शीशे की तरह नाजुक कांच के शामियाने
सब कुछ समान्य होते हुए भी बहुत कुछ अनदेखा रह जाता है। हमारे परिवेश में कितना कुछ है जो महिलाएं सहती तो हैं पर कह नहीं पातीं। महिलाओं का सरल, सहज और सधा हुआ दिखने वाला जीवन भी अनगिनत हिस्से और अनकहे किस्से समेटे रहता है। जो भीतर कहीं गहरा दर्द लिए होता है। फिर भी यह स्त्री मन का साहस और विश्वास है कि वह न केवल स्वयं आगे बढ़ती है बल्कि अपनों के जीवन को भी गतिमान रखती है ।
इस उपन्यास की कहानी हमारे समाज के बीच की ही है। इसमें अपने आस-पास की कई लड़कियों का अक्स देखा जा सकता है। इसमें वह सच है, जिससे आंखें चुराने की, उसे नकारने की कोशिश की जाती है।
आंखों में सतरंगी सपने लिए एक चुलबुली-सी लड़की ससुराल आती है पर उसके सपने एक-एक कर टूटने लगते हैं और कुछ भयावह स्थितियों का सामना करना पड़ता है। कहीं से कोई सहारा नहीं मिलता। वह कमजोर पड़ जाती है, टूटने लगती है पर फिर हिम्मत कर जिंदगी की बागडोर अपने हाथों में लेती है और बहुत संघर्ष कर, धीरे-धीरे बिखरे टुकड़े समेट जिंदी को एक नए मुकाम तक ले जाती है और समाज में अपना एक स्थान बना लेती है।
एक स्त्री अपनी अदम्य जीजिविषा और दृढ इच्छा संकल्प से खुद को तमाम मुश्किलों और डिप्रेशन की गहरी खाई से कैसे खींच निकालती है और आस-पास एक खुशनुमा संसार रचती है, इस उपन्यास में देखा जा सकता है। बिहार की आंचलिक बोली के चुटीलेपन के साथ रोजमर्रा की छोटी छोटी घटनाओं के ताने-बाने से बनी इस कथा में हर लड़की कहीं न कहीं अपना अक्स देख पाएगी।
पुस्तक – कांच के शामियाने
लेखिका – रश्मि रविजा
प्रकाशक – हिंद युग्म
पृष्ठ संख्या - 204
कीमत -- 140 रुपये