एक नए पड़ोसी रिश्ते की आस
पिछले दस वर्षों से श्रीलंका पर शासन कर रहे महिंदा राजपक्षे को आम चुनाव में दोहरा झटका लगा। जीत की खुशफहमी में चुनाव की तारीख दो साल पहले घोषित करके उन्होंने नई रणनीति अपनाई लेकिन चुनावी घोषणा के दूसरे दिन ही पहला झटका उन्हें अपने करीबी सहयोगी और राजपक्षे सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रह चुके मैत्रीपाल सिरिसेना ने दिया और विपक्षी गठबंधन के साथ हाथ मिला लिया। राजपक्षे को दूसरा जबर्दस्त झटका चुनाव नतीजों से मिला जो पूरे दक्षिण एशिया के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है। वैसे जमीनी हकीकत देखी जाए तो राजपक्षे की तानाशाही से तमिल और मुस्लिम ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक सिंहली भी खासे नाराज थे। पहली बार सन 2005 में वोटों के मामूली अंतर से जीतकर सरकार बनाने वाले राजपक्षे को जनता सिर-आंखों पर बिठा लिया था क्योंकि सत्ता में आते ही उन्होंने 25 साल से चले आ रहे गृहयुद्ध को समाप्त करने में सफलता पाई तथा देश को लिबरेशन ऑफ टाइगर तमिल ईलम (लिट्टे) से मुक्त कराया। जनता ने भी उन्हें बतौर रिटर्न गिफ्ट सन 2010 में दोबारा सत्ता सौंपी। लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल से ही उन्होंने अपनी शराफत का चोला उतार फेंका और निरंकुशता की सभी हदें पार कर दी। सिरिसेना की जीत और राजपक्षे की हार से भारत को चीनी कूटनीति से राहत मिलने की उम्मीद जगी है क्योंकि सिरिसेना ने साफ कहा है कि वह चीन के साथ भारत को घेरने वाले सभी समझौतों की समीक्षा करेंगे। इस लिहाज से भारत कम-से-कम एक पड़ोसी देश की तरफ से शांति और राहत की बयार की अपेक्षा तो कर ही सकता है।
भारत यह भी उम्मीद करता है कि सिरिसेना तमिलों के साथ हो रहे अन्याय का दौर खत्म करेंगे और श्रीलंका के संविधान में तमिलों को ज्यादा अधिकार देने वाले 13वें संशोधन को ईमानदारी से लागू करेंगे। दरअसल, राजपक्षे ने देश के सभी महत्वपूर्ण पदों की रेवडिय़ां न सिर्फ अपने रिश्तेदारों में बांट दी थी बल्कि संविधान में धीरे-धीरे बदलाव करते हुए तमाम कार्यकारी शक्तियां अपने हाथ में ले ली थी। लिहाजा कार्यपालिका के वास्तविक प्रमुख प्रधानमंत्री की हैसियत भी बौनी हो गई। संविधान में सबसे बड़ा बदलाव करके ही वह तीसरी बार चुनाव मैदान में उतरे थे जबकि इससे पहले राष्ट्रपति को सिर्फ दो कार्यकाल तक ही शासन चलाने और चुनाव लडऩे का अधिकार प्राप्त था। उनके इस तरह के स्वेच्छाचारी रवैये से भारत-श्रीलंका-चीन के रिश्तों में भी लंबे समय से तनाव महसूस किया जा रहा था। चीन की मदद से जहां श्रीलंका में कई बड़ी ढांचागत परियोजनाएं चल रही हैं, जिन पर भारत का एतराज लाजिमी है, वहीं सन 1987 में हुए 13वें संविधान संशोधन को भी तमिल टाइगर्स के निरंतर हिंसक विद्रोह के कारण लागू करने में दिक्कत आ रही थी जिसमें श्रीलंका के तमिलों और सिंहल समुदायों में भाषायी एवं अन्य भेदभाव दूर करने का प्रावधान था। लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण के मारे जाने के बाद भारत बार-बार जोर देता रहा कि तमिलों के अधिकार बहाल किए जाएं लेकिन राजपक्षे इसे लेकर लगातार कन्नी काट रहे थे। राजपक्षे सरकार से तमिलों की सुरक्षा और अधिकार की जोरदार पैरवी करने के साथ ही भारत ने तमिल विस्थापितों के पुनर्वास के लिए तकरीबन 50 लाख मकान भी बनवाए हैं। वहीं दूसरी तरफ तमिलों और अल्पसंख्यकों के साथ श्रीलंका सरकार का पक्षपातपूर्ण रवैया एवं कट्टरवादी हिंसक घटनाएं जारी रहीं। बेशक वहां तमिल विद्रोह समाप्त हो चुका है लेकिन इस बीच कट्टरपंथी ताकतें भी उभरी हैं और भ्रष्टाचार के मामले भी बढ़े हैं। देश की तेरह प्रतिशत आबादी वाले तमिल इलाकों में राजपक्षे के सैन्य अभियान को लेकर गुस्सा तो था ही, पुनर्वास में ढिलाई और कई अन्य विकास कार्यक्रमों के प्रति राजपक्षे की उदासीनता से भी नाराज जनता ने विपक्षी गठबंधन के पक्ष में बढ़-चढक़र मतदान किया।
सिरिसेना सिंहली बहुल इलाकों के अलावा तमिल-बहुल और मुस्लिम-बहुल इलाकों में खासे लोकप्रिय नेता माने जाते हैं और ग्रामीण उत्तर-मध्य प्रांत के निवासी इस नेता की पहचान एक जमीनी नेता के रूप में है। सिरिसेना की इस जीत से श्रीलंका और भारत में रहने वाले तमिल काफी खुश हैं। सिरिसेना दूसरे विश्वयुद्ध के सैनिक के बेटे हैं और सरकारी सेवा में भी रह चुके हैं। उन्होंने पहली बार सन 1989 में संसदीय चुनाव जीता था और उस वक्त उनकी श्रीलंका फ्रीडम पार्टी को चुनाव लडऩे के लिए उम्मीदवार तक नहीं मिल रहे थे लेकिन उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लिट्टे ने उन्हें मारने के लिए पांच बार कोशिशें की। राजपक्षे के विश्वासघात के आरोपों को नकारते हुए उन्होंने चुनाव जीतने के बाद राजपक्षे के परिवार का खात्मा, समानता भरे समाज का निर्माण, सुशासन और प्रधानमंत्री को सभी कार्यकारी शक्तियां हस्तांतरित करने का वादा किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि विरोधियों से बदला तो नहीं लेंगे लेकिन श्रीलंका और चीन के गुपचुप रिश्तों की समीक्षा करेंगे और बौद्ध धर्म को बढ़ावा देंगे। इस लिहाज से एक दशक बाद भारत-श्रीलंका के बीच एक सौहार्दपूर्ण रिश्ते की इबारत लिखे जाने की अपेक्षा की जानी चाहिए।
लेखिका जवाहरलाल विश्वविद्यालय में रूसी भाषा की सहायक प्रोफेसर