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05 January 2015

शिशिर की शर्वरी हिंस्र पशुओं भरी

पीटीआइ

क्या कविता की तरह काल गणना का भी एक बिंब विधान होता है? वर्ष की गिनती को ही लीजिए। आधुनिक पश्चिम में वर्ष परिवर्तन की तिथि सर्दियों में डाली गई, भारत में वसंत में। मन में दोनों कितने अलग-अलग बिंब उकेरते हैं। एक में जवानी भी कुहरीली ठिठुरती रातों में अलाव के मद्धिम अंगारों में गरमाई और ललछौहां आलोक तलाशती है तो दूसरे में, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र के शब्दों में, बूढ़े से बूढ़ा रसाल भी मस्तक पर मौर धारण कर ऋतुराज के आगमन की प्रतीक्षा करता है। बहरहाल, दोनों ही बिंबों में परिवर्तन का सूत्र समान है। आम का पेड़ मौर भी धारण करे तो अगले वसंत थोड़ा और बुढ़ा जाता है। अलाव में पुराने अंगारे बुझते, फिर नए बलते हैं। ऋतुचक्र, वर्षचक्र, इतिहासचक्र ऐसे ही घूमता और चलता, चलता और घूमता है। बहरहाल, आधुनिक भारत में भी शिशिर ही वर्षांतर का ठौर बन गया है। आउटलुक भी सर्दियों में ही अपनी नववर्षीय शुभकामना की गरमाई देता है।

इस वर्ष हमने अपना नववर्षांक और वार्षिकांक, जो अक्टूबर में आता, एक साथ पेश करने की सोची। यह वार्षिकांक महत्वपूर्ण इसलिए है कि आपके प्रिय आउटलुक ने अपने 12 साल पूरे कर 13वें वर्ष यानी टीन एज या किशोरावस्था में प्रवेश किया है। इन 12 वर्षों के चक्कों ने जो अहम 12 बदलाव नापे हैं, हमने इस अंक के अलग-अलग आलेखों में उनका नक्शा भरसक उकेरने की कोशिश की है। लेकिन बदलावों की कडिय़ां एक-दूसरे से ऐसे ही गुंथी होती हैं जैसे इंजन के चक्कों के लीवर। और समुद्र की सतह पर दिखती बदलाव की लहरें अंतर्धारा के बदलावों से निर्मित होती हैं। यहां हमने एक-दो उदाहरणों से यह अंतर्गुंथन थोड़ा समझने की कोशिश की है।

चूंकि सर्दियां है इसलिए विचलित करने वाले बदलाव मन में घुमड़ रहे हैं। इस कॉलम की शुरुआत में अलाव के अंगारों में गरमाई तलाशती जवानी का बिंब उभरा था। आउटलुक के अस्तित्व के 12 वर्षों में भारतीय आबादी बेशक थोड़ा और जवान हो गई है। अठारह से 40 वर्ष के युवाओं की संख्या 2001 की जनगणना में 37.89 प्रतिशत थी। यह बुढ़ा रहे उन्नत देशों के औसत से कहीं ज्यादा थी। सन 2011 की जनगणना में भारत की युवा आबादी थोड़ी और बढ़ गई, 18 से 40 वर्ष तक की जनसंख्या बढक़र 38.31 प्रतिशत हो गई। लेकिन इस जवानी की संवेदनशीलता कहां चली गई है। पिछले 12 वर्ष का भारत राहत की गरमाई बांटने से ज्यादा अपने युवा ताप का त्रास खुद को ही देता दिख रहा है। देश में बढ़ती जवानी के जोश ने बुढ़ाते पश्चिम से ज्यादा औसत विकास दर पिछले 12 वर्षों में भारत को दी है। लेकिन इन्हीं 12 वर्षों में भारत की इस विकास दर ने करोड़ों अजन्मी लड़कियों की जान की बलि ले ली। सन 2001 की जनगणना में शिशु लिंग अनुपात 927 था जो 2011 में घटकर 914 रह गया। यानी करोड़ों की शिशु आबादी में करोड़ों लड़कियां गायब हो गईं। बढ़ता विकास ही था कि गांव-कस्बों तक भ्रूण लिंग की पहचान करने वाली अल्ट्रासाउंड मशीनें और गर्भपात की अत्याधुनिक तकनीकें भी चली आईं जिन्होंने कन्या भ्रूण हत्या को सुलभ बना दिया। युवा प्रजनन आयु समूह में बढ़ोतरी हुई, चिकित्सा तकनीकों में विकास हुआ, लेकिन प्रजनन क्षम युवा आबादी के पोंगापंथी पुरुषवादी संस्कारों की मानसिकता देखिए कि उसने अपनी बेटियां ही खा डालीं। विडंबना है कि जो बालिकाएं पैदा होने दी गईं वे देश में हुए विकास की वजह से चिकित्सा सुविधाओं में बढ़ोतरी के कारण ज्यादा दिन जिंदा रहने लगीं और संपूर्ण लिंग अनुपात 2001 में 933 से बढक़र 940 हो गया। यानी अगर पैदा होने दी जाएं तो लड़कियां भरपूर जिंदगी पुरुषों से बेहतर जी सकती हैं। इसका एक उदाहरण साक्षरता के जनगणना आंकड़ों में भी दिख रहा है। संपूर्ण साक्षरता 2001 में 65 प्रतिशत से बढक़र 2011 में 74 प्रतिशत हो गई लेकिन ज्यादा उछाल स्त्री साक्षरता में आया जो 53.67 प्रतिशत से बढक़र 65.46 प्रतिशत हो गई जबकि पुरुष साक्षरता 75.26 प्रतिशत से बढक़र सिर्फ 82.14 प्रतिशत हुई यानी साक्षरता में पुरुष और स्त्री का अंतर 2001 में 21.59 प्रतिशत से घटकर 2011 में 16.78 प्रतिशत हो गया।

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बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या के अलावा आउटलुक के अस्तित्व के इन 12 वर्षों में भारतीय समाज की दूसरी हिंसा कृषि संकट और बढ़ते शहरीकरण के प्रसंग में दिखती है। सन 2001 के पूर्ववर्ती दशक में शहरी आबादी 6.18 करोड़ बढ़ी थी जो 2001 से 2011 के बीच 9.1 करोड़ बढ़ी। ग्रामीण आबाद 2001 के पूर्ववर्ती दशक में 11.3 करोड़ बढ़ी थी लेकिन 2001 से 2011 के बीच यह सिर्फ 9.06 करोड़ बढ़ी। यानी शहरी आबादी वृद्धि दर के मुकाबले ग्रामीण आबादी वृद्धि दर कम हुई। यानी आजीविका के अभाव में या विभिन्न परियोजनाओं के चलते बड़ी संख्या में ग्रामीण आबादी उजडक़र शहरों में आई। यह तर्क दिया जा सकता है कि विकास के कारण ग्रामीण आबादी की गतिशीलता बढ़ी और वह शहरों में बेहतर अवसर तलाशने आई इसलिए इसे आपदा-पलायन नहीं कह सकते। लेकिन इस दौरान शहरों में भी संगठित रोजगार घटा यानी गांवों से शहरों में होने वाला आव्रजन आपदा-पलायन ही था। यही कृषि संकट का भी दौर रहा जब देश में बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या की।

उपरोक्त आंकड़े बताते हैं कि भारतीय समाज की जड़ों में हिंसा पसर रही है। इस हिंसक दौर में आश्चर्य नहीं कि अहिंसा के पुजारी एक 79 वर्षीय निहत्थे बुड्ढे को मौत के घाट उतारने वाला नाथूराम गोडसे एक तबके द्वारा देशभक्त कहलाकर पूजा जाए। दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत के सामने भारतीय किसानों और भारतीय स्त्रियों में निर्भयता का जोश भरकर उन्हें आजादी की राह पर अग्रसर करने वाले गांधी के हत्यारे का महिमामंडन अपने ही समाज के किसानों, स्त्रियों और दुर्बलों के प्राणों की बलि लेने वाली बर्बर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्कृति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। माफ कीजिएगा, वर्ष परिवर्तन की तमाम शुभकामनाओं के बावजूद इस शिशिर की सिहरन बहुत बेचैन कर रही है।

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OUTLOOK 05 January, 2015
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