आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
पाकिस्तान की जनरल जिया उल हक की तानाशाही के चरम अंधेरे का दौर था जब 1985 में लाहौर के सरकारी सभागार में फैज अहमद फैज की पिछले वर्ष मृत्यु के बाद उनकी पहली जयंती पर इकबाल बानो का गायन था। जिया के इस्लामी निजामे मुस्तफा में फैज और साड़ी दोनों पर पाबंदी थी। मशहूर पाकिस्तानी रिसाले डॉन के एडिटर मुर्तजा रजवी के मुताबिक विनम्र बानो ठेठ दिल्ली घराने की खूबसूरत तस्वीर की तरह रेशमी साड़ी में तशरीफ लाई। अंधेरे निजाम की पाबंदी तार-तार करती। इनक्लाबी शायर फैज को गाती। उनकी आवाज समंदरी मौजों की मानिंद लरजती, गरजती, ललकारती। हॉल भर गया, उसके दरवाजे खोल दिए गए। बाहर माल रोड तक सडक़ें भर गईं। जिया की पुलिस चुपचाप फना हो गई। दिल भर गए। पूरे पाकिस्तान में। भारत में भी, जब कैसेट सरहद पार पहुंची। घंटे भर गाई गई वह छोटी सी नज्म, बीच-बीच में रह रहकर बजती गड़ - गड़ तालियां, सैकड़ों लोगों का शोर- हमने पता नहीं कैसेट पर सरहद के इस पार कितनी बार सुना। जिन्होंने लाहौर नहीं देखा, उन्होंने भी उसकी धडक़न देखी। और शायद लगभग जनम गए। उन्हें इकबाल बानो की मौसिकी फैज की शायर रूह और दूर के उस शहर की जुंबिश ने मिलकर जनमा दिया। अनमोल होती हैं घडिय़ां जब मौसिकी, शायरी, शहरों और देसों के दिल एकतार गाते हैं।
इकबाल बानो क्या गुजरीं, उनके मुतल्लिक सोचते हुए उस घड़ी की अनमोल शबनम को सोच रहा हूं। आज वह सुकूनी शबनम कहां है जब पूरे महाद्वीप के तार दरक रहे हैं? समाजों में दूरियां बढ़ती जा रही हैं। भारत के चुनावों को ही लीजिए। जिस देश के 70 प्रतिशत लोग 50 रुपये रोज यानि 1500 रुपये महीने से कम पर गुजारा करते हैं, लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं और आधे से ज्यादा औरतों में खून की कमी हैं वहां उनकी नुमाइंदगी के लिए आगे आए बड़ी पार्टियों के दो तिहाई से ज्यादा उम्मीदवार, अगर उनके हलफनामे देखें तो, लाखों और करोड़ों में खेलते पाए जाते हैं। जनता और प्रतिनिधियों, शासकों और शासितों में यह दूरी ही विध्वंसक हो जा सकती है- अगर हिंदूओं-मुसलमानों-ईसाईयों, सवर्णों-दलितों, अगड़ों-पिछड़ों, औरतों-मर्दों (यदि सिर्फ लगातार घटते सेक्स अनुपात को लें तब भी) के बीच भेदभाव भूल जाएं तो भी। नेपाल में वर्ग संघर्ष का तीखापन कम होता नहीं दिख रहा, श्रीलंका में लिट्टे उग्रवादियों के साथ उग्र सिंहली राष्ट्रवाद की फौजी लड़ाई में हजारों-हजार निर्दोष तमिल घुन की तरह पिस रहे हैं, बांग्लादेश में सेक्यूलर बांग्ला राष्ट्रीयता के खिलाफ इस्लामी उग्रवादी हिंसा बार-बार सिर उठाती है, पाकिस्तान में तख्तो-ताज उछाले तो लगातार जा रहे हैं लेकिन कई बार धर्मांध जेहादी या तालिबानी तत्वाधान में, जो समाज को जकडक़र ताकत का मध्ययुगीन गणित जबर्दस्ती बिठाकर रखना चाहता है जो स्त्री-पुरुष शायर, फनकार और आर्टिस्ट तो क्या, इकबाल और फरीदा तो क्या, हर आम बानो और खानम की शकल को साये और जुबान को ताले में रखना चाहते हैं। भारत के पड़ोस में चारों तरफ भारत की तरह की ही विषमताओं ने अब भारत से ज्यादा हिंसा और आक्रामकता पैदा कर दी है, हालांकि भारत भी कई बार उसी राह पर थोड़ा पीछे दिख जाता है। यहां थोड़ी-बहुत लाज अभी बची है तो लोकतंत्र और उसकी कुछ परंपराओं के कारण। कतील की कहें और इकबाल बानो की सुनें तो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में 'परीशां रात सारी है, सितारों तुम तो सो जाओ।'
परीशां रात में सितारे हों तो अच्छा, जागते रहें तो और भी अच्छा। बहरहाल, कतील की गर मानें, 'हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा। 'सितारें न रहें, न जागें तो उनकी याद जगाए। फैज की निर्दोष निश्चितताओं का दौर भले बीत गया हो, रात के बाद दिन लाजिम लगता हो तो भी कब आएगा, यह मालूम न हो। पता नहीं, आगे गर्मी की छोटी रात है या जाड़े की लंबी रात, छह माह वाली ध्रवीय रात है या परमाणु विध्वंस की चिरंतन रात, फैज अहमद फैज और इकबाल बानो भले चले गए हों, फिर भी इस प्राचीन उपमहाद्वीप में टिमटिमाती उम्मीद के साथ, लाजिमी है कि हम भी देखेंगे।