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19 February 2015

यहां से देखो कला का रंग

उपेन स्वामी

कश्मीर की बाढ़ में ढहा हुआ लकड़ी का घर जिसके भीतर विडियो फिट किया हुआ है, तीस अंश के कोण पर झुका हुआ मुंबई का वीटी स्टेशन, संगीत सुनाता हुआ हेलमेट जिसे पचास हजार सेफ्टीपिनों से बनाया गया है, पारंपरिक कालीन, जो अपने ‌िकनारे तोड़ कर मनमाने आकारों की और चले गए हैं, एक घड़ी के भीतर कई घड़ियां जिनकी लगातार चलती सुइयां हर मिनट का पता देती हैं, कैमल की ट्यूब से रंग की बजाय बाहर निकलते रुपये जो कला में बाजार के दबदबे पर टिपण्णी करते हैं और ऐक्रेलिक के बने डिब्बे के भीतर धीरे-धीरे काली स्याही में डूबती हुई एक पेंटिंग जो तीन दिन में पूरी तरह स्याही-समाधि ले लेगी और कला की नश्वरता को रेखांकित करेगी। राजधानी दिल्ली में भारत कला मेला समाप्त हो गया है लेकिन उसकी ऐसी ही कई छवियां दर्शकों के दिमाग में दर्ज हो गई हैं।  

यह सातवां कला मेला था जिसमें 1100 कलाकारों की 3500 कृतियां प्रदर्शित की गई थीं। नब्बे देशों की 85 गैलरियों ने इसमें हिस्सेदारी की और 90 हजार से ज्यादा दर्शक-खरीदार आए। आयोजकों के अनुसार, कलाकृतियों की बिक्री पिछले कला-मेले की तुलना में 25 फीसदी ज्यादा हुई। कला बाजार में पिछले वर्षों से काफी गिरावट और मंदी चली आ रही है जिसके नतीजे में बड़े या नामी कलाकारों का काम या तो बिक नहीं रहा है या उन्हें अपने काम की कीमत कम करनी पड़ी है। ऐसी स्थिति में मेले में बढ़ी हुई बिक्री बाजार के उठने का संकेत थी, जिसकी खुशी कलाकारों के चेहरे पर पढ़ी जा सकती थी। कुछ कलाकार ऐसे भी थे जिनके काम को वर्षों बाद कद्रदान मिले और उन्होंने इसकी कीमत अदा की। इस साल विदेशी गैलरियों की भागीदारी कुछ कम रही और लिस्बन और हाउसर एंड वर्थ जैसी प्रसिद्ध गैलरियां अनुपस्थित थीं। लेकिन देशी प्रदर्शक बड़ी संख्या में थे जो एक बार फिर भारतीय कला व्यवसाय में आ रहे नए उत्साह का पता देते थे। मेले की निदेशक नेहा किरपाल का कहना था कि इस बार मेले में युवा रचनात्मकता को पहले से ज्यादा जगह मिली है और मेले का स्वरूप भी कहीं अधिक ‘लोकतांत्रिक’ हुआ है। अब वह दिल्ली के संभ्रांत तबके तक सीमित नहीं रह गया है। भारत के पुराने कला-उस्तादों, यामिनी रॉय,  हुसेन, सूजा, रजा, भूपेन खक्खर, रामकुमार, कृष्ण खन्ना, सतीश गुजराल, के जी सुब्रमन्यन, परितोष सेन, बिकास भट्टाचार्जी, नीलिमा शेख, सुधीर पटवर्धन, के एस राधाकृष्णन आदि के काम कला - मेले का पारंपरिक आकर्षण थे। लेकिन इनसे अलग अपेक्षाकृत नए कलाकारों की प्रयोगशीलता भी चकित करनेवाली थी। विश्वप्रसिद्ध अमूर्त चित्रकार डेविड हौक्नी ने कहा था कि ‘रूपाकार पर आधारित भविष्य की कला बीत चुकी कला की तरह नहीं दिखेगी।’ मेले में प्रदर्शित प्रयोगधर्मी काम को देखकर यह एहसास होता था कि हमारी कला कैनवस से बाहर आ चुकी है- प्रकृति, वातावरण, जमीन और आसमान में अपना नया कैनवास खोज चुकी है और अब पहले से कहीं ज्यादा ‘स्पेस’ चाहती है। जयपुर के सुपरिचित कलाकार सुरेन्द्र पाल जोशी का 50 हजार सेफ्टीपिनों से निर्मित संगीतमय ‘हेलमेट’ ऐसी ही एक कृति थी जो अपने होने को व्यक्त करने के लिए भरपूर और खुली जगह की मांग करती थी। मेले में जो कृतियां दर्शकों के खास आकर्षण का केंद्र बनीं, उनमें यह हेलमेट भी था और उसकी प्रयोगधर्मिता बहुत शान्तिदायक थी। इसी तरह केएस राधाकृष्णन के शिल्पों में सुंदर जैविक गतिशीलता थी और लालटेन पर उगी हुई जड़ों वाली उनकी कृति उनकी कला का एक और आयाम व्यक्त करती थी। दूसरी और तैयबा बेगम लिपि की प्लैटिनम ब्लेडों से बनी सिलाई मशीन ‘रिकौलिंग’ और हेमा उपाध्याय की ‘फिश इन अ डेड लैंडस्केप’ को देखना कहीं न कहीं विचलित करने वाला था। इंस्टालेशन के स्तर पर यह मेला खास तौर पर उत्तेजक कहा जाएगा। कृष्ण मुरारी, वलय शेंडे, भारती खेर, पुनीत कौशिक, रीना सैनी कल्लात, श्रीधर अय्यर, सोनल अंबानी, अनीता दुबे आदि के इंस्टालेशन खास तौर से आकर्षक थे। राहुल कुमार ने अपने इंस्टालेशन ‘सर्किल अन्सिर्क्लेड’ में 101 रंगीन सिरेमिक की वृत्ताकार प्लेटों के संयोजन से जैसे एक वृत्त को विखंडित किया था। कश्मीर की बाढ़ पर वीर मुंशी का इंस्टालेशन, पाकिस्तानी कलाकार मुहम्मद जीशान का काम ‘ऑन इन्डेफिनिटनेस’, श्रीधर अय्यर का घास-फूस के कोट के इंस्टालेशन कला के आधुनिक, अवधारणात्मक मुहावरे के अच्छे उदाहरण थे।

कैनवस-केंद्रित कला के स्तर पर हुसेन, रामकुमार, भूपेन खक्खर, नीलिमा शेख और गणेश हलोई के बहुत से काम का संयोजन भी इस मेले का आकर्षण था। इन कामों को देखते हुए आधुनिक भारतीय कला की एक यात्रा दिख जाती थी। अमदाबाद की आर्चर आर्ट गैलरी में प्रदर्शित हुसेन, रजा, जतिन दास, माधवी पारेख, मनु पारेख आदि की कृतियों में रंगों और आकृतियों का उत्सव था तो संचित आर्ट के स्टाल में रामकुमार के भूदृश्यों के धूसर रंग एक काव्यात्मक पृथ्वी की रचना करते थे। वड़ोदरा की सर्जन आर्ट गैलरी में भूपेन खक्खर की विलक्षण दुनिया देखी जा सकती थी। गिल्ड गैलरी के स्टॉल में सुधीर पटवर्धन की कृति ‘जर्नीज’ खास तौर पर दर्शनीय थी। इन दिनों देश के सर्वाधिक चर्चित कलाकार सुबोध गुप्ता ने अपने इंस्टालेशन में घरेलू बर्तनों को कैनवस पर चित्रित कर परंपरागत कला और उसके नए अभिव्यक्ति रूप के बीच संवाद की कोशिश की थी। विदेशी कलाकारों में अति यथार्थवादी चित्रकार हुआन मीरो के काम कुछ गैलरियों ने प्रदर्शित किए थे जिन्हें देखना अलग तरह का अनुभव था। दिल्ली आर्ट गैलरी ने ‘अ विजुअल हिस्ट्री ऑफ इंडियन मॉडर्न आर्ट ‘का आयोजन किया था जो प्रभावशाली होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी था। दरअसल, कुछ युवा चित्रकारों के अनुसार, पूरा मेला ही नए लोगों को यह जानने का अवसर मुहैया कराता था कि कला में नई प्रवृत्तियां क्या हैं, अभिव्यक्ति के नए रूप क्या-क्या हैं और कला-रचना में कौन सी नई सामग्री इस्तेमाल हो रही है।

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कला मेला कुछ अव्यवस्था का शिकार भी रहा। विदेशी गैलरियों को शिकायत थी की मेले में वाई फाई नहीं है जिससे वे अपने संभावित ग्राहकों से संपर्क नहीं कर पा रहे हैं। इसी तरह, मेले में गाइड भी नहीं थे जो बता सकते कौन सा स्टाल कहां है। कुछ दर्शकों-प्रदर्शकों का यह भी कहना था इतने बड़े कला-आयोजन के लिए चार दिन का समय बहुत कम है और यह अगर एक सप्ताह का होता तो बेहतर था। दो आधुनिक कारें भी मेले की शोभा बढ़ा रही थीं जिनमें एक पर रोहित चावला ने मिनिएचर की नकल चित्रित कर रखी थी और दूसरी कार नीले रंग की बीएमडब्लू थी जिसका अनुमानित मूल्य ढाई करोड़ रुपये बताया जा रहा था। कला, पैसे और बाजार के आपसी गठजोड़ के लिहाज से यह कार भी कला का एक नमूना लगती थी। 

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TAGS: मंगलेश डबराल, दिल्ली आर्ट फेयर, सुबोध गुप्ता
OUTLOOK 19 February, 2015
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