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23 July 2015

कहां पहुंची नेपाल में संविधान निर्माण की राजनीति

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इस सिलसिले में पूर्व नेपाली प्रधानमंत्री और नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देऊबा तथा उन्हीं की पार्टी के सहयोगी प्रदीप गिरि, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) के माधव नेपाल, और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल (प्रचंड) को विदेश मंत्रालय ने बातचीत के लिए भारत आमंत्रित किया। प्रचंड अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य भारतीय उच्चाधिकारियों से मिलकर नेपाल लौटे हैं। 

प्रस्तावित संविधान में दो मुद्दों पर मामला अभी अटका हुआ है। पहला, हिंदु राष्ट्र बनाम धर्मनिरपेक्षता का मसला और दूसरा, संघीयता का मसला। पहले मसले पर लगभग यह सहमति बनती जा रही है कि संविधान में नेपाल को हिंदुराष्ट्र या हिंदु राज्य न लिखा जाए पर उसे धर्मनिरपेक्ष गणराज्य भी न कहा जाए। बिना स्पष्ट उल्लेख के संविधान में धर्मनिरपेक्षता को समायोजित करने की कोशिश की जाए, इस बात के पक्ष में नेपाली कांग्रेस और नेकपा (एमाले) के कई असरदार हिस्से बातचीत में अपनी राय जाहिर करते रहे हैं। उनका कहना है कि इमरजेंसी के दाैरान भारतीय संविधान की प्रस्तावना में संशोधन के पूर्व जैसे भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द का स्पष्ट प्रयोग नहीं किया गया था फिर भी वह अपनी प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष था, उसी तरह नेपाल के प्रस्तावित संविधान में भी धर्मनिरपेक्ष शब्द का स्पष्ट प्रयोग न करते हुए उसे अपने स्वरूप में धर्मनिरपेक्ष बनाया जा सकता है। हालांकि कुछ धुर दक्षिणपंथी गुट संविधान में नेपाल को हिंदुराष्ट्र घोषित करने और अन्य धर्मों की गतिविधियों को सीमित करने की मांग अब भी जोर-शोर से उठाते हैं, लेकिन मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में उसकी गूंज नहीं है। यह जरूर है कि नेपाली कांग्रेस और नेकपा (एमाले) के भी कई नेता ईसाई मिश‌नरियों की गतिविधियों के प्रति चिंता जाहिर करते हैं और धर्मातंरण पर पाबंदियों के पक्षधर हैं। भारत के सत्तारूढ़ दल एवं सरकार के राजनीतिक नेता धर्मांतरण के साथ-साथ नेपाल में हिंदुओं और बाैद्धों से इतर धर्मस्‍थलों और उपासना गृहों के निर्माण पर भी पाबंदियों के लिए सूक्ष्म दबाव डाल रहे हैं। लेकिन नेपाल के माओवादी अभी तक संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द के स्पष्ट उल्लेख पर अडिग हैं। 

प्रस्तावित संविधान में गतिरोध  का दूसरा अहम मसला प्रस्तावित नेपाली गणराज्य में संघीय ढांचे का है। मुख्यधारा की पार्टियां नए संघीय नेपाल में अलग मधेस या तराई प्रदेश की मांग को लेकर दृढ़ हैं। लेकिन यह मांग मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दलों में और नेपाल के पूरे तंत्र में प्रभावशाली पहाड़ी नेतृत्व को उसी स्वरूप में मंजूर नहीं हैं। माओवादी नए नेपाल गणराज्य की संघीयता को समुदाय और जनजातीय आधारित बनाना चाहते हैं न कि क्षेत्र आधारित। बीच के रास्ते के तौर पर नेपाली कांग्रेस और नेकपा (एमाले) के प्रभावशाली तबके संघीय प्रदेशों का निर्माण उत्तर से दक्षिण आने वाली लंबवत सीमाओं के अाधार पर मानने को राजी होते दीखते हैं, हालांकि नेकपा (एमाले) के नेता और भविष्य में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के.पी. ओली संघीय गणराज्य खासकर मधेश या तराई प्रदेश के निर्माण का अपनी पार्टी में सबसे मुखर विरोध करने लगे हैं। चूंकि पिछले दिनों भारतीय प्रतिष्ठान और उनकी सोच में कई मसलों पर तालमेल दिखाई पड़ता रहा है, इसलिए यहां विदेश मंत्रालय में उनके इस मुखर स्टैंड पर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है। भारतीय विदेश मंत्रालय का एक हिस्सा यह भी संकेत दे रहा है कि भारत अभी इस बात को लेकर ज्यादा चिंतित है कि नेपाल में इस माह की समय सीमा के पूर्व संविधान बन जाए, भले ही इसके लिए संघीय स्वरूप के सवाल को आगे के लिए स्‍थगित छोड़ दिया जाए। 

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लेकिन भारत की परेशानी यह है कि लगभग 1980 के दशक से अब तक नेपाल के मधेसी आंदोलन में उसने इतना राजनीतिक निवेश किया है कि उससे किनारा कर लेना मधेसियों में वर्तमान भारत सरकार के प्रति मोह भंग पैदा कर सकता है। इसका राजनीतिक असर भारत के बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे सीमावर्ती राज्यों पर भी पड़ सकता है। मधेसी जिस तरह का संघीय गणराज्य चाहते हैं वह पूरब से पश्चिम जाने वाली क्षैतिज सीमाओं वाले प्रदेशों के निर्माण पर आधारित है, जिनमें से एक प्रदेश मधेस या तराई का, दूसरा मध्यवर्ती पहाड़ाें का और तीसरा, उच्च पर्वतीय क्षेत्र का होगा। 

बहरहाल, भारत सरकार इन पेचीदिगियों के बीच कोई सहमति का रास्ता निकालने की कोशिश नेपाल के राजनीतिक दलों के साथ कर रही है। 

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TAGS: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, शेर बहादुर देओबा, प्रदीप गिरि, के.पी. ओली, नेकपा, माधव नेपाल, भारतीय विदेश मंत्रालय, माओवादी, संविधान, नेपाल गणराज्य, मधेश या तराई, बिहार, उत्तरप्रदेश
OUTLOOK 23 July, 2015
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