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आइएएस: बाबुओं के ठाठ और ठसक

“सत्ता के तिलिस्म की गिरफ्त में बेचारा कलेक्टर ऊपर वालों की जी हुजूरी और नीचे वालों पर रौब न गांठे तो...
आइएएस: बाबुओं के ठाठ और ठसक

“सत्ता के तिलिस्म की गिरफ्त में बेचारा कलेक्टर ऊपर वालों की जी हुजूरी और नीचे वालों पर रौब न गांठे तो क्या करे”

आइएएस पति-पत्नी युगल के कुत्ते की सैर के लिए दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम को नियत समय से पहले खाली कराए जाने की घटना ने राष्ट्रीय चेतना को कुछ इस तरह झकझोरा, मानो कोई अप्रत्याशित घटना घट गई हो। विशिष्ट जनों के लिए आमजनों के अधिकारों या सुविधाओं में कटौती तो हमारे जीवन का ऐसा कटु सत्य है जिसे हमने बहुत पहले अंगीकार कर लिया है। फिर ऐसा क्या कहर बरपा? स्लोवानियन चिंतक स्लावो जिजेक का मानना है, “यह सार्वजनिक मंच की विडंबना है, भले हर कोई किसी अप्रिय तथ्य को जानता हो, उसे सार्वजनिक तौर पर कहने से सब कुछ बदल जाता है!” 

यूरोपीय उपनिवेशवादी अपनी आवश्कतानुसार कैसे देसी अभिजात वर्ग गढ़ते हैं, इस संदर्भ में फ्रांज फेनन की पुस्तक द रेचेड ऑफ द अर्थ की प्रस्तावना में ज्यां पॉल सात्र्र ने लिखा कि होनहार और कुशाग्र बुद्धि वाले नवयुवकों को चुनकर उन्हें पश्चिमी संस्कृति, विचारों और अवधारणाओं के गरम लोहे के लाल छड़ से दागकर चिन्हित किया जाता है और उनकी पहचान अपने देशवालों से बिल्कुल अलग कर दी जाती है। उनके पास अपने देशवासियों से कहने को कुछ नहीं बचता। ब्रिटिश शासन ने आइसीएस के ढांचे में इस बात का खूब ख्याल रखा था।

आइसीएस के करिश्माई करतब सत्ता के निर्बाध प्रयोग के दिनों के थे। एंग्लो इंडियन ऐटिच्यूडस: द माइंड ऑफ द सिविल सर्विस में क्लाइव डयूवी लिखते हैं कि बीसवीं शताब्दी में सीमित स्वशासन अधिकार के मिलते ही आइसीएस में विरोध के स्वर उठने शुरू हो गए थे और वे मुखर होकर काले लोगों को सिर पर चढ़ाने के लिए अपनी सरकार को कोसने लगे थे। भारतीय नेतृत्व ने औपनिवेशिक उद्देश्यों की सुचारू रूप से प्राप्ति के लिए नियोजित आइसीइस को आमूल स्वरूप में ग्रहण ही नहीं किया, बल्कि उससे यह आशा भी लगा बैठा कि अब वह जनोन्मुख होकर लोकतांत्रिक उद्देश्यों को धरातल पर उतारने में अहम भूमिका निभाएगा। सरदार पटेल का मानना था कि स्वतंत्र, विचारवान और मुखर अखिल भारतीय सेवा संघीय व्यवस्था का प्रहरी होगा और देश की अखंडता को सुरक्षित रखेगा। अखिल भारतीय सेवा के पदाधिकारियों के लिए इसी आशय से संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई थी, ताकि उन्हें सहज ही प्रताडि़त न किया जा सके।

आइसीएस के भारतीय प्रसंस्करण आइएएस से मूल रूप से तीन अपेक्षाएं थीं। पहला, उनका नजरिया स्थानीय पूर्वाग्रहों से कलुषित नहीं होगा, अत: वे स्थानीय राजनैतिक रुझान और संकीर्णता से मुक्त होंगे। दूसरा, केंद्र और राज्यों में पदस्थापित रहकर संघीय व्यवस्था को सबल करने हेतु वे केंद्र और राज्यों में बेहतर समन्वय स्थापित करेंगे और तीसरा, कलेक्टर के रूप में वे अपनी सरकारों के संकटमोचन होंगे।

लेकिन सरदार पटेल की अपेक्षाओं पर आइएएस कितना खरा उतरा? केंद्र और राज्य सरकार के कटु संबंधों के मद्देनजर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के साथ-साथ मुख्य सचिव भी प्रधानमंत्री की आपदा नियंत्रण बैठक से वॉकआउट कर गए। किसी भी नौकरशाह के लिए यह ‘गुरु गोबिंद दोउ खड़े काको लागूं पांय’ जैसी परिस्थिति में कोई फौरी निर्णय लेना कठिन था। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच किसे अपमानित करना है और किस के अहंकार को तुष्ट करना है, इससे बढ़कर असमंजस की स्थिति क्या हो सकती है? लेकिन, पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव सहज भाव से निकल गए क्योंकि दीर्घजीवी सरकारों में आइएएस नौकरशाह स्थानीय शासन के अभिन्न अंग बन चुके हैं। बलराज कृष्ण ने सरदार पटेल पर अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि पटेल और जवाहरलाल नेहरू में निजाम को लेकर तल्खियां चरम पर थीं। इसी संदर्भ में एक सभा में पटेल ने नाराज होकर एक मीटिंग से वॉकआउट किया। वी.पी. मेनन, जो पटेल के सचिव थे, उनके जाने के बाद कुछ देर बैठे रहे लेकिन थोड़ी देर बाद अनुमति लेकर वे भी निकल लिए। लेकिन हद तो तब हो गई जब केंद्र में बैठे आइएएस पदाधिकारियों ने कुछ ही दिनों पहले इस पदाधिकारी, जिसके सेवा विस्तार की स्वीकृति दी गई थी, उसे वापस बुलाने का आदेश दे दिया। फिलिप वुडरुफ ने आइसीएस के महिमामंडन में मेन हू रुल्ड इंडिया में लिखा है कि ‘‘यह एक अलग ही प्रजाति थी। ...ये अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में काम करते थे, लेकिन सबसे बड़ी बात कि ये इंटेलेक्चुअल थे।’’ इंटेलेक्चुअल की जिम्मेवारी होती है कि वह सत्ता को सच का आईना दिखाए। केंद्र और राज्य सरकार के बीच टकराव की अजीबोगरीब स्थितियां इसलिए हो रही हैं क्योंकि अधिकांश पदाधिकारी अपनी-अपनी सरकारों को सही, पर अप्रिय परामर्श देने का साहस नहीं कर पा रहे। 

हरफनमौला कलेक्टर ब्रिटिश शासन में अश्वेत लोगों के माई-बाप सरकार का मूर्त स्वरूप था। आज भी अन्य कार्यों के अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर जिलाधिकारी को नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट, 2005 के तहत असीम शक्तियां एवं संसाधन प्राप्त हैं, लेकिन कोविड आपदा के संदर्भ में राष्ट्रीय स्तर पर जो कुव्यवस्था हुई, वह अवर्णनीय है। ऐसा नहीं कि यह एक असंभव या असाध्य कार्य था। एक-दो कलक्टरों ने गजब की प्रतिबद्धता दिखाई। प्रवासी मजदूरों की घर वापसी की त्रासदी को इतिहास याद रखेगा। लेकिन नौकरशाही की अक्षमता से ज्यादा उनकी असंवेदनशीलता जनमानस को आहत कर गई। सैकड़ों मील पैदल मार्च करते हुए हुजूम में एक परिवार अपने पहिया वाले सूटकेस पर अपने बच्चे को बिठाकर खींच रहा था। इस तस्वीर ने देश के मर्मस्थल को छू लिया था मगर एक आइएएस पदाधिकारी ने चुटकी ली कि उसके पिता भी उसे अक्सर एयरपोर्ट पर ऐसे ही खींचते थे। हवाई यात्रा की विलासिता और खून जलाने वाली धूप में सैकड़ों मील प्राण-रक्षा के लिए चलने की विवशता में भेद न कर पाने वालों के बारे में ही यह उक्ति है कि उनके पास अपने देशवासियों से कहने को कुछ नहीं है। एक वायरल ऑडियो में स्वास्थ्य सचिव ने एक डॉक्टर को अपनी बहुत गंभीर समस्या सीधे उनसे कहने की धृष्टता से नाराज होकर उन्हें जेल भेजने की धमकी दे दी। लेकिन मदांधता और क्रूरता के लिए अगरतला के तत्कालीन डीएम को बहुत दिनों तक याद किया जाएगा, जिन्होंने दूल्हे के साथ बारात को भी जमकर पीट दिया था। जुमा-जुमा आठ रोज सेवा में आए हुए एक प्रशिक्षु आइएएस के तेवर अब तक सबको याद हैं, जो एक अस्पताल में मरीज के बेड पर पैर टिकाए खड़ा था।

खास बनने की ट्रेनिंगः मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी जहां आइएएस का प्रशिक्षण दिया जाता है

खास बनने की ट्रेनिंगः मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी जहां आइएएस का प्रशिक्षण दिया जाता है

कोविड के संक्रमण से ऐसे अधिकारी अनिभिज्ञ तो नहीं होंगे, लेकिन संभवत: खास होने के ख्याल को लाल छड़ से उन्हें प्रशिक्षण के दौरान ही दाग दिया जाता है। आइएएस ने बदली परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढाला तो है पर उसकी अनुवांशिक विरासत और गुण सूत्र वही हैं। आइएएस में चुन लिए जाने के बाद आम जनता के साथ बराबरी के स्तर पर संवाद स्थापित करना उनके लिए कठिन हो जाता है। देखें तो दोष उनका नहीं, दोष इस समाज का है। पिछले साल बिहार का एक अभ्यर्थी आइएएस की परीक्षा में टॉप कर गया। मुख्यमंत्री ने उसे माला पहनाया और पूरा बिहार हफ्ते भर उसकी प्रशस्ति-गान में लगा रहा। 

दिल्ली के मुखर्जी नगर के ‘तपोवन’ में देश का सबसे प्रतिभावान युवा आइएएस का परम पद प्राप्त करने की कठिन साधना करते-करते अधेड़ हो जाता है। आइएएस वर की प्राप्ति हेतु उनकी तपस्या को सफल बनाने के लिए धन कुबेर, पदाधिकारी, मंत्री या सांसद पिता करोड़ों की थैली लेकर आइएएस के पीछे भागने लगते हैं। सोशल मीडिया पर बस आप आइएएस लिख दीजिए, हजारों फॉलोअर वैसे ही हो जाएंगे। फीता काटने के लिए, दोस्ती गांठने के लिए लोग लालायित रहेंगे। जब तक आइएएस अलभ्य है तब तक वह निंदनीय है। अगर उससे संपर्क, साहचर्य या सान्निध्य मिल जाए तो वह देवतुल्य। आइएएस की उपादेयता घट रही है लेकिन उसके प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है।

मैं कई बार सिविल सर्विस परीक्षा के इंटरव्यू बोर्ड का सदस्य रहा। इतना क्वॉलिफाइड होने के बाद सिविल सर्विस में क्यों आना चाहते हो, पूछे जाने पर अधिकांश परीक्षार्थी कहते हैं, “मैं जब जिले का कलेक्टर बनूंगा तो अमुक ढंग से जनता की सेवा करूंगा।” तो मैं ठिठोली करता हूं, बंधुवर, बमुश्किल आप कम्पीट कर पाएंगे। अगर कम्पीट कर भी जाएं तो कोई गारंटी नहीं कि आपको आइएएस मिलेगा, अगर आइएएस मिल भी गया तो मुश्किल से एक या दो टर्म कलेक्टर रह पाएंगे। बाकी के 25-30 साल के बारे में कभी सोचा है आपने? सिविल सर्विस परीक्षा का मतलब आइएएस और आइएएस का मतलब कलेक्टर! हर किसी के अंदर एक कलेक्टर बैठा है जो आइएएस बनकर उससे आत्म साक्षात्कार चाहता है।

वह जमीन पर बैठ कर मिड डे मील चख ले तब खबर है, स्टेडियम में कुत्ता घुमा ले तब खबर, उसकी संपत्ति विवरणी में नकदी में एक भी रुपया न हो तब भी खबर और एक सौ पचास करोड़ रुपये उसके सीए के पास निकल जाए तब भी खबर, अस्पताल के बेड पर पैर रखे दे तब भी खबर है, अगर किसी बच्चे के सिर पर हाथ रख दे तब भी खबर! सत्ता के तिलिस्म की गिरफ्त में इस समाज के लिए कलेक्टर ही खबर है। क्या करे बेचारा कलेक्टर?

manoj nath

(लेखक 1973 बैच के बिहार काडर के सेवानिवृत्त आइपीएस अधिकारी हैं। विचार निजी हैं।)

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