इंसाफ की तलाश और हिंसा का चक्र
त्योहारों के इस मौसम में हमने आउटलुक पाठकों के लिए एक विशेष साहित्यिक आयोजन किया है जो इस पत्रिका में आप अन्यत्र पाएंगे। साहित्य अपने जीवन और समय को समझने की अंतर्दृष्टि देता है लेकिन उसे रचने, पढऩे, रमने, गुनने के लिए कोलाहल में फुर्सत तलाशनी पड़ती है। उत्सव में रमने के लिए भी जीवन की आपाधापी में थोड़ी फुर्सत की छांव चाहिए। बीस रुपये प्रतिदिन भी खर्च न कर पाने वाले दो तिहाई और कुपोषण के शिकार आधे भारतवासी भी साहित्य में नहीं पर अपने लोक कला रूपों और पर्व-त्यौहारों में किसी तरह जुगाड़ ही लेते हैं। पर हर बार हर जगह नहीं। नवरात्रों में भी इस बार दंतेवाड़ा और लालागढ़ जैसे देश के कुछ सबसे गरीब हिस्सों की धरती खून बहाने लगी। उग्र माओवादी आंदोलन के कारण छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के इन जैसे इलाकों के अलावा कम तीव्रता वाले जंगी हालात आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड, बिहार आदि राज्यों के कुछ अंचलों में वर्षों से है। मगर इधर नक्सलवादियों ने भी उग्रता का स्तर बढ़ाया और केंद्र तथा राज्यों सरकारों ने भी नक्सलियों से निपटने के नाम पर अपने कुछ सबसे गरीब लोगों के खिलाफ पूरी जंग की ठान ली। लालगढ़ में केंद्रीय सुरक्षा बलों ने रिहर्सल किया और अब दंतेवाड़ा के वन आच्छादित ङ्क्षचता गुफा इलाके में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की कोबरा इकाई ने आगे के रक्तरंजित रण की झलकी दिखाई है जिसमें उसी भीषणता से लंबे भिडऩे का आह्वान माओवादियों ने भी किया है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने संकेत दिया है कि नक्सल विरोधी अभियान में भारतीय फौज के विशेष बल दस्तों की मदद भी ली जा सकती है।
हाल में राजधानी के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक पूर्व प्रोफेसर नागरिकों की एक अनुसंधान टीम के साथ घोर मोआवादी प्रभाव वाले एक जिले में गए जहां उनके एक पूर्व छात्र पुलिस अधीक्षक हैं। पुलिस अधिकारी की अपने पूर्व शिक्षक से मुलाकात का यह गर्वीला क्षण था, उन्होंने अपने गुरु के पांव छुए और उनके साथ अपनी तस्वीर खिंचवाई। नागरिक अनुसंधान टीम ने तब तक प्रशासन, पुलिस और सरकार समर्थित नक्सल विरोधी सशस्त्र निजी सेना का पक्ष ले लिया था इसलिए प्रोफेसर ने माओवादियों का पक्ष लेने के लिए नदी पार जाने की बात कही। इस पर शिष्य पुलिस अधीक्षक तपाक से बोले, सर, आप उस पार गए कि दुश्मन की तरफ होंगे और हमारी गोली खा सकते हैं। मैंने जानबूझकर दोनों लोगों का नाम छिपाया है ताकि एक निजी गुफ्तगू दोनों के लिए सार्वजनिक झेंप की वजह न बन जाए। लेकिन उनकी बातचीत से प्रशासन की ताजा मानसिकता पता चलती है: कि अब नक्सलवादियों के साथ निबटने में बीच की कोई जनतांत्रिक जमीन नहीं बची है। न सिविल हस्तक्षेप की कोई पहल, जैसे जयप्रकाश नारायण ने 1970 के दशक में बिहार के मुसहरी में की थी। अब प्रतिनिधि शासन और माओवादियों के बीच बस मैदान-ए-जंग है। यह संकेत केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम पहले ही लोकसभा के वर्षा सत्र और उसके बाद मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में दे चुके थे। लोकसभा में उन्होंने कहा था कि माओवादी प्रभुत्व वाले इलाकों को खाली कराए बिना वहां विकास की कोई गतिविधि भी नहीं चलाई जाएगी।
इस रवैये में निहित भूल दिखाने के लिए माओवादी समर्थक या आमूल परिर्वतनवादी होना जरूरी नहीं। कृपया अभी बीते कार्यकाल में मनमोहन सिंह सरकार की ही एक कमेटी की रिपोर्ट पढि़ए। अंसतोष, अशांति और उग्रवाद से निबटने के लिए विकास संबंधी मुद्दों का विशेषज्ञ समूह नामक और योजना आयोग के माताहत इस कमेटी के अध्यक्ष पूर्व ग्रामीण सचिव देबू वंद्योपाध्याय थे। इस समूह ने अपनी रिपोर्ट में ध्यान दिलाया कि 1960 के दशक के अंतिम वर्षों में बलपूर्वक दबाए जाने के बाद नक्सलवाड़ी का विद्रोह एक पुलिस थाने, एक जिले और एक राज्य से फैलकर आज 560 पुलिस थानों, 160 जिलों और 14 राज्यों में पसर चुका है, हालांकि नक्सलियों से निबटने के लिए पुलिस बजट इस दौरान हजार गुणा बढ़ चुका है। कमेटी के अनुसार यह इसलिए हुआ कि वामपंथी उग्रवाद के लिए र्इंधन न्याय और समता की प्यास को कभी संबोधित नहीं किया गया। विशेषज्ञ समूह की नजर में हिंसा की विचारधारात्मक प्रेरणा के अलावा राज्य के क्रूर अंगों घोंटी गई समता और न्याय की भूख भी माओवादी प्रसार की आग भडक़ाती है।
विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट के मुताबिक, यदि शोषणपरक भूमि संबंध नक्सलवाड़ी बगावत के लिए ट्रिगर बने थे तो इस दौर के नक्सलवादी प्रसार के लिए बड़ी परियोजनाओं से पैदा विशाल विस्थापन ट्रिगर बना क्योंकि विस्थापितों को अक्सर न तो उचित वैकल्पिक आजीविका मिलती है न उचित मुआवजा। सन 1951 से अब तक विशाल परियोजनाओं ने कम से कम छह करोड़ लोगों को जबर्दस्ती विस्थापित किया है जिनमें से 20 प्रतिशत से ज्यादा का उचित पुनर्वास नहीं हुआ। मध्य भारत के माओवादी प्रभुत्व वाले इलाके अक्सर वही हैं जहां या तो विस्थापन हो चुका है या होने की तैयारी है। वंद्योपाध्याय कमेटी ने भूमि, जबरिया विस्थापन और बेदखली, चरम गरीबी और सामाजिक जुल्म, आजीविका संकट, कुप्रशासन और पुलिस की क्रूरता जैसी कुछ वजहें बताई हैं जो माओवादी प्रसार को हवा देती हैं। दून स्कूल और लंदन में शिक्षित तथा संपन्न परिवार से आने वाले कोबद गांधी, जो हाल ही में दिल्ली में गिरफ्तार हुए, जैसे उम्रदराज लोग भले ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- माओवादी के पोलित ब्यूरो में मिल जाएं, खुफिया एजेंसियां भी मानती हैं कि अब ज्यादातर नक्सली काडर सबकुछ लुटा चुके आदिवासियों और संकटग्रस्त छोटे किसान तबकों से आ रहा है। विकास से ज्यादा यह इन वर्गों के लिए अधिकार का मसला है। लोगों को उनके हक दीजिए और वे उन्हें हाथोंहाथ लेंगे, अपने हथियार छोडक़र, चाहे कोई कैसा वैचारिक पाठ पढ़ाए।
एक बात माओवादियों से भी। यदि राजसत्ता न्याय की प्यास हिंसा से नहीं दबा पाई है तो प्रतिवर्ष कथित क्रांतिकारी युद्ध में भी मारे जा रहे पुलिस वालों से तीन-चार गुना ज्यादा और माओवादी काडर से करीब दोगुना ज्यादा गैर जंगी लोग जान गंवा रहे हैं। क्रांति के बाद का माओवादी यूटोपिया तो क्या क्रांति भी दूर-दूर तक नहीं दिखती। बहरहाल, हिंसा का चक्र इंसाफ की तलाश पर जीतता दिखता है।