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30 July 2015

याकूब की फांसी से झूलते कई कानूनी सवाल

MAHENDRA PARIKH/ INDIAN EXPRESS ARCHIVE VIA AP

न्यायाधीश दवे ने कहा था कि अगर वह तानाशाह होते तो वह सभी को गीता पढ़वाते। वह स्पष्ट तौर पर खुद को कृष्ण समझते हुए अर्जुन रूपी महाधिवक्ता को धर्म की स्थापना हेतु कुछ भी करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। लेकिन राजधर्म में न्याय करना भी शामिल है। और यदि कोई पिछले कुछ दिनों की मीडिया रिपोर्टों का जायजा ले तो कई सवालों में घिरने से खुद को नहीं रोक सकता, जिन पर चर्चा करना तो दूर न्यायाधीश और महाधिवक्ता ने ध्यान भी नहीं दिया।

इनमें सबसे ज्यादा परेशान कर देने वाली बात तो यह है कि क्यों याकूब मेमन को मौत की सजा दी गई जबकि आपराधिक षड़यंत्र का जो आरोप उस पर साबित हुआ है उसके तहत फांसी की सजा का प्रावधान ही नहीं है। दिसंबर 1992 में जब बाबरी मस्जिद गिराई गई थी तब वह मुंबई में था। सन 1992-1993 के दिसंबर-जनवरी में शहर में दंगे हुए थे, जिनमें 900 लोगों की मौत हुई थी जिनमें अधिकतर मुसलमान थे तब कच्छ का यह गुजराती शहर में ही मौजूद था। लेकिन जब 1993 में बम धमाके हुए जिनमें 250 से ज्‍यादा लोग मारे गए तब वह दुबई में था।

अभियोजन ने दावा किया कि मेमन भाईयों ने धमाकों की साजिश रची, इसकी योजना बनाई और घटना होने के दो दिन पहले भाग गए। यह जानते हुए कि मेमन बंधु देश में नहीं हैं, उनके गुर्गों ने धमाकों को अंजाम दिया। मेमन भाइयों की मानें तो वे लगातार दुबई जाते रहते थे जहां लगभग उनका आधे से ज्यादा परिवार रहता था। और चूंकि मुंबई के हालात ठीक नहीं होने की वजह से याकूब दफ्तर भी नहीं जा सकता था इसलिए उसने दुबई जाने का निर्णय लिया।

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तब न तो आईबी को और न ही सीबीआई को इन बम धमाकों या मेमन भाइयों की इनसे जुड़े होने की आशंका थी। इन्होंने न तो मेमन भाइयों की विदेश यात्रा पर कोई संदेह किया न ही उनके मुखबिरों को इन धमाकों का कोई अंदेशा था। मगर क्योंकि धमाकों के दौरान मेमन भाइयों में से कोई भी शहर में उपस्थित नहीं था, उनके बम धमाकों को अंजाम देने का कोई सबूत नहीं था। उन पर सिर्फ षडयंत्र रचने का इल्जाम लगाया जा सकता था। देखा जाए तो मेमन परिवार ने भी शायद मान लिया है कि टाइगर मेमन ही इस पूरी घटना का मास्टरमाइंड था और उसने बमों की तस्करी में आईएसआई की मदद ली थी।

मगर आपराधिक षडयंत्र के लिए मृत्यु दंड नहीं दिया जाता और खुद न्यायाधीश कुरियन जोसेफ यह सवाल उठाने में सही थे कि आखिर किस कानून के तहत याकूब को फांसी की सजा सुनाई गई। यह बात बहुत हैरान करने वाली है कि यह तर्क पहले सामने नहीं आया।हालांकि, महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने यह तर्क रखा कि उच्चतम न्यायालय भी अब कोई प्रश्न नहीं उठा सकता जब सारे कानूनी रास्ते बंद हो चुके हैं। जस्टिस अनिल दवे ने भी रोहतगी का समर्थन करते हुए याचिका में कोई महत्व नहीं पाया। रिपोर्टों के अनुसार जब याकूब के वकील ने कहा, मुझे तकलीफ है तो जस्टिस दवे ने जवाब दिया कि तो चलिए इस तकलीफ का अंत करें।

एक सामान्य नागरिक को यह बात बहुत विचित्र लगेगी। क्या महाधिवक्ता साहब यह कह रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट अपने विवेक के अनुसार नहीं बल्कि पुरानी गलतियों के अनुसार चलना चाहिए? क्या अदालत अपनी गलती मालूम होने पर भी उसे सुधार नहीं सकती? क्या हमने यही न्याय तंत्र बनाया है अपने लिए? यदी ऐसा है तो भगवान ही हमें बचाए। दोषी सिद्ध करने का तरीका भी बहुत चिंताजनक है क्योंकि 100 लोगों के आरोपित और दोषी घोषित होने के बावजूद सिर्फ याकूब मेमन को ही मृत्यु दंड दिया जा रहा है। अर्थात धमाकों के दौरान जो देश में न हो उसे सूली पर चढ़ा दिया जाए परंतु जिन्होंने धमाकों को अंजाम दिया उन्हें जीवित रहने दिया जाए।

 

कई सारे सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं।

उदाहरण के तौर पर,

> माननीय राष्ट्रपति दया याचिका अप्रैल 2014 में कैसे खारिज कर सकते थे? सभी कानूनी रास्तों के खत्म होने पर ही दया याचिका दायर की जाती है। चूंकि सप्रीम कोर्ट ने याचिका 21 जुलाई 2015 को खारिज की इसलिए राष्ट्रपति महोदय उससे एक साल पहले ही कैसे इसे खरिज कर सकते थे? और चूंकि दया याचिका खुद याकूब ने नहीं उसके भाई ने दायर की थी तो गृह मंत्रालय और राष्ट्रपति भवन का उस पर विचार करने का निर्णय भी गलत था।

 

> और ट्रायल कोर्ट ने अप्रैल 2015 में मृत्‍यु वारंट जारी भी कैसे कर दिया जबकि क्युरेटिव याचिका की अभी सुनवाई भी नहीं हुई थी?अदालत को आखिर इतनी जल्दी क्यों थी? और क्या ट्रायल कोर्ट को क्युरेटिव याचिका के सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने की खबर भी नहीं थी?

 

किसने याकूब को फांसी के लिए स्वस्थ पाया? यह सवाल मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील युग मोहित ने उठाया है जिन्होंने दावा किया है कि खुद सरकारी डॉक्टरों ने याकूब को सिजोफ्रेनिया से पीड़ित घोषित किया जो कि एक गंभीर मानसिक रोग है। कानून के अनुसार किसी भी शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को फांसी नहीं लगाई जा सकती है। तो फिर क्यों ट्रायल कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को अनदेखा किया?

 

अभियुक्त की गैरहाजिरी में कैसे अदालत उसे फांसी की सजा सुना सकती है? खुद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार फांसी की सजा अभियुक्त की उपस्थिति में ही सुनाई जानी चाहिए और अभियुक्त को उस दौरान पूरी कानूनी सहायता मिलनी चाहिए। मगर याकूब के केस में तो ट्रायल कोर्ट ने उसके वहां होने को भी मुनासिब नहीं समझा। क्यों? क्या उसे सुप्रीम कोर्ट इस आदेश की जानकारी नहीं थी?

 

> क्या अच्छे व्यवहार का कोई महत्व नहीं है? दुनिया भर में जेलों को कैदियों के सुधार के लिए बनाया जाता है और अच्छा व्यवहार होने पर सजा में कटौती भी हौती है। याकूब ने कैद के 20 सालों में एमए की दो डिग्रियां हासिल की। लेकिन शायद यह बात कानून की अदालत को या संवैधानिक संस्थाओं को प्रभावित नहीं कर पाई।

 

यह चूक हम से ही हुई होगी। हमें वही सरकार मिलती है जो हम खुद चुनते हैं।     

 

 

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TAGS: याकूब मेमन, फांसी, मृत्‍युदंड, सुप्रीम कोर्ट, उत्‍तम सेनगुप्‍ता, दया याचिका, महाधिवक्‍ता
OUTLOOK 30 July, 2015
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