गर्मियों में जैसे ही तापमान बढ़ता है, एयर कंडीशनर (एसी) का रिमोट हाथ में आ जाता है। हमारे लिए एसी अब लक्ज़री नहीं, ज़रूरत बन चुका है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जिस मशीन से आप अपने कमरे को ठंडा कर रहे हैं, वह असल में धरती को और गर्म करने में अहम भूमिका निभा रही है? एसी की यह सुविधा जलवायु परिवर्तन की आग में घी डाल रही है। और यह सिर्फ तकनीकी या पर्यावरणीय सवाल नहीं है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और नैतिक सवाल भी बन चुका है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की एक रिपोर्ट के अनुसार, यदि दुनिया ने रेफ्रिजरेशन और एयर कंडीशनिंग के क्षेत्र में तेजी से सुधार नहीं किया, तो इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि अकेले HFC (हाइड्रोफ्लोरोकार्बन्स) गैसों की वजह से हो सकती है। और यह उस समय हो रहा है जब पेरिस समझौते के तहत सभी देश इस वृद्धि को 1.5 डिग्री के भीतर रखने का संकल्प ले चुके हैं।
भारत में एसी का बाजार साल दर साल तेजी से बढ़ रहा है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (IEA) की 2022 की रिपोर्ट कहती है कि भारत में 2030 तक एयर कंडीशनरों की संख्या तीन गुना बढ़ जाएगी और 2050 तक देश की बिजली खपत का 45% सिर्फ कूलिंग में चला जाएगा। यही नहीं, रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत जैसे विकासशील देशों में कूलिंग की मांग इतनी तेजी से बढ़ रही है कि अगर समय रहते सुधार न किया गया, तो यह ऊर्जा संकट और जलवायु संकट को और गंभीर बना सकता है।
एसी से निकलने वाली ठंडी हवा दरअसल कमरे की गर्मी को बाहर फेंकती है। जितनी ठंडक आपको मिलती है, उतनी ही गर्मी बाहर के वातावरण में जाती है। और जब शहर के हर फ्लैट, दफ्तर और मॉल में एक साथ एसी चल रहे हों, तो यह “अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट” पैदा करता है – यानी शहरी इलाकों का तापमान आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से कई डिग्री ज्यादा हो जाता है। MIT के एक शोध के अनुसार, दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में एसी की वजह से गर्मी के दिनों में तापमान 1.5 से 2 डिग्री तक ज्यादा हो सकता है।
लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं होता। एसी में इस्तेमाल होने वाली गैसें खासतौर पर HFCs वातावरण के लिए खतरनाक हैं। ये गैसें कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में हजारों गुना ज्यादा ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करती हैं। उदाहरण के लिए, HFC-134a गैस का ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल (GWP) 1,430 है यानी इसका असर CO₂ से 1,430 गुना ज्यादा है।
जलवायु विज्ञान के जानकार और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया की प्रोफेसर वीरभद्रम रामनाथन कहते हैं, “यह ठंडक की तकनीक धरती को उबालने की दिशा में धकेल रही है।" एक अन्य रिपोर्ट “Cooling Emissions and Policy Synthesis Report 2020” के अनुसार, यदि दुनिया भर में कूलिंग सिस्टम्स में सुधार कर दिया जाए और उच्च GWP गैसों को चरणबद्ध रूप से हटाया जाए, तो 2100 तक लगभग 460 गीगाटन CO₂ के बराबर उत्सर्जन को रोका जा सकता है।
भारत में यह संकट और भी जटिल हो जाता है क्योंकि यहां की विशाल जनसंख्या, तेजी से बढ़ता शहरीकरण और अत्यधिक गर्मी मिलकर एसी की मांग को लगातार बढ़ा रहे हैं। लेकिन इसका सामाजिक पक्ष भी है। एक ओर मॉल, कॉरपोरेट ऑफिस और अमीरों के घर एसी से ठंडे रहते हैं, वहीं दूसरी ओर झुग्गियों और गरीब बस्तियों में लोग लू से मर रहे होते हैं। यह एक "थर्मल असमानता" (thermal inequality) है। यानी ठंडक अमीरों को मिलती है और गर्मी गरीबों को भुगतनी पड़ती है।
सीएसई की एक रिपोर्ट में जलवायु एक्टिविस्ट सुनीता नारायण कहती हैं, “एसी अब सिर्फ पर्यावरण का सवाल नहीं रहा, यह सामाजिक न्याय का सवाल बन चुका है। जब शहर के अमीर वर्ग ठंडी हवा का आनंद ले रहे होते हैं, तब उसका असर गरीबों की गर्म होती बस्तियों में साफ दिखता है।”
इसका हल क्या हो सकता है?
सबसे पहले, ऊर्जा कुशल एसी को बढ़ावा देना ज़रूरी है। भारत सरकार की 'स्टार रेटिंग' प्रणाली इसी दिशा में एक कदम है, जिससे उपभोक्ता यह जान सकते हैं कि कौन सा एसी कम बिजली में ज्यादा ठंडक देता है। इसके साथ ही रेफ्रिजरेंट्स को बदलना होगा। अब तकनीक वहां पहुंच चुकी है कि प्राकृतिक गैसों जैसे अमोनिया, CO₂ या हाइड्रोकार्बन आधारित रेफ्रिजरेंट्स का इस्तेमाल किया जा सकता है जो पर्यावरण के लिए कम हानिकारक हैं।
दूसरा, हमें पारंपरिक भारतीय वास्तुकला की ओर लौटने की जरूरत है। मोटी दीवारें, ऊंची छतें, जालीदार खिड़कियां, और क्रॉस वेंटिलेशन – ये सब बिना एसी के भी गर्मी से राहत देते थे। राजस्थान के हवेलियों और दक्षिण भारत के मंदिरों की संरचना आज भी इसकी मिसाल है। इसी को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने 2019 में “India Cooling Action Plan” (ICAP) शुरू किया है, जिसका उद्देश्य 2038 तक कुल कूलिंग डिमांड को 25-30% तक कम करना है।
तीसरा, नागरिकों की जागरूकता। हमें समझना होगा कि एसी का हर बार का इस्तेमाल केवल बिजली का बिल नहीं बढ़ाता, बल्कि धरती का तापमान भी बढ़ाता है। जैसे हम पानी और बिजली की बचत के लिए सोचते हैं, वैसे ही कूलिंग को लेकर भी संयम बरतना ज़रूरी है।
आखिर में, नीति-निर्माताओं और शहरी योजनाकारों को यह मानना होगा कि हर समस्या का हल मशीनों से नहीं निकलेगा। अगर हम आने वाली पीढ़ियों को एक रहने योग्य ग्रह देना चाहते हैं, तो 'कूलिंग' के विचार को सिर्फ मशीनों से नहीं, प्राकृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी देखना होगा।
द गार्जियन की एक रिपोर्ट में, प्रसिद्ध पर्यावरण चिंतक जॉर्ज मोनबियोट लिखते हैं, “हम जलवायु संकट को उसी मानसिकता से नहीं हल कर सकते, जिससे हमने इसे पैदा किया है – उपभोग की भूख और सुविधा की लत।”
तो अगली बार जब आप एसी का रिमोट उठाएं, तो एक बार ठहरकर सोचिए- क्या यह सिर्फ आपकी ठंडक है, या किसी और की गर्मी की कीमत पर खरीदी गई सुकून?