झुककर बिहार छीनने की कोशिश | नीलाभ मिश्र
> अपने स्वभाव के विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार की भू-अधिग्रहण नीति से पीछे हटते हुए संबद्ध अध्यादेश खत्म होने दिया। चुनाव में उतर रहे किसी कृषि प्रधान राज्य में किसान विरोधी माना जाना घातक हो सकता था। अपने सत्तारोहण के लिए भारतीय कॉर्पोरेट घरानों की ऋणी सरकार के लिए इस तरह औचक पीछे हटना पहली बार एक प्रतिकूल यथार्थ से उसका दो-चार होना था। राष्ट्रीय स्तर पर इसके गंभीर नीतिगत निहितार्थ हैं।
> पूर्व सैनिकों के लिए एक दर्जा एक पेंशन के मसले पर भी मोदी सरकार को कुछ जमीन तब छोड़नी पड़ी जब उन्होंने बिहार में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ चुनाव प्रचार करने की धमकी दी। इससे पता चलता है कि मर्दानगी के सारे लंबे-चौड़े दावों के बावजूद बिहार राष्ट्रीय स्तर पर मोदी की जमीन खिसका रहा है, भले ही राज्य में चुनाव परिणाम जो हों।
> थोक मूल्य सूचकांक में हलकी गिरावट के बावजूद केेंद्र सरकार ने बिहार चुनाव के लिए आचार संहिता घोषित होने के चंद घंटे पहले ही अपने कर्मचारियों का महंगाई भत्ता 6 फीसदी बढ़ा दिया जिसके जवाब में बिहार सरकार ने अपने कर्मचारियों के लिए ऐसी ही घोषणा कर दी। ये कदम अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीति और महंगाई का दबाव बढ़ाने वाले हैं। पहले ही थोक और खुदरा मूल्य सूचकांकों में भारी अंतर है और खाद्य पदार्थों की खुदरा कीमतें आसमान छू रही हैं यानी मुद्रास्फीति पर लगाम कसने के लिए कठोर कदमों की हिमायती सरकार के लिए खुशनुमा हालात नहीं हैं। मुद्रास्फीति का दबाव और बढ़ा तो ब्याज दरें कम करने का केस कमजोर हो जाएगा। इसलिए महंगाई भत्ता बढ़ाना मोदी सरकार की आर्थिक विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है और दिखाता है कि राजनीतिक कारणों से उसका आर्थिक संकल्प ढीला पड़ सकता है।
> जमीनी स्तर पर दिखाने लायक उपलब्धियों का अभाव मोदी सरकार को विकास का संकल्प प्रदर्शित करने के लिए आर्थिक वृद्धि और कामकाज के परिणामों के आंकड़े गिनाने से रोकता है। इसलिए प्रधानमंत्री इसके लिए विकास का धन प्रदाता होने का रास्ता अपनाने को मजबूर हुए और बिहार के लिए 1.25 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसके दुगुने से भी ज्यादा राशि मुहैया कराने का वादा ही नहीं किया बल्कि प्रधानमंत्री के घोषित पैकेज की बखिया उधेड़ दी। उन्होंने दिखाया कि प्रधानमंत्री के पैकेज में राष्ट्रीय राजमार्गों और रेलवे की वे वर्तमान और प्रस्तावित परियोजनाएं शामिल हैं जो खास बिहार के लिए नहीं हैं बल्कि राज्य से सिर्फ गुजर भर रही हैं। बिहार में अन्य कारणों से भाजपा को समर्थन दे रहे लोग भी प्रधानमंत्री के आर्थिक दावों को लेकर शंकालु हैं।
> बिहार के मुसलमानों को संदेश देने के लिए प्रधानमंत्री के गृहराज्य गुजरात में हाल में दो छोटे मुस्लिम समुदायों को अन्य पिछड़ा वर्ग की आरक्षण सूची में शामिल किया गया। गुजरात में पाटीदार-पटेलों के आरक्षण आंदोलन की वजह से ऐसा कदम उठाने की कोई जरूरत नहीं थी लेकिन शायद बिहार की पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के प्रति भाजपा की सहानुभूति का संदेश देने के लिए यह कदम उठाया गया।
> बिहार चुनावों के ऐन पहले गुजरात में युवा हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पटेल आंदोलन के साथ जाति और आरक्षण की राजनीति ने एक अनजानी राह पकड़ ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पुतला माने जाने वाले हार्दिक ने घोषणा की कि नीतीश और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पटेलों की मांग के साथ सहानुभूति रखते हैं।
>जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के बिहार में महागठबंधन के साथ भाजपा विरोध की प्रारंभिक चरण की राजनीति पुराने जमाने की कांग्रेस विरोध की राजनीति का स्थान लेने लगी है। कोई जीते या हारे, बिहार के चुनावी नतीजे इस राजनीति में तदनुरूप संशोधन लाएंगे, लेकिन यह परिघटना अब राष्ट्रीय स्तर पर जारी रहेगी।
> चुनाव परिणाम आने के पहले ही बिहार ने दिखा दिया है कि नरेंद्र मोदी की 56 इंची राजनीतिक छाती सिकुड़ाई जा सकती है। आखिरकार भाजपा के वास्ते बिहार जीतने के लिए प्रधानमंत्री को राष्ट्रीय स्तर से झुककर महज राज्य स्तर की लड़ाई में अपनी पूरी ताकत झोंकनी पड़ गई। वह सफल होंगे या नहीं, यह तो बिहार के चुनावी नतीजे ही बताएंगे।
> दांव ऊंचे हैं। जैसा कि कई लोग बता चुके हैं, बिहार की जीत भाजपा के लिए पूर्वी राज्यों का द्वार खोल सकती है। साथ ही, अन्य आगामी राज्य चुनावों में भी वह भाजपा की जीत की संभावनाएं बढ़ा सकती है। जबकि बिहार में हार मोदी-शाह जोड़ी की अपराजेयता का मिथक खंडित कर दे सकती है। बल्कि जैसा कि हमने ऊपर देखा, बिहार पहले ही राष्ट्रीय स्तर पर कई नतीजे दिखलाने लग गया है। चाहे वहां कोई भी जीते, अभी से आने लग गए ये नतीजे बिहार चुनावों के बाद राष्ट्रीय स्तर पर और गुल खिलाएंगे।
यह सब कहने के बावजूद हम मानते हैं कि बिहार में भाजपा ज्वार के वे जलवे दिखा रही है जो पहले नहीं दिखे। नीतीश कुमार के साथ सत्ता में अपनी लंबी पारी के दौरान भाजपा ने पटना में गंगा आरती जैसे भव्य कार्यक्रमों के जरिये भगवा एजेंडा को बखूबी आगे बढ़ाया। छोटे-छोटे पिछड़े और दलित समुदायों के महावीरी अखाड़ा जैसे परंपरागत धार्मिक आयोजनों को हथिया कर भी भाजपा तथा संघ परिवार ने इन तबकों के एक हिस्से को भगवा रंग में रंग डालने की पिछले सालों में पुरजोर कोशिश की है। ये समुदाय सत्ता संरचना में 1990 के मंडलीकृत दशकों में आए भारी बदलाव में खुद को छूट गया महसूस कर रहे थे। उनकी आकांक्षाओं को मुखरित करने के लिए भाजपा ने गोलबंदी का एक बिंदु प्रदान किया, साथ ही उनके कथित अपमान की स्वनिर्मित अथवा गढ़ी गई छवियों को हवा देकर उनकी अस्मिता तथा वंचित होने की भावना का दोहन करने की बखूबी कोशिश की। अपने इन प्रयासों की वजह से भाजपा सवर्ण और पिछड़े-दलित युवाओं के एक हिस्से में नरेंद्र मोदी के प्रति एक उन्माद पैदा करने में सफल हुई है जो प्रधानमंत्री की रैलियों में साफ-साफ दिख रहा है।
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