जनसंख्या नियंत्रण: उठते सवाल
आजादी के 74 वर्ष के बाद भी जब किन्हीं मुद्दों पर बात होती है तो उसके पीछे के व्याप्त कारणों और तथ्यों को नजरअंदाज किया जाता है। अजीबोगरीब बिडंबना है कि वर्तमान परिदृश्य में धर्म, संप्रदाय और सियासत हर मुद्दों पर भारी है। बात चाहें सुरक्षा की हो, जनसंख्या की हो या फिर चुनाव की हो, इसकी तूती बोलती है। हाल ही में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर मामला तेजी से हवा में फ़ैल रहा है।
यह कोई नई बात नहीं है। समय समय पर जनसंख्या नियंत्रण की मांग उठती रही है। हाल ही में असम सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण कानून को हवा देते हुए उसे लागू करने का भी ऐलान कर दिया। आश्चर्य की बात है कि असम के चाय बागानों में काम करने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति को इससे अलग रखा गया है। यह क्या दर्शाता है? साथ ही उत्तर प्रदेश की सरकार भी इस दिशा में आगे कदम बढ़ाती हुई देखी जा सकती है। हो भी क्यों न साल 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव जो होने वाले है। जनसंख्या नियंत्रण का उद्देश्य सार्थकता का परिचायक जरूर है लेकिन राजनीति, धर्म और संप्रदाय से इसे जोड़ने का अंदाज़ बेहद असंवेदशील और अमानवीय कृत्य है।
इससे पहले भी कई प्रदेशों में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनाने की मांग उठती रही है। यहां तक कि कई प्रदेशों में तो इसे मूर्त रूप भी दिया जा चुका है। दो से अधिक बच्चों के मामले में सरकारें इतनी संवेदनशील हो चली है कि सरकारी रियायतों में भी कटौती की जा रही है। दो से अधिक बच्चे रहने पर पंचायत चुनाव से लेकर नगरपालिका चुनाव लड़ने पर रोक लगाई जा रही है। लेकिन क्या इस कदम से वास्तविकता और तथ्यों को नजरंदाज किया जा सकता है? या यह सिर्फ़ चुनावी अभियान और वोट बैंक की राजनीति में उलझ कर रह जाएगा?
भारत हमेशा से चीन की तर्ज पर जनसंख्या को नियंत्रण करने की दुहाई देता आ रहा है। लेकिन इन सबके विपरीत, बीते कुछ समय में यह देखा गया है कि चीन ने भी अपनी पॉलिसी में काफी बदलाव किए है। 'वन चाइल्ड पॉलिसी' को बदलते हुए साल 2016 में चीन ने 'टू चाइल्ड पॉलिसी' को अपनाया और अब जाकर इसी साल उसने इसे भी बदलते हुए 'थ्री चाइल्ड पॉलिसी' को प्राथमिकता दी। चीन के बाद जनसंख्या के आंकड़ों में भारत दूसरे स्थान पर काबिज़ है।
हालांकि राहत की बात है कि जो प्रजनन दर साल 2000 में 3.2 प्रतिशत हुआ करता है वह वर्ष 2016 में घटकर 2.4 प्रतिशत तक पहुंच गया। 'हम दो हमारे दो' जैसे नारों के माध्यम से सरकार जागरूकता अभियान चलाने की दिशा में कार्यरत है। शिक्षा और जागरूकता के अभाव में साल 1990 में जनसंख्या वृद्धि दर 2.07 फ़ीसदी हुआ करता था। वहीं अगर 2019 की बात करें तो यह लगभग आधे से भी ज्यादा घटकर 1.0 प्रतिशत पर पहुंच चुका है।
राजनैतिक लाभ के लिए विभिन्न पार्टियों द्वारा समाज में आम धारणा बनाई जाती है। इसके मुताबिक मुसलमान ज्यादा बच्चें पैदा करते है। लेकिन अगर आप आंकड़ों पर जाएंगे तो शायद आप भी चौंक जाएंगे। पहले के मुकाबले मुसलमानों में भी प्रजनन दर कम हुआ है। साल 2001 में जारी आंकड़ों के मुताबिक, मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर 29.5 प्रतिशत थी जो आगे चलकर साल 2011 में गिरकर 24.6 फ़ीसदी हो गई। यह आंकड़े संकेत देने के लिए काफी है कि वास्तविकता और तथ्यों को नजरंदाज करना कितना घातक साबित हो सकता है।
इससे एक बात तो साफ़ हो चली है कि साक्षरता और जागरूकता अभियान को भी हथियार बनाकर जनसंख्या को नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए सरकार की मंशा पवित्र होनी चाहिए। सिर्फ कानून बनाकर तथा सत्ता के लिए कुछ खास वर्ग के लोगों को उसमें छूट देकर आप सही दिशा और दशा प्रदान नहीं कर सकते है। पिछले साल ही केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर करते हुए कहा था कि सरकार देश के नागरिकों पर जबरन परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण को थोपने की सख़्त विरोधी है।
बेशक जनसंख्या नियंत्रण देश के लिए जरूरी है और इसके लिए सही दिशा में कदम बढ़ाने की भी आवश्यकता है। लेकिन दूसरी तरफ जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर हो रही राजनीति तथा समाज को धर्म और संप्रदाय में विभाजित करना यह कतई बर्दाश्त करने योग्य नहीं है। चुनावी मुद्दा, वोट बैंक की राजनीति तथा धर्म और सियासत का साथ आना, जनसंख्या नियंत्रण की प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे है। इससे बचने की सख्त जरूरत है।
(लेखक विधि और कानून के जानकार हैं। भारतीय संविधान में इनकी रुचि है। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)