प्रफुल्ल बिदवईः जनपक्षधर पत्रकारिता की मिसाल
उनको अपने छात्र जीवन की सक्रियता और उस समय वामपंथी विमर्श धरोहर में मिला था। जीवन पर्यंत जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, साम्यवादी, शांति एवं सद्भाव के मूल्यों से सरोकार रखने की जिस अदम्य क्षमता का परिचय प्रफुल्ल ने अपने आचरण में प्रस्तुत किया वह आने वाली पीढ़ियों के लिया अनुकरणीय है। वह जिन मूल्यों में विश्वास रखते थे, उनसे उन्हें कोई डिगा नहीं पाता था। जिस मुद्दे को उन्होंने पकड़ा, उसे मरते दम तक नहीं छोड़ा। उनमें विपरीत परिस्थितियों में भी सच कहने की हिम्मत थी। वह सच कहने से कभी नहीं डरे, पीछे नहीं हटे। हजारों वाकये ऐसे आए, जिनमें उन्होंने अपनी बौद्धिक जनपक्षधरता की साख रखी। चाहे वह जैतापुर में चल रहे परमाणु संयंत्र विरोध आंदोलन के साथ खड़े होने का मामला हो या फिर कुडनकुलम में भीषण दमन के दौर में परमाणु विरोधी आंदोलनकारियों के समर्थन में खड़े रहने का सवाल हो, वह कभी पीछे नहीं हटे। वह पहले पत्रकार थे जिन्होंने 1977 में टाइम्स ऑफ इंडिया में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के खिलाफ लिखने का साहस किया। उन्होंने परमाणु विकरण पर जो काम किया, वह बेमिसाल है। परमाणु के मुद्दे पर इतना सघन काम करने वाले वह अकेले पत्रकार था। लेखनी में वह कभी इस बात से प्रभावित नहीं होते थे कि जो सत्ता में हैं, वह क्या सोचेंगे। किसी भी स्टोरी या किताब के लिए वह जबर्दस्त होमवर्क करते थे। मेहनत करने की उनकी आदत में कभी अंतर नहीं आया। यह उनका मजबूत पहलू था, जिसके सभी कायल थे।
जिंदगी में विरोधाभास तो उनके भी थे ही, जैसे हम सभी के हैं, पर वह उन पर हावी नहीं हुए। एक बात उनकी खास थी। वह खाने के बेतरह शौकीन थे। किस शहर में किस दुकान पर क्या खाना खाया जा सकता है, उसका पक्का पता प्रफुल्ल को रहता था। एक बार हम हैदराबाद से लौट रहे थे, प्रफुल्ल ने कहा, वह बिना हलीम खाए नहीं जाएंगे। हवाईजहाज के रास्ते पर हलीम की दुकान है, जिसके लिए पूरा यू-टर्न करके जाना पड़ा। हमारी फ्लाइट छूटते-छूटते बची। इसी तरह भुवनेश्वर में उन्होंने केकड़ा खाने की जिद पकड़ी और हमने उसके लिए कई होटल तलाशे। वजह, उन्हें बेहद अच्छी किस्म का केकड़ा खाना था। जिस तरह वह लिखने के लिए तगड़ा रिसर्च करते थे, खाने के लिए भी वैसी ही मेहनत करते थे। मुझे बड़ा मजेदार लगता था कि वह स्टोरी हो या खाना, सब कुछ पता न लग जाने तक बेकरार रहते थे। खाने में कैसे बना है, क्या-क्या डला है, इसकी भी तफ्तीश वैसे ही करते थे जैसे जलवायु परिवर्तन पर चल रही वार्ताओं की बारीकियों के बारे में। तह तक पहुंचना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था।
कथनी और करनी में अंतर न रखने और अपने विचारों को अपने दैनिक जीवन जीने का अद्भुत जीवट भी प्रफुल्ल की विशेषता थी। उसकी बैटरी वाली छोटी गाड़ी (रेवा) और उससे जुड़े तमाम प्रसंग उसका उदहारण हैं, जो मित्रों को हमेशा याद रहेंगे। प्रफुल्ल ने परमाणु विकिरण के खतरों और भारतीय परमाणु संस्थानों की लापरवाही का खुलासा 70 के दशक में ही शुरू किया था और उसका नाम आज 21वीं सदी में भी हिंदुस्तान की सबसे सशक्त परमाणु विरोधी आवाज के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए है। कर्मठता, प्रतिबद्धता और वैचारिक ईमानदारी की दृष्टि से प्रफुल्ल हम सब मित्रों के लिए अनुकरणीय हैं।
जीवन यूं भी विरोधाभासों का पुलिंदा होता है और उनसे निपटते रहना ही जिंदगी। प्रफुल्ल की जिंदगी भी इससे अछूती न थी। अपने विचारों और लेखन में अत्यंत व्यवस्थित रहने वाला यह व्यक्ति निजी जीवन में उतना ही अराजक और लापरवाह था। उनके इस लक्षण ने ही शायद उनके सैकड़ों दोस्त और खैरख्वाह बनाए जो शायद कभी उसकी याद से छुटकारा नहीं पा सकेंगे। हम सब उनकी गिरफ्त में हैं और यूं ही रहेंगे।
(लेखक परमाणु निरस्त्रीकरण और शांति के लिए गठबंधन (सीएनडीपी) से संबद्ध हैं।)