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27 November 2022

लिव इन अपराध: धर्म नहीं, स्त्री-चश्मे से देखें

“हत्या का कारण ‘लिव-इन रिलेशन’ पर थोप कर कहीं हम अपना पल्ला तो नहीं झाड़ रहे?”

आफताब ने अमानवीयता की ऐसी तस्वीर पेश की कि इंसान भीतर तक सिहर जाए। इंसानियत से भरोसा उठ जाए! श्रद्धा की नृशंस हत्या के साथ-साथ यह उस विश्वास की भी हत्या है जिसे वह प्रेम के नाम पर जीती रही। सोचिए, कि वह लड़का किस हद तक शातिर और पाशविक प्रकृति का होगा, कि उसने अत्यंत क्रूरता और निर्ममता से इसी प्रेम और विश्वास के पैंतीस टुकड़े कर के उन्हें फ्रिज में रखा, फिर धीरे-धीरे जंगल में ठिकाने लगाता रहा। एक रिश्ता, जिसका अंत इतना बर्बर ढंग से हुआ हो वहां सब कुछ रहा होगा सिवाय प्रेम के। प्रेम आपको सभ्य और सुंदर बनाता है, हत्यारा नहीं! लड़की अपने प्रेमी के व्यक्तित्व को न समझ सकी, या फिर समझते हुए भी इस उम्मीद से रिश्ते में बंधी रही कि सब ठीक हो जाएगा। लड़कियां अकसर संकेतों को समझते हुए भी रिश्ते से बाहर नहीं निकल पाती हैं क्योंकि उनका अनुकूलन ही इस तरह से किया जाता है।

दुख इस बात का ही नहीं है कि एक लड़की इस दुनिया से चली गई। अफसोस उसके बाद आई प्रतिक्रियाओं पर भी होता है, जहां हिंदू-मुस्लिम करने वालों को नया मसाला मिल गया है तो अरेन्ज मैरेज के पक्ष में कसीदे काढ़े जाने लगे हैं। जिस तरह से लिव-इन और प्रेम को कोसा जा रहा है, वह हैरान करने वाला है। मैं लिव-इन के पक्ष में पूरी तरह से नहीं हूं पर यह जरूर मानती हूं कि दो वयस्कों को अपनी मर्जी से रिश्ते में बंधने का पूरा अधिकार है।

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श्रद्धा की हत्या के बाद ऐसा कहने वाले भी हत्यारे के पक्ष में खड़े दिखते हैं कि ‘उसके साथ तो यही होना चाहिए!’ यह ठीक उसी तरह की मानसिकता से निकली सोच है जिसमें दुष्कर्म पीडि़ता पर ही छोटे कपड़े पहन अपराधी को उकसाने का आरोप मढ़ दिया जाता है। हमारी मानवीयता और संवेदनाओं को क्या होता जा रहा है? कोई लड़की अपने माता-पिता की बात न मानकर अपने प्रेमी के साथ रहना तय कर लेती है तो क्या यह अपराध है? क्या यह इतनी बड़ी भूल है कि उसकी हत्या होने पर आप नाक-मुंह सिकोड़ कर संवेदनशून्य हो जाएं? अपराधी के कृत्य को न्यायसंगत बताने लगें? या यूं कहने लगें कि ‘सही सबक मिला उसे।’ जो बच्चे अपने मां-बाप के अनुभव, सीख को न सुनें-समझें, क्या वे मौत के हकदार हैं?

माना कि किसी लड़की ने अपने माता-पिता की नहीं सुनी और अपने प्रेमी के साथ चली गई। चलो, उसने यह भी कह दिया कि ‘वह मर गई परिवार के लिए’, तो उसे सचमुच मरा मानकर उत्तरदायित्व से पल्ला झाड़ लें? क्या परिवार की जिम्मेदारी नहीं बनती कि अपने जिगर के टुकड़े का अपडेट लेते रहें? हम उस समाज में रहते हैं जहां बच्चों को मारते-पीटते हुए कितनी ही बार माता-पिता गुस्से में कह जाते हैं कि ‘मरते भी नहीं! परेशान कर रखा है। जीवन नरक कर दिया है इन बच्चों ने!’ बच्चा फेल हो जाए तो उसकी हड्डी-पसली एक कर देते हैं कि ‘नाक कटा दी बदतमीज ने!’ पर उसके बाद वही मां बच्चों से लिपटकर खूब रोती भी है। वही पिता उनके सिर पर हाथ रख के कहता है कि ‘कोई बात नहीं! अगली बार खूब मेहनत करना!’ बच्चे बड़े हो गए, तो क्या परवाह चली जाती है?

लोग यहां तक कह रहे हैं कि ‘ऐसी लड़कियों से क्या सहानुभूति रखना!’ कैसी लड़कियां, भई? क्या प्रेम भरे जीवन की कामना करना गलत है? लड़कियों की कंडीशनिंग ही ऐसी हुई है जहां वे कहने को तो सशक्त हो गई हैं पर उम्र के हर दौर में अकेले रहने से आज भी डरती हैं। उन्हें हमेशा एक साथी की तलाश रहती है जिसके गले लग कर वे अपने सुख-दुख बांट सकें, जिसके साथ हंसी के पल गुजार सकें, जिसकी उपस्थिति उन्हें इस एक तसल्ली से भर दे कि इतनी बड़ी दुनिया में एक व्यक्ति तो ऐसा है जो मेरा अपना है, जो मेरे लिए जीता है, जिसे इंतजार है मेरा। यह किसी एक श्रद्धा की नहीं, बल्कि हर लड़की की कहानी है- स्वार्थ से भरी दुनिया में एक निश्छल मन की तलाश, एक कंधे की तलाश जिस पर सिर रख कर वे अपने भविष्य के तमाम सुनहरे ख्वाब संजोती हैं।

वे भाग्यशाली लड़कियां जिनके भाई, मित्र या पिता उन्हें इस तरह का भावनात्मक सहारा दे पाते हैं वे कभी लाश बनकर घर नहीं लाई जातीं। मरती वही हैं जिन्हें यह एहसास कराया जाता है कि उन्होंने अपनी पसंद से जीवनसाथी चुन लिया है तो वे पलटकर मायके का मुंह कभी न देखें। आप लिव-इन या प्रेम विवाह के विरोधी हो सकते हैं पर उसके नाम पर मां-बाप की मंजूरी से हुई सभी शादियों को सही नहीं ठहरा सकते। वे रिश्तों की प्रगाढ़ता का अंतिम सत्य नहीं हैं क्योंकि इन्हीं तय की हुई शादियों में अनगिनत लड़कियां अचानक स्टोव में आग लगने की कहानी गढ़कर जिंदा ही फूंक दी गईं, उनके पिताओं की पगड़ी सड़क पर उछाली गई, कितनों ने स्वयं मृत्यु को गले लगा लिया कि उनके गरीब माता-पिता दहेज कब तक दे पाएंगे! कितनों ने इसलिए जीवनलीला समाप्त कर ली क्योंकि विदाई के वक्त उनके कानों में यह मंत्र फूंक दिया गया था कि ‘लड़की की डोली मायके से उठती है और अर्थी ससुराल से!’ उसके बाद गलती से लड़की घर आ भी गई तो समझा-बुझाकर लौटा दिया जाता है कि ‘अब वही तुम्हारा घर है। थोड़े-बहुत झगड़े कहां नहीं होते!’ ‘पराया धन’ की चाबुक दिन-रात उस पर पड़ती है। ‘आपके लिए लिव-इन या प्रेम विवाह अगर गारंटी का रिश्ता नहीं है तो अरेन्ज मैरेज भी ‘बिका हुआ माल वापस नहीं होगा’ जैसा ही बंधन है।

(लेखिका स्वतंत्र रचनाकार हैं। विचार निजी हैं) 

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TAGS: लिव-इन रिलेशन, अपराध, प्रीति अज्ञात, ओपिनियन, नजरिया, live-in relationship, crime, opinion, nazariya, Preeti Agyaat
OUTLOOK 27 November, 2022
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