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पंकज त्रिपाठी: बेशुमार किस्सों में भीगा अभिनेता

“आस-पड़ोस में चलती-फिरती, टहलती कहानियों के बीच उन्होंने सीखी सहजता” पंकज मेरे पटना के दिनों के...
पंकज त्रिपाठी: बेशुमार किस्सों में भीगा अभिनेता

“आस-पड़ोस में चलती-फिरती, टहलती कहानियों के बीच उन्होंने सीखी सहजता”

पंकज मेरे पटना के दिनों के मित्र हैं। पच्चीस साल पहले उन्हें मंच पर देखना भी एक अनुभव था, जब वे प्रशिक्षित अभिनेता नहीं थे। ऐसा लगता था कि यह शख्स अभिनेता के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता। उन दिनों जब मैं कहता था कि आप मंच पर इतने सहज कैसे रह लेते हैं, तो उनका जवाब होता था कि वह ऐसे गांव से आए हैं, जहां कहानियां आस-पड़ोस में चलती-फिरती, टहलती रही हैं। उन कहानियों के बीच एक किरदार की तरह वे भी रहते आए हैं।

हम पटना के एक ही थिएटर ग्रुप में थे और हमने कुछ नाटकों में साथ काम किया। कुछ साल पहले उनकी पत्नी मृदुला ने मुझे एक तस्वीर भेजी, जिसमें मैं भी था। हम रेणु के रंग किया करते थे, जो फणीश्वरनाथ रेणु की तीन कहानियों का कोलॉज था- पंचलाइट, रसप्रिया और ना जाने केहि वेश में। दिल्ली में श्रीराम कला केंद्र से लेकर इंडिया हैबिटैट सेंटर जैसी जगहों पर उनकी प्रस्तुति हुई। 1999 की बात है। तस्वीर उन्हीं दिनों की है। उस यात्रा में साथी रंगकर्मी समझ गए कि मैं अभिनेता नहीं, बस कवि हूं। आज तक पंकज और हमारी रंग टोली के साथी मुझे ‘कवि जी’ ही कहती है।

पटना में हमारा लगभग रोज का साथ था, लेकिन एक दिन मैं अखबार का संपादक बन गया। मेरी रंग गतिविधियां कम हो गईं। उन्हीं दिनों पंकज दिल्ली राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पहुंच गए। कुछ दिनों बाद मैं अखबार के ही एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में साल भर के लिए दिल्ली गया। वहां अक्सर पंकज से मेरी मुलाकात होती थी। कभी वे मेरे घर आ जाते थे, कभी मैं उनके छात्रावास चला जाता था। माटी-पानी से उनका जुड़ाव हमेशा नजर आता था।

हम दोनों अलग-अलग राह पर थे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बाद वे मुंबई चले गए और मैं पटना के बाद झांसी, रांची, देवघर होता हुआ दिल्ली शिफ्ट हो गया। लेकिन हम एक दूसरे से कभी दूर नहीं हुए। मेरा मुंबई आना-जाना होता था। वहां भी अपने संघर्ष से ज्यादा वे मुझे गांव की कहानियां सुनाते रहते थे।

कुछ साल पहले जब मुझे जोर का सिनेमा लगा, तो मुंबई पहुंच कर सीधे पंकज भाई के घर चला गया। उन्होंने कहा कि आप पूरी कास्ट कर लीजिए, जो भूमिका बचे, वह मुझे दे दीजिएगा। मैंने फिल्म अनारकली ऑफ आरा में पंकज त्रिपाठी को भूमिका दी। जिस पंकज को मैं नाटक के दिनों से जानता था, वह अतरंगी, लोचदार, खूबसूरत इनसान था। रंगीला की भूमिका में उन्होंने जान डाल दी। फिल्म बनाने में भी उन्होंने बहुत मदद की, क्योंकि वह मेरी पहली फिल्म थी।

पंकज का एक अलग मानवीय पक्ष भी है। कोरोना महामारी के लॉकडाउन के दिनों में उन्होंने मुंबई में कई लोगों की मदद की। जिनकी की, उन्होंने ही बताया। ऐसे ही हमारे एक कॉमन पत्रकार दोस्त को कैंसर हो गया। लोगों ने सोशल मीडिया पर उनके लिए मदद की अपील की। पंकज को पता चला, तो उन्होंने दो इंस्टॉलमेंट में अच्छी-खासी रकम ट्रांसफर कर दी। पिछले दिनों जब मैं कैंसरग्रस्त दोस्त से मिलने गया, तो उन्होंने बताया। चुपचाप मदद करना पंकज त्रिपाठी की आदत है। मेरे बाबूजी के गुजर जाने के बाद मेरी बेटी थोड़ी उदास रहने लगी, तो पंकज की पत्नी मृदुला एक नन्हा-सा कुत्ता लेकर आ गईं। उसका नाम मेरी बेटी ने काजू रखा है। आज भी मृदुला जी या पंकज भाई को वह कहीं देख लेता है, तो तूफान की तरह उनकी ओर लपकता है।

कुछ साल से मुंबई में हम पड़ोसी हैं, पर औपचारिक रूप से कम ही मिल पाते हैं। आज वे स्टार हैं, लिहाजा उनके पास समय कम है। लेकिन वे मुंबई में होते हैं, तो हम शाम को टहलते हुए टकरा जाते हैं। कामयाबी की इतनी ऊंचाई पर भी उनकी मनुष्यता को देख कर आह्लाद होता है।

(लेखक अनारकली ऑफ आरा के निर्देशक हैं)

 

 

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