ब्रिटेन: आर्थिक चुनौतियों का चक्रव्यूह
हाल में इंडोनेशिया के बाली में जी-20 शिखर सम्मेलन में अलग से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री भारतवंशी ऋषि सुनक के साथ मुलाकात शायद बेहद औपचारिक-सी रही। मुक्त व्यापार और आवाजाही, आप्रवासन जैसे उलझे मुद्दों का जिक्र शायद नहीं हुआ या हुआ भी तो औपचारिकता निभाने जैसा ही था। बाकी वैश्विक मुद्दों पर भी ब्रिटेन की ही क्यों बाकी देशों की भी महज दिखावे भर की भूमिका रही क्योंकि सम्मेलन चीन और अमेरिका के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। वैसे भी, सुनक की घरेलू और खासकर आर्थिक चुनौतियां उन्हें अभी किसी और बात की इजाजत देती नहीं लगती हैं।
ब्रिटेन ऐतिहासिक महंगाई के दौर से गुजर रहा है और उसकी अर्थव्यवस्था पर तिहरी मार पड़ी है। पहले ब्रेग्जिट, फिर विश्वव्यापी कोविड और अब रूस-यूक्रेन के युद्ध ने सारा गणित बिगाड़ दिया है। महज एक साल में रोजमर्रा की चीजों में तीस से पैंतालीस फीसदी तक की बढ़ोतरी हो गई है। जाहिर है, लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना सुनक के लिए इतना आसान नहीं होगा। ऐसे में, सुनक ने जिस सख्ती का संकेत कुर्सी संभालते ही दिया, वह उन्हें मजबूत करेगी या कमजोर इसे समझने के लिए ब्रिटेन की मानसिकता और मौजूदा परिस्थिति को समझना होगा।
सुनक की मुश्किलें उसी दिन से शुरू हो गईं जब वे पहली बार संसद में विपक्ष के सवालों का जवाब दे रहे थे। प्रमुख विपक्षी दल लेबर पार्टी के नेता केर स्टार्मर ने पहले तो जनता द्वारा चुन कर नहीं आने के लिए सुनक का मजाक उड़ाया और फिर सदन में दूसरी भारतवंशी सुएला ब्रेवरमैन को दोबारा गृह मंत्री बनाए जाने को लेकर कठघरे में खड़ा किया, जबकि महज एक हफ्ते पहले ही ईमेल लीक होने के मामले में सुएला से पूर्व प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने इस्तीफा ले लिया था। साथ ही सुएला ने लिज की योजनाओं के खिलाफ जाकर आप्रवासियों पर ऐसे बयान दिए थे जिससे भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते की मियाद अनिश्तिकाल के लिए बढ़ गई। ऐसे में सुनक पर अतंरराष्ट्रीय संबंधों को भी मजबूत करने का दबाव रहेगा।
सुनक की आर्थिक नीतियों में सख्ती का परिणाम दिखने भी लगा है। बैंक ऑफ इंग्लैंड ने ब्याज दर में बढ़ोतरी कर दी है और इसके प्रभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि ब्रिटेन की सबसे बड़ी प्रॉपर्टी वेबसाइट ने लिखा कि यह एक युग का अंत है क्योंकि ब्रिटेन दुनिया के चंद देशों में है, जो होम लोन पर महज दो फीसदी के आसपास सालाना ब्याज लेता रहा है। पहली बार ब्रिटेन में पिछले 30 साल में ब्याज दर में एकमुश्त तीन-चौथाई फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। आज ब्याज दर पिछले आठ साल में सबसे ज्यादा है। एक तरफ महंगाई, दूसरी तरफ रोजगार की कमी और ऊपर से बैंकों का महंगा कर्ज निश्चित तौर पर लोकलुभावन राजनीति का तरीका तो नहीं है।
ऐसे में ब्रिटेन की लगातार खराब हो रही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की जिम्मेदारी अब पूरी तरह प्रधानमंत्री और पूर्व इन्वेस्टमेंट बैंकर ऋषि सुनक के ही कंधों पर है। कोविड-19 महामारी की शुरुआत में तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की कुछ गलत नीतियों के चलते देश में जो हालात पैदा हुए, उसे सुनक ने बखूबी संभाला और वहीं से वे लोगों के दिल में जगह बनाने लगे। कोविड में जब सारी दुनिया परेशान थी, लोग घरों में कैद थे, तब सुनक ने बतौर वित्त मंत्री कई सारी योजनाओं के तहत आम जनता को फायदा पहुंचाया। अब बतौर प्रधानमंत्री देश के लगभग 43 अरब डॉलर के बजट घाटे को पूरा करना और साथ ही जनता के हितों का ध्यान रखते हुए उनकी मांगों को मानना आसान नहीं होगा। दरअसल यही संतुलन इस वक्त सुनक की सबसे बड़ी चुनौती है।
सुनक को यह भी याद रखना होगा कि वे अपनी कंजर्वेटिव पार्टी के सासंदों की पहली पसंद हैं लेकिन उनकी पार्टी के तकरीबन एक लाख साठ हजार सदस्यों ने उनको दो महीने पहले ही प्रधानमंत्री की रेस में दूसरे नंबर पर धकेल दिया था, जब लिज ट्रस को सत्तावन फीसदी और सुनक को महज बयालीस फीसदी वोट मिले थे। इस मामले पर ब्रिटेन में इंजीनियर और भारतीय मूल के व्यवसायी, ओवरसीज फ्रेंड्स और भाजपा के महासचिव सुरेश मंगलगिरी साफ कहते हैं कि सुनक भले ही विपक्षियों को थोपे हुए प्रधानमंत्री लगते हैं लेकिन अगर उनकी पार्टी ने निर्विरोध निर्वाचित किया है तो प्रचंड बहुमत यानी 357 सीटों के साथ सत्ता में बैठी कंजर्वेटिव पार्टी को सुनक की नीतियों में उम्मीद दिखती होगी तभी वे एकजुट होकर उनके साथ खड़े हैं। 17 नवंबर को सुनक की सरकार ने संसद में पेश की अपनी वित्तीय योजना में इशारा किया कि सुनक ने 26 अक्टूबर को संसद में अपने पहले बयान में देश से जो वादा किया था, उसे वे पूरा करेंगे। इसी पर निर्भर है कि वे 2024 के आखिर में होने वाले आम चुनाव में अपनी नीतियों से दोबारा सत्ता में वापसी करेंगे या नहीं। वही हैं जो विपक्षी लेबर पार्टी के नेता केर स्टार्मर का जवाब हर जगह दे सकते हैं।
सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना निश्चित तौर पर विश्व इतिहास की एक बड़ी घटना है। सुनक बतौर भारतवंशी या एशियाई या गैर-ब्रिटिश, ब्रिटेन की उस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो लंबे समय से नस्लवादी पार्टी मानी जाती रही है। चाहे विंस्टन चर्चिल हों या फिर इनोच पॉवेल या फिर दूसरे, सभी की मानसिकता से दुनिया वाकिफ रही है। सही मायनों में डेविड कैमरन ने इसमें बदलाव की शुरुआत की और बोरिस जॉनसन ने अपने छोटे से कार्यकाल में पार्टी की एक अलग छवि बनाई। अब सुनक को प्रधानमंत्री बनाकर कंजर्वेटिव पार्टी ने निश्चित तौर पर अपने प्रमुख विपक्षी लेबर पार्टी पर बढ़त बनाई है लेकिन इस बढ़त के साथ-साथ देश को पटरी पर लाने और जनता को तात्कालिक राहत देते हुए उनके भविष्य को मजबूत करने के रास्ते में सुनक को कठिनाइयां झेलनी होंगी।
यूरोपीय संघ (ईयू) से बाहर आने के बाद यूरोप से होने वाले कारोबार में टैक्स की मार और चीन से ब्रिटेन की रणनीतिक दूरी की वजह से ब्रिटेन के लिए भारत और दूसरे एशियाई देशों से मुक्त व्यापार की ओर आगे बढ़ना ही होगा। लिज ट्रस की सरकार के वक्त गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन के बयान के बाद पैदा हुई थोड़ी तल्खी को बड़े सलीके से सुनक ने निपटाने का प्रयास शुरू किया जब प्रधानमंत्री बनने के तीसरे ही दिन विदेश मंत्री जेम्स क्लेवली को भारत दौरे पर भेज दिया। आज जितनी जरूरत भारत को ब्रिटेन की है उससे कहीं ज्यादा जरूरत ब्रिटेन को भारत की है क्योंकि भारत के तौर पर उसे एक ऐसा बाजार मिल सकता है जिसने अर्थव्यवस्था के पायदान पर अभी-अभी उसे पीछे छोड़ा है। इस बात का एहसास भारत और ब्रिटेन दोनों को है, तभी तो सुएला के पूर्व के बयानों पर भारत ने कोई कड़ी प्रतिक्रिया नहीं जताई। संसद में सुएला ने भारत को जरूरी पार्टनर देश बताया और बगल में बैठे व्यापार मंत्री की ओर देखकर मुस्कराईं, जब विपक्ष ने कहा कि आप्रवासियों और भारत पर उनका क्या रुख है।
सुनक के ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बनते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बधाई संदेश ट्वीट किया था उसमें सिर्फ इस बात का जिक्र था कि “मैं आपके साथ वैश्विक मुद्दों पर मिलकर काम करने और रोडमैप 2030 को लागू करने की अपेक्षा कर रहा हूं।” सुनक की प्राथमिकता हालांकि ब्रिटेन को पटरी पर लाने की है। उनके तरीकों से यह झलकने भी लगा है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं)