चर्चाः दुनिया में ‘एकला चलो’ का खेल | आलोक मेहता
तात्कालिक हड़कंप के साथ ब्रिटेन की राजनीति, अर्थव्यवस्था पर कड़वा-मीठा असर होता रहेगा। एक हद तक भारत भी प्रभावित हो रहा है। लेकिन असली चिंता का विषय दुनिया में ‘एकला चलो’ की मानसिकता एवं प्रतियोगी होने के कारण केवल अपने समाज, देश के हित एवं वर्चस्व का ध्यान रखना है। घोषित रूप से संपूर्ण मानव समाज और विश्व के हितों की रक्षा की बात की जाती है। यूरोप अथवा अफ्रीका के देशों की समस्याओं से मिलकर लड़ने के भाषण एवं घोषणा-पत्र होते हैं। व्यापक हितों को ध्यान में रखकर 1973 में ब्रिटेन सहित यूरोपीय समुदाय की एकजुटता हुई थी एवं धीरे-धीरे सदस्य संख्या भी बढ़ती चली गई। अब बिखराव शुरू हो गया। आस्ट्रिया, इटली, जर्मनी में भी ऐसी आवाजें उठ रही हैं। यदि यूरोपीय समुदाय का यह हाल है, तो कभी ब्रिटेन के आधिपत्य में रहे देशों के राष्ट्रमंडल संगठन (कामनवेल्थ) की महत्ता कितनी रहेगी? आर्थिक विकास से पारस्परिक सद्भावना बढ़ने के बजाय क्या कटुता और प्रतियोगी वैमनस्य बढ़ना चाहिए? दूर क्यों जाएं, तीस साल पहले दक्षिण एशिया संगठन- सार्क की इतनी बैठकों, सम्मेलनों, घोषणा-पत्रों के बावजूद आपसी सहयोग के लिए क्या भारत-पाकिस्तान ढाई कोस भी आगे बढ़ पाए? सार्क सचिवालय बना हुआ है। नेता-अधिकारियों का मिलन होता रहता है। लेकिन सार्क देशों- भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान और मालदीव के बीच मुक्त व्यापार और नागरिकों के बिना वीजा के आने-जाने की सुविधा तक का फैसला नहीं हो सका। भारत, नेपाल, भूटान इस दृष्टि से थोड़े आगे हैं। लेकिन पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव और श्रीलंका तक गाड़ी नहीं पहुंच पाई है। पिछले दो वर्षों में तो नेपाल में भी भारत से दूरी बनाने वाले कदम उठाए जाने लगे। पूर्वी या पश्चिमी एशिया के देशों में भी संगठन बने, लेकिन टकराव जारी हैं। खाड़ी के देशों अथवा अफ्रीका में भी छोटे-छोटे देश अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहते हैं। संघर्ष और युद्ध की स्थिति में कई बार संयुक्त राष्ट्र संगठन भी कागजी हाथी दिखने लगता है। जबकि संपूर्ण विश्व में मानवीय संबंधों, न्यूनतम सुविधाओं, आतंकवाद से लड़ने के लिए संयुक्त प्रयासों की जरूरत है। बहरहाल, अभी ब्रिटेन को बहुमत का फैसला लागू करने में ही कुछ महीने और कुछ साल लग सकते हें। ब्रिटिश माडल के लोकतांत्रिक देशों को उसके अनुभव से भी सबक लेना होगा।