प्रथम दृष्टि: गंगा-जमुनी युवा
वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के दौर का तो पता नहीं, लेकिन एक जमाना था जब परीक्षाओं में छात्रों को लंबे-लंबे लेख लिखने पड़ते थे। उन दिनों प्राथमिक विद्यालय स्तर से संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित प्रतियोगिता परीक्षाओं में अक्सर ‘विज्ञान वरदान या अभिशाप’ विषय पर लिखने को कहा जाता था। हर किसी का उत्तर लगभग एक जैसा होता था। अगर विज्ञान का उपयोग मानवहित के लिए किया जाए तो वरदान वरना अभिशाप। इंटरनेट युग में ऐसे लेख भले ही सिलेबस से बाहर हो गए हों, लेकिन विषय आज भी प्रासंगिक है।
डिजिटल क्रांति की बदौलत जब मोबाइल या लैपटॉप की की-बोर्ड की एक क्लिक से क्षण भर में कुछ भी उपलब्ध हो जाए तो इस पर नए सिरे से गौर करना लाजिमी है। आज आध्यात्म से संबंधित ऑनलाइन सामग्री की बहुतायत है तो पोर्न भी हर किसी को उपलब्ध है। ऑनलाइन गेम की लत का जोखिम है तो क्रॉसवर्ड, सुडोकु और वर्डल जैसी दिमागी कसरत वाली रचनात्मक गतिविधियां भी कम नहीं हैं। समाज में घृणा फैलाने वाले वाले कथित मजहबी उपदेशकों के भाषण हैं तो समाज को प्रेरणा देने वाले मोटिवेशनल स्पीकर भी हैं। हमें क्या चुनना है, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है। लेकिन, उन किशोरों या युवाओं का क्या, जो उम्र के उस दहलीज पर हैं जहां अच्छे-बुरे के बीच का फासला धुंधला-सा रहता है।
वैसे देखा जाए तो हर दौर में विज्ञान नई पीढ़ी के लिए वरदान लगता है और सफेद हो रहे बालों वाली पीढ़ी के लिए अभिशाप। आज ऐसे माता-पिताओं की कमी नहीं, जिन्हें यह शिकायत है कि उनके बच्चों की पूरी कायनात मोबाइल के इर्दगिर्द सिमट गई है। सुबह से देर रात तक वे सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में खोये रहते हैं। उनका अधिकतर वक्त इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप पर बीतता है। तकनीकी विकास के दौर में यह अस्वाभाविक नहीं, लेकिन इसकी अति होने से अनेक तरह की सामाजिक-मनोवैज्ञानिक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं, जो उनके व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन को कई तरह से प्रभावित करती हैं।
इसमें शक नहीं कि उपयोगी से उपयोगी चीजों का बेजा इस्तेमाल हानिकारक है और इंटरनेट के साथ भी यही लागू होता है। उसका इस्तेमाल सिर्फ नकारात्मक चीजों के लिए किया जाए तो नकारात्मक परिणाम ही आएंगे। लेकिन, अगर इंटरनेट के सकारात्मक पक्ष को देखें तो हर उस पीढ़ी को, जिसके दौर में इसका अविष्कार नहीं हुआ था, उसे इस बात का मलाल रहेगा कि उनके पास गूगल, विकिपीडिया या चैट-जीपीटी जैसे माध्यम मौजूद नहीं थे। उन्हें छोटी-सी छोटी सूचनाएं जुटाने के लिए पुस्तकालयों में घंटों बिताने पड़ते थे। आज दुनिया की किसी भी सूचना के लिए एक प्रभावी उपकरण मोबाइल के रूप में मुट्ठी में है। दरअसल ज्ञान अर्जन के लिए इतने नए साधन आज उपलब्ध हैं कि उन्हें मानव मस्तिष्क में समेटना नामुमकिन है।
इंटरनेट के दौर में बेहतरीन काम हो रहे हैं। कहीं कोई किसी भाषा की लुप्त होती लिपि को बचाने की मुहिम में लगा है तो कोई सैकड़ों वर्ष पुरानी चित्रकला के संरक्षण के लिए प्रयासरत है। कोई दादी मां के घरेलू नुस्खे आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेज रहा है तो कोई चित्कित्सा जगत की नवीनतम उपलब्धियों की व्याख्या कर रहा है। एक दूसरे से सैकड़ों मील दूर देशों के बीच की दूरियां सिमट गई हैं। आगे बढ़ने के नए अवसर मिल रहे हैं, सीखने-सिखाने की तबीयत रखने वालों को माकूल मंच मिल गया है। यह वरदान ही तो है जो नई पीढ़ी को मिला है। न जाने कितनी ऐसी दुर्लभ चीजें है जो समय के साथ नष्ट हो जातीं, लेकिन इंटरनेट की मदद से उन्हें संरक्षित किया जा रहा है। यह कहना कि इंटरनेट के प्रादुर्भाव से युवाओं की जिंदगियों पर सिर्फ दुष्प्रभाव पड़ रहा है, उचित नहीं है। आज नई तकनीक से हर क्षेत्र में परिवर्तन दिख रहे हैं।
हमारी आवरण कथा सोशल मीडिया के जमाने में उर्दू शायरी के प्रति नई पीढ़ी की दीवानगी पर केंद्रित है। पहले उर्दू शायरी से प्रेम किताबों, मुशायरों या दूरदर्शन/आकाशवाणी के कार्यक्रमों तक सीमित होते थे। लेकिन, सोशल मीडिया ने भाषा की दीवारें लांघ कर उसकी लोकप्रियता को आमजन तक पहुंचाया है। इस अंक के कवर पर चर्चित शायर जौन एलिया की तस्वीर होना हमें इस बात का इल्म करता है कि मिलेनियल कही जाने वाली पीढ़ी के बीच उनके शैदाई कम नहीं हैं। यही वह पीढ़ी है जिस पर किताबें नहीं पढ़ने का आरोप लगता रहा है, जिनके बारे में आम राय बन गई है कि वे मोबाइल की दुनिया की गिरफ्त में हैं। लेकिन, मोबाइल ने उन्हें ग़ालिब और मीर से लेकर जौन एलिया और परवीन शाकिर जैसी शायरों से तार्रूफ कराया है। आज जौन एलिया जैसे कई शायर हैं जिन्हें सोशल मीडिया की बदौलत नई प्रसिद्धि मिली है और उर्दू शेरो-शायरी से बेइंतहा आशिकी करने वालों की नई जमात उठ खड़ी हुई है। इसकी बदौलत अगर इस जमात को देश की गंगा-जमुनी तहजीब समझने में थोड़ी भी मदद मिल रही है, तो सोशल मीडिया को इसका श्रेय मिलना चाहिए।