प्रथम दृष्टि: कंटेंट ही संजीवनी
“वह दौर गुजर गया जब सितारों की लोकप्रियता के कारण बुरी फिल्में सफल हो जाती थीं”
बॉलीवुड के सितारे गर्दिश में हैं। न सिर्फ बड़े कलाकारों की फिल्में एक के बाद एक बॉक्स ऑफिस पर धराशायी हो रही हैं, बल्कि उनकी हर फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व सोशल मीडिया पर उनके बहिष्कार की मुहिम चलने लगी है। कुछ सितारों की उन फिल्मों को बायकॉट करने की अपील जारी की जा चुकी है, जिनके रिलीज होने में अभी साल भर से अधिक का वक्त लगेगा। जाहिर है, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री सकते में है। शुरुआत में अनेक बड़े सितारों और फिल्मकारों ने #बायकॉटबॉलीवुड ट्रेंड को यह कहते हुए हल्के में लेने की कोशिश की कि वे किसी को जबरन अपनी फिल्म देखने के लिए बाध्य नहीं करते, लेकिन अब बॉलीवुड के जानकार भी मानने लगे हैं कि बहिष्कार की अपील का फिल्म के बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन पर प्रतिकूल असर होता है। इसी कारण कुछ अभिनेता और फिल्मकार अब अपनी फिल्मों को सीधे ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रदर्शित कर रहे हैं।
यह आश्चर्यजनक है क्योंकि इन्हीं सितारों को दर्शक हाल तक सिर-आंखों पर बिठाए रखते थे। उनकी फिल्में चाहे कितनी भी बुरी क्यों न रही हों, दर्शक उनकी बेसब्री से प्रतीक्षा करते थे और वे पहले ही दिन पचास करोड़ के आंकड़े को पार कर लेते। आजकल उन्हीं सुपरस्टारों की फिल्मों का हश्र देखकर लगता है कि वह दौर अब बीत चुका है। बॉलीवुड के लिए यह दोहरी मार झेलने जैसा है। कोरोना वायरस के कारण लंबे समय तक थिएटरों के बंद होने से फिल्म इंडस्ट्री को भारी नुकसान झेलना पड़ा। उम्मीद की जा रही थी कि इस वर्ष स्थितियां सामान्य हो जाएंगी और सितारों का जलवा फिर से आसमान छुएगा, लेकिन स्थितियां बद से बदतर होती गईं। 2022 तो फिल्म इंडस्ट्री के लिए विपदा का वर्ष साबित हुआ। पहले आठ महीने में सिर्फ कश्मीर फाइल्स और भूल भूलैया-2 ही सुपरहिट साबित हुईं। इस दौरान न सिर्फ आमिर खान और अक्षय कुमार जैसे स्थापित अभिनेताओं की फिल्में पिट गईं बल्कि टाइगर श्रॉफ और रणबीर कपूर जैसे लोकप्रिय युवा स्टारों की फिल्में भी दर्शकों के लिए तरस गईं। क्या ऐसा महज सोशल मीडिया पर चल रहे बहिष्कार की वजह से हुआ या इसके पीछे की वजहें कुछ और हैं?
इसका मूल कारण बहिष्कार की अपील नहीं, फिल्मों का बुरा होना है। आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा हो या अक्षय कुमार की रक्षाबंधन, रणवीर सिंह की जयेशभाई जोरदार हो या रणबीर कपूर की शमशेरा, ये सभी फिल्में टिकट खिड़कियों पर पिट गईं क्योंकि वे दर्शकों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं। आज दर्शक घर बैठे दुनिया भर की बेहतरीन फिल्में देख रहे हैं। हमारे यहां विडंबना यह है कि फिल्म निर्माण के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ स्क्रिप्ट की अहमियत की समझ बॉलीवुड में अब भी नहीं दिखती। फिल्मकार लीक से हटकर नया कथानक चुनने में झिझकते हैं। वे आज भी किसी अन्य मुल्क की फिल्मों से प्रेरित होकर अपनी फिल्म बनाना बेहतर समझते हैं। अगर ऐसा न होता तो आमिर खान 28 साल पुरानी हॉलीवुड फिल्म फॉरेस्ट गंप क्यों बनाते? वे उन स्क्रिप्टों में से एक को क्यों नहीं चुनते जिनका कुछ वर्ष पूर्व एक स्क्रिप्ट प्रतियोगिता में उन्होंने जूरी सदस्य के रूप में चयन किया था? फिल्मकार अक्सर रोना रोते हैं कि उन्हें अच्छी स्क्रिप्ट नहीं मिलती लेकिन यह जगजाहिर है कि वे लेखकों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। उन्हें समझना होगा कि दर्शक अपने प्रिय कलाकार की फिल्म शुरुआत में तो देखने जा सकते हैं लेकिन वह सुपरहिट तभी बनती है जब उसकी कहानी में दम हो। ‘कंटेंट इज किंग’ महज जुमला नहीं है। सिर्फ सोशल मीडिया पर बायकॉट ट्रेंड कराने की वजह से कोई फिल्म फ्लॉप नहीं होती। शाहरुख खान की चक दे इंडिया, आमिर खान की 3 ईडियट्स और सलमान खान की बजरंगी भाईजान इसलिए सफल हुईं क्योंकि उनके कथानक अच्छे थे। वे आज के बहिष्कार के दौर में भी प्रदर्शित होतीं तो भी उतनी ही बड़ी हिट होतीं।
बॉलीवुड को यह समझना होगा कि नई कहानियां ही दर्शकों को मल्टीप्लेक्स की ओर खींच सकती है। वह दौर गुजर गया जब बड़े सितारों की लोकप्रियता के कारण बुरी फिल्में भी सफल हो जाती थीं। आज ईरान और कोरिया जैसे छोटे मुल्क बेहतरीन फिल्में बना रहे हैं। भारत उनसे कोसों पीछे है। नई शताब्दी में बॉलीवुड में लीक से हटकर फिल्में बनाने का सिलसिला शुरू होने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि अब फॉर्मूला फिल्में नहीं बनेंगी। पिछले कुछ वर्षों में कई छोटी बजट की फिल्मों ने कमाल दिखाया तो कहा गया कि कंटेंट वाले सिनेमा का युग आखिरकार आ ही गया। यह बात और है कि इस दौर में भी ब्रिटेन के अंग्रेजी अखबार द गार्डियन की इस सदी की दुनिया भर की 100 श्रेष्ठ फिल्मों की सूची में सिर्फ गैंग्स ऑफ़ वासेपुर को ही जगह मिल पाई। बॉलीवुड के लिए यह आत्ममंथन का समय है। आने वाला दौर कंटेंट का रहेगा या कचरे का, इस पर फिल्मकारों को गंभीरता से सोचने की जरूरत है। कंटेंट बेहतर हो तो बहिष्कार से क्या डरना?