श्रीलंका-मालदीव, बने मोदी की चुनौती
अंतर्राष्ट्रीय मंच पर खासतौर से दक्षिण एशिया में कूटनीतिक चालें बड़ी दूर की मार करने वाली हो रही है। जिस श्रीलंका में अपने पसंद की सरकार बनवाने के बाद से भारत नेतृत्व को लगने लगा था कि उसने बड़ी जीत हासिल कर ली, ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा। श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने जिस तरह से आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करते हुए भारतीय मछुआरों को मारने के पक्ष में बयान दिया, वह खतरनाक संकेत हैं। श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री राजपक्षे को चुनाव में हराकर रानिल के प्रधानमंत्री बनाने में भारत की सक्रिय भूमिका रही है, जिसके बारे में यूरोप के कई अखबारों में चर्चा भी रही। ऐसे में नए प्रधानमंत्री के इस बयान से गंभीर अर्थ निकलते हैं।
कूटनीति की दुनिया में भारत की तुलना में छोटे देश हैं मालदीव और श्रीलंका। दोनों देशों का भारत के प्रति प्रतिकूल रवैया अपनाने के पीछे किस तीसरी शक्ति का हाथ हो सकता है। क्या वह शक्ति चीन है, क्योंकि इस इलाके में चीन का दखल भी बहुत तेजी से बढ़ रहा है। बिना किसी बड़ी शक्ति के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन के मालदीव और श्रीलंका जैसे अस्थिर राजनीतिक-आर्थिक सत्ताओं के लिए भारत से छोटा टकराव संभव नहीं है।
इसके साथ-साथ यह भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश नीति में चलाए जा रहे पब्लिक रिलेशन के लिए भी एक सबक है। अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में आपके किस कदम की छाया कहां पड़ेगी, यह पहले से कयास लगाना जरूरी है। मिसाल के तौर पर भारत-पाक समुद्री सीमा पर एक पाक नाव को लेकर हुए विवाद में उस नाव को भारत द्वारा उड़ाने की बात सामने आई। अब श्रीलंका का यह कहना कि अगर कोई भारतीय मछुआरा उनकी सीमा में घुसता है, तो वे उसे नहीं छोड़ेंगे। ठीक उसी तरह से भारत ने मालवदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की गिरफ्तारी पर एतराज जताया था, जिसे मालदीव ने पसंद नहीं किया था। मालदीव की नापंसदगी से नरेंद्र मोदी सरकार को लगा कि इस यात्रा से कुछ हासिल करना मुश्किल है। आनन-फानन में प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा रद्द कर दी गई।
श्रीलंका हो या मालदीव, दोनों के बदले हुए रुख भारत के लिए परेशानी का सबब है हीं, खासकर मोदी के पीआर आधारित विदेशी कदमों के लिए।