आवरण कथा/अमेरिकी हमलाः सरासर नाजायज?
यह महज अजीब ही नहीं है कि अमेरिका ईरान के उन्हीं एटमी ठिकानों पर बमबारी कर आया, जिसकी निगरानी के लिए संयुक्त व्यापक कार्य-योजना (जेसीपीओए) करार से 2018 में वह एकतरफा बाहर निकल गया था। उसे दुनिया भर के ज्यादातर विशेषज्ञों और राजनयिकों ने कानूनी और कूटनीतिक तौर पर नाजायज बताया है। ईरान तब जेसीपीओए की शर्तों का पालन कर रहा था, लेकिन अचानक पहले कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रंप ने उस करार को तोड़ दिया। फिर, ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों को नए सिरे लागू किया और उसके खिलाफ "भारी दबाव" बनाना शुरू किया।
क्या अब यह भी अजीब नहीं है कि अमेरिका एक तरफ बमबारी करता है और दूसरी ओर कूटनीतिक बातचीत की मांग कर रहा है। ट्रंप ने नाटो शिखर सम्मेलन के दौरान 26 जून को पत्रकारों से कहा, "अगले हफ्ते ईरान से बात होनी है।"
यह सिर्फ अनैतिक या संतुलित रवैये से इनकार करना भर नहीं है, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन भी है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(4) और 51 के तहत आत्मरक्षा या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से इजाजत के बिना सैन्य कार्रवाई पर रोक है। अनुच्छेद 2(4) अंतरराष्ट्रीय कानून का बुनियादी सिद्धांत है, जिसमें किसी भी देश के भौगोलिक इलाके या उसकी राजनैतिक स्वतंत्रता के खिलाफ सैन्य कार्रवाई या उसकी धमकी देने पर प्रतिबंध है।
अनुच्छेद 51 के मुताबिक, किसी भी देश के खिलाफ आत्मरक्षा की कार्रवाई की शर्त यह है कि पहले "हथियारबंद हमला" हुआ हो। ईरान के मामले में इन दोनों ही शर्तों का सरासर उल्लंघन हुआ है, क्योंकि पहले इज्राएल और बाद में अमेरिका ने हमला किया, जबकि ईरान ने जवाबी कार्रवाई की।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत, चाहे हमले के लिए आत्मरक्षा का दावा किया गया हो, लेकिन उसकी क्षमता और नुकसान की जांच की अनिवार्यता पूरी करनी होगी। यह शर्त भी पूरी नहीं की गई। ईरान लगातार एटमी हथियार विकसित करने से इनकार करता रहा है, तो पर्याप्त सबूत के बिना हमलों का बचाव करना इज्राएल और अमेरिका के लिए असंभव होगा।
विरोधः तेहरान में अमेरिका और इज्राएल के झंडे जलाते लोग
इज्राएल अक्सर अपने पड़ोसियों के खिलाफ बाद के खतरे की रोकथाम में हमले करने का दावा करता है, यह दावा भी अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत विवादास्पद है।
जस एड बेलम के नाम से चर्चित नियम के मुताबिक तो भले इज्राएल या अमेरिका को लगता हो कि ईरान हिज़्बुल्लाह या हूतियों जैसे तथाकथित नॉन-स्टेट गुटों को शह देता हो, तब भी किसी कार्रवाई के लिए उचित शर्तों का पालन करना होगा। यही बात ईरान पर भी सीरिया या अन्य जगहों पर हमलों के मामले में भी लागू होती है।
जहां तक जंगबंदी का मामला है, अमेरिका के हाथ शायद घरेलू बाधाओं से बंधे हैं जो ईरान सहित किसी भी देश के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करने की सरकार की क्षमता को सीमित करते हैं। हालांकि, ऐसी कार्रवाइयों के लिए कांग्रेस या प्रतिनिधि सभा की अनिवार्य मंजूरी को पिछली अमेरिकी सरकारें भी अनदेखी कर चुकी हैं, लेकिन यह आरोप इधर फिर उभर आया है। उसके ऊपरी सदन सिनेट में इस मुद्दे पर ट्रम्प के खिलाफ महाभियोग का नोटिस कुछ सांसदों ने दिया है, जिसमें डेमोक्रेट बर्नी सेंडर्स प्रमुख हैं। मौजूदा दौर में यह बड़ा इसलिए भी हो गया है क्योंकि ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी में कई बड़े मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) समर्थक जंग के खुलकर खिलाफ हैं।
इसके अलावा, परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के हस्ताक्षरकर्ता के रूप में ईरान को परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग का अधिकार है।
बराक ओबामा प्रशासन के दौरान 2015 में किए गए जेसीपीओए करार से ट्रम्प प्रशासन के तहत अमेरिका बाहर निकल गया और ईरान के खिलाफ कड़े प्रतिबंध फिर से लगा दिया। इससे ईरान के एटमी कार्यक्रम को सीमित करने की पश्चिमी शक्तियों के इरादे पर भी असर पड़ा। उसके बाद, ईरान ने अमेरिका की नई शर्तों को मानने से इनकार कर दिया, जिसे अमेरिका के हमले की एक वजह की तरह देखा जा रहा है।
ईरान पर हमला करने के बाद अमेरिका के सामने पेश सवाल जाने-पहचाने हैं: क्या ईरान के पास सामूहिक विनाश के हथियार हैं? क्या वह उसके इस्तेमाल करने की तैयारी कर रहा था? क्या कोई विश्वसनीय सबूत है? ये सवाल ही दुनिया को इराक में अमेरिका के हमले की याद दिलाएंगे, जिसे इस दावे के साथ उचित ठहराया गया था कि इराक के पास रासायनिक और एटमी हथियार हैं जो दुनिया के लिए खतरा हैं। यह दावा पूरी तरह निराधार निकला।
इसके अलावा, किसी देश का दूसरे देश पर सैन्य हमला करने से रोकथाम के सिद्घांत कोई नई बात नहीं है, न ही यह संयुक्त राष्ट्र के साथ शुरू हुआ है। एक सदी से भी पहले 1919 में लीग ऑफ नेशंस की सभा ने सदस्यों को बाहरी आक्रमण के खिलाफ सभी सदस्यों की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने का आदेश दिया था।
उस दौरान राष्ट्रों के बीच विवादों को मध्यस्थ कार्रवाइयों से सुलझाया जाना था, या न्यायिक रूप से सुलझाया जाना था, या लीग काउंसिल को भेजा जाना था, और किसी समझौते पर पहुंचने से पहले या असफल या असंभव माने जाने से पहले युद्ध करने पर सख्त शर्तें लगाई गई थीं।
लीग ऑफ नेशंस ने सामूहिक सुरक्षा सिद्धांत को आगे बढ़ाया, जिसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद भी अपनाती है, लेकिन यूएनएससी के विपरीत, लीग ऑफ नेशंस उस पर अमल नहीं करवा सकता था, न ही युद्ध को रोक सकता था। संयुक्त राष्ट्र चार्टर बहुत मजबूत प्रणाली थी, खासकर अनुच्छेद 2(4) और अनुच्छेद 51, जो मिलकर जस एड बेलम व्यवस्था बनती है।
हालांकि, फिलहाल यूएनएससी की व्यवस्था में वीटो पावर में फंस गया है, जिसके तहत अमेरिका, ब्रिटेन, रूस और चीन युद्ध विराम, प्रतिबंध, जांच और दबदबा कायम करने की कार्रवाइयों के खिलाफ प्रस्ताव को रोक सकते हैं।
इसके अलावा, यूएनएससी ने कुछ मामलों में ठोस फैसले किए और लागू करवाए लेकिन कुछ मामलों में नहीं। मसलन, 1990 में इराक में, लेकिन 1994 में रवांडा में नहीं, और यकीनन 2023 में गजा में नहीं। इससे उस पर दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगा। इन आरापों से सुरक्षा परिषद के लागू किए गए अंतरराष्ट्रीय मानदंडों की वैधता को कम कर दिया है। इसके अलावा, सुरक्षा परिषद अक्सर तब पंगु हो जाती है, जब मामला पी5 यानी पांच स्थायी सदस्यों के सहयोगी देशों का होता है, जैसे सीरियाई गृहयुद्ध, इज्राएल-फलिस्तीन संघर्ष और यूक्रेन युद्ध। इन सभी मामलों में क्रमशः रूस, अमेरिका और रूस ने वीटो लगा दिया था।