस चुनाव में भी स्थितियां बदलने वाली नहीं हैं। हालांकि इस बार कई युवा उम्मीदवार ऐसे हैं, जो बिहार को बदलने की उम्मीद लिए चुनावी रण में हैं, लेकिन उनकी संख्या मान्यता प्राप्त दलों में नगण्य ही है। फिर भी, इस चुनाव में बिहार के मतदाताओं से ऐसी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि अगर वे इन उम्मीदवारों को जीत दिलाने का प्रण नहीं ले सकते, तो कम से कम वैसे लोगों को जरूर धूल चटाएं जो बाहुबल, जाति या पैसे की ताकत पर चुनाव जीतने के अरमान संजोए हुए हैं। बदलाव वाकई एक रात या एक चुनाव में नहीं आ सकता, न ही मिथक अचानक किसी सुबह टूटते हैं, लेकिन बिहार की आने वालों वर्षों में छवि बदलने के लिए यह निश्चित रूप से एक बड़ी लकीर खींचने जैसा कदम होगा। कभी तो शुरुआत होनी है। इस बार क्यों नहीं?