सत्ता के ऊपर ज्ञान, व्यक्तियों के ऊपर विवेक
जिन्ना पर जसवंत सिंह की किताब कितनी गंभीर है, यह भी मैंने पढक़र नहीं देखा लेकिन उसके आने के बाद इतिहास और वर्तमान में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की भूमिका के बारे में छिड़ी गर्मागर्म सार्वजनिक बहस के दौरान मुझे सात समुंद्र पार के एक व्यक्ति की याद आ रही है। उस व्यक्ति ने भी अपने देश और दुनिया के इतिहास तथा सभ्यता में बहुत बड़ी भूमिका निभाई और वर्तमान बहस के केंद्र में मौजूद पटेल, नेहरू एवं जिन्ना से लगभग डेढ़ सौ साल पहले हुए। नाम टॉमस जेफरसन जो 1776 में अंग्रेजों से अमेरिकी आज़ादी के घोषणापत्र के लेखक, अमेरिकी स्वाधीनता आंदोलन के बड़े नेता, स्वाधीनता के घोषणापत्र के रूप में दुनिया में प्रारंभिक आधुनिक लोकतंत्र के प्रमुख सिद्धांतकार और अमेरिका का दूसरा राष्ट्रपति बनने के पूर्व उसके पहले विदेश मंत्री और फिर उपराष्ट्रपति रहे। आज विश्व का सबसे शक्तिशाली पद माने जाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति रहे व्यक्ति की कब्र के शिलालेख पर अपनी इस उपलब्धि का जिक्र तक नहीं करवाया। मृत्यु के बाद अपनी कब्र के सिरहाने लगने वाले शिलापट पर उन्होंने यह खुदवाया:
यहां दफन है टॉमस जेफरसन
अप्रैल 2, 1743 - जुलाई 4, 1826
स्वाधीनता घोषणापत्र का रचयिता
और धार्मिक स्वतंत्रता की वर्जीनिया प्रतिमा का भी
और वर्जीनिया विश्वविद्यालय का जनक
स्वाधीनता घोषणापत्र, जिसमें पहली बार किसी देश ने अधिकारों की अवधारणा को स्थान दिया और धार्मिक स्वतंत्रता को मान्यता निश्चय ही महान सभ्यतागत उपलब्धियां हैं लेकिन गौर कीजिए कि वर्जीनिया विश्वविद्यालय के जनक होने के मुकाबले जेफरसन ने अमेरिका का राष्ट्रपति होने को कोई उपलब्धि ही नहीं माना और उसे अपनी कब्र पर दर्ज करवाने लायक तक नहीं समझा। यह है सत्ता के ऊपर ज्ञान को तरजीह देने का एक श्रेष्ठ सभ्यतागत उदाहरण।
आश्चर्य नहीं 'अमेरिका अपने इस पुत्र* या पुरखा कहिए, पर लगभग पौने दो सदियों से गर्व करता रहा है। इसके बावजूद आज अश्वेतों को समान संवैधानिक अधिकारों के दौर में जेफरसन के अश्वेत गुलामों और गुलाम महिलाओं के साथ उनके यौन संबंधों की चर्चा अमेरिका में बेझिझक होती है, यहां तक कि उन अवैध यौन संबंधों के फलस्वरूप पैदा संततियों के वंशज तक डीएनए जांच के जरिए वर्तमान अमेरिकी अश्वेत समाज में बड़े मीडियाई जोरशोर के साथ तलाशे जाते हैं। और इस सबसे जेफरसन की महानता पर रत्ती भर आंच नहीं आती क्योंकि अपनी तमाम पूंजीवादी बुराईयों के बावजूद एक परिपक्व अमेरिकी समाज समझता है कि अतीत अतीत होता है उसकी कसौटी वर्तमान से अलग होती है, भले ही अतीत वर्तमान को प्रभावित करता हो। यह बोध शायद उस सांस्कृतिक चेतना की विरासत है जिसके प्रणेता ने सत्ता को क्षणभंगुर माना और ज्ञान को सनातन, हालांकि इसके बावजूद आज अमेरिका विश्व में अपनी चौधराहट की खातिर सत्ता के पाश्विक इस्तेमाल से बाज नहीं आता।
क्या आधुनिक भारत में ज्ञान को सत्ता से ऊपर मानने की तहजीब होती है तो आप कल्पना कर सकते थे कि कोई किताब, किसी राजनीतिज्ञ द्वारा अपने राजनीतिक हितों के लिए ही लिखी गई सही, सत्ता के अन्य खिलाडिय़ों की लेखन के प्रति ऐसी असहिष्णुता का पर्दाफाश करती जैसी भाजपा के नेताओं और गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने दिखाई हैं? हम निरावेग तटस्थ शैक्षिक-वैचारिक विवेचन की प्रौढ़ता कभी अर्जित भी कर पाएंगे, वह अपने ऐतिहासिक नायकों के बारे में ही क्यों न हो, या सभ्यता की दृष्टि से अपने को बार-बार एक बचकाना समाज ही साबित करते रहेंगे? हालांकि हमेशा ऐसा नहीं था। प्राचीन भारत में विवेचनात्मक इतिहास लेखन के मामले में भले ही अभाव रहा हो, यहां की दार्शनिक परंपरा में पर्याप्त खंडन-मंडन रहा है। उपनिषदों, षड्दर्शनों के बीच, ब्राह्मण परंपरा एवं बौद्ध और जैन परंपराओं के बीच तथा आस्तिकों और नास्तिक चार्वाकों के बीच। किसी न किसी को कभी प्रतिबंधित नहीं किया। लेकिन आश्चर्य है कि प्राचीन भारतीय परंपराओं का गौरवगान करते नहीं अघाने वाले राजनीतिक और तथाकथित सांस्कृतिक संगठन इस भारतीय परंपरा का पालन नहीं करते।
विवेचना और विवेक को तिलांजलि देने के कारण ही मिथ गढ़े जाते हैं। धारणाओं और मूल्यों के बजाय व्यक्तियों के इर्द-गिर्द मिथ गढऩा ज्यादा आसान होता है। इसमें आज की राजनीतिक रणनीति के आलोक में गुजर चुके इंसानों की देवता या राक्षस छवि सावधानी से गढ़ी जा सकती है। गढ़ते-गढ़ते किसी ऐतिहासिक नायक की विरासत अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हथियाई जा सकती है जैसा भगवा परिवार पटेल या शिवाजी के साथ करता रहा है। लेकिन चंूकि इतिहास और पुराण में विवेचना और कल्पना का भेद है, इसलिए असली इतिहास में कई चीजों और व्यक्तियों के मेल से बनी ऐतिहासिक परिस्थितियां होती हैं जिनके दबाव में देवता या राक्षस नहीं, इंसानी नायक या खलनायक अपने क्रिया-कलाप और निर्णय करते हैं।
चुनिंदा नायकों या खलनायकों की भूमिका पर जरूरत से ज्यादा जोर देने के कारण इतिहास का सम्यक विवेचन नहीं हो पाता। जैसे गांधी, नेहरू, पटेल, जिन्ना और माउंटबेटन पर ज्यादा जोर देने से हमें भारत विभाजन के बारे में कई जरूरी प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। मसलन, देसी मुहावरे में आम जनता को अपनी बात समझाने में माहिर और उनमें आजादी के लिए माद्दा जगाने वाले गांधी अपने तमाम सद्प्रयासों के बावजूद नाजुक ऐतिहासिक मौके पर आम हिंदू-मुसलमान को एक-दूसरे के प्रति सांप्रदायिक दरार से बचने की बात समझाने में क्यों विफल रहे, नोआखली जैसी अपनी साक्षात उपस्थिति वाली जगह को छोडक़र? जिन्ना की महत्वकांक्षा और जिद को कितना भी दोष दें, कलकत्ता और अन्य जगहों का आम मुसलमान क्यों उनके उकसावे पर पाकिस्तान हासिल करने के लिए खून-खराबे पर उतारू हो गया? उग्र हिंदुत्ववाद और मुस्लिम सांप्रदायिकता एक दूसरे को पोषित करते हुए 1905 के बंगभंग के वक्त से अंग्रेज हुक्मरानों के हाथ का खिलौना बने रहे लेकिन तमाम जमीनी जन समर्थन के बावजूद सदभावी इंसानी राजनीति अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक गोलबंदी विकसित कर सकी पर सामाजिक और सांप्रदायिक विभाजनों के खिलाफ क्यों नहीं? ऐसे कई सवालों को व्यापक ऐतिहासिक विवेचन की दरकार है।