दिल्ली में भुखमरी के कगार पर रोहिंग्या मुसलमान
भारत के पड़ोसी देश बर्मा के हालात से तंग आकर अपनी जान बचाने के लिए वहां से असंख्य मुसलमानों ने वहां से पलायन करना शुरू कर दिया था। इस समय दिल्ली में अंदाजन 10,000 रोहिंग्या मुसलमान रह रहे हैं। दिल्ली में तीन-चार जगह इनकी बस्तियां हैं। इनमें से कालिंदि कुंज के पास कंचनकुंज सबसे पुरानी बस्ती है। अहम बात यह है कि जिस प्रकार भारत में अन्य शरणार्थियों को सुविधाएं मिली हुई हैं वैसी सुविधाएं रोहिंग्या मुसलमानों को नहीं मिली हैं।
कंचनकुंज में 1100 गज की जमीन पर ये 300 परिवार रह रहे हैं। खाने से लेकर रोजगार तक की समस्या से जूझ रहे हैं। तस्लीमा का पति पास के पार्क में काम करता है। तीस वर्षीय शाबर के परिवार में छह लोग हैं और कमाने वाला अकेला उसका पति। वह दिहाड़ी मजदूर है। सूफिया अख्तर बताती है कि उसका पति किराये का ऑटो चलाता है। उसका पति कबीर अहमद का कहना है, ‘यूएन की ओर से हमें वो सब नहीं मिला जो अन्य शरणार्थियों को मिला है।‘ इन्हें यहां रहने के लिए जमीन जकार्त फाउंडेशन ने दी है। अब एमसीडी यहां के कुछ घरों से जमीन खाली करवा रही है। कबीर अहमद का कहना है कि शरणार्थी कार्ड होने के बावजूद भी हमें किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं मिल रही।
हालांकि कुछ एनजीओ यहां दवाई आदि बांटने के लिए आते हैं लेकिन किसी बड़ी बीमारी में इन्हें कोई सहायता नहीं है। यहां रहने वाले मोहम्मद हारून बताते हैं, ‘बर्मा में हम सभी लोग या तो किसान थे या कारोबारी। वहां जिनके पास ज्यादा पैसा था वे मलेशिया या सउदी चले गए। बहुत से लोग भारत आ गए।‘ इनके किसी के पास रोजगार नहीं है। नीचे की ओर गड्ढे में इनके घर बने हैं। बरसात में यहां पानी भर जाता है और सांप निकलते हैं। अभी तक सांप काटने से यहां तीन बच्चों की मौत हो चुकी है।
नंगे बच्चे, ठसे हुए सामान से प्लाईबोर्ड की दीवारों से बना ऐसा कमरा जिसमें लेटना भी मुश्किल है। कमरों में अंधेरा और बदबू। आसपास कोई बाजार नहीं। कोई अस्पताल नहीं। खाने तक को रोटी नहीं। सूफिया परात में कुछ पत्ते बीन रही है। ये पत्ते लौकी की बेल के पत्ते हैं। बताती है कि आज चावल के साथ यह पत्ते उबाल कर बनाए जाएंगे। ज्यादातर इनके घरों में सिर्फ उबला चावल और लौकी के पत्ते बनते हैं। मोहम्मद हारून का कहना है कि हमें कुछ नहीं चाहिए सिर्फ रहने को जमीन मिल जाए उसपर मकान हम खुद बना लेंगे।
इस कॉलोनी में काम कर रहे दि स्पिरिट फाउंडेशन संस्था के मोहम्मद अनीसुर रहमान का कहना है कि अगर फंड्स लेने की बात होती है कि बर्मा से आए मुसलमानों पर कौन-कौन सी संस्था काम कर रही है तो कई सौ संस्थाएं सामने आ जाती हैं, इनके नाम पर न जाने कितने एनजीओ पैसा कमा रहे हैं लेकिन असल में तो रोहिंग्या मुसलमान रोटी और तन पर कपड़े तक से भी बेजार हैं। रहमान यहां रहने वाले बच्चों को पढ़ाने का काम करते हैं और अपनी जान-पहचान वालों से बच्चों को कॉपी-पेंसिल आदि दिलवा देते हैं। उनका कहना है कि ‘अकेले तो इतना ही काम हो सकता है।’